पशुपति शर्मा के फेसबुक वॉल से
रहिमन गली है सांकरी, दूजो न ठहराहिं।
आपु अहै तो हरि नही, हरि तो आपुन नाहिं।।
हरि से प्रेम की ये सरल शर्त है। पर क्या ये वाकई इतनी सरल है? मैंने अपने हरि को अपने हृदय में जगह दे दी, अब मैं मैं का घोष क्यों? आप तय कर लें आपके हृदय में हरि रहेंगे या आपका मैं। मैं तो चाहता हूं हृदय में मेरे हरि रहें, पर ये तप कैसे करूं? ये तो सतत साधना है जो परम पिता और परम पिता परमेश्वर दोनों की कृपा के बिना मुमकिन नहीं।
पिता अनंत, पिता कथा अनंता-6
प्रिय तक की राह को आसान बना देते हैं प्रिय के प्रिय। हरि के प्रिय तो हरि ही तय करेंगे, आप बस इस प्रीति का एहसास कर सकते हैं। चारों तरफ नज़र दौड़ाता हूं तो मुझे मेरे पापा के प्रिय जन ही नज़र आते हैं। जिन्होंने पिता से दो पल की भी प्रीत निभाई, उनसे प्रीत का नाता जोड़ सका तो मेरा हरि मुझसे बिछड़ेगा कैसे?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर बदर फिरते
हमारा यार है हममें, हमन को इंतज़ारी क्या।
मेरे पिता के प्रिय शंभु कुशाग्र सर। मेरे प्रिय शंभु कुशाग्र सर। शंभु सर के प्रिय पापा। प्रेम की इस भूलभूलैया में आप एक दरवाजे से दूसरा दरवाजा खोलते रहिये, प्रेम का विस्तार होता जाएगा। शंभु सर से मेरी मुलाकात नाटकों के जरिये हुई। नाटक पिता का प्रिय नहीं था, उनका प्रेम तो पुत्र से था। तब के दिनों में हमने विजयनंदन सर के साथ संचेतना की ओर से बकरी नाटक किया था। पापा मां के साथ नाटक देखने आए और गदगद होकर लौटे।
शंभु सर पूर्णिया कॉलेज के अंग्रेजी के व्याख्याता। मेरे अग्रज, मुझसे श्रेष्ठ, मेरे गुरू। शंभु सर ने अपने मैं का त्याग किया। बड़प्पन उनका जो सखा भाव से मेरे पिता को पिता का दर्जा दिया , मां को मां का दर्जा। परिवार को अपना परिवार माना।
मेरे पिता के प्रिय लक्ष्मीश्वर बाबू जिनका स्नेह पिता पुत्र दोनों पर बरसा। पू्णिया कॉलेज में मेरी डिग्री को लेकर पापा ने पटना हाईकोर्ट तक लड़ाई लड़ी , जीत हासिल की। इस दौरान आप हमेशा पापा का हौसला बढाते रहे, साथ दिया।
मेरे पिता के प्रिय और मेरे श्रद्धेय वो मित्र जिन्होंने मेरे पिता को प्रफुल्लित रखा, आनंदित रखा। कामेश्वर अंकल, महेश अंकल, राम साहब अंकल… मित्रों की इस सूची को आप विस्तार दे सकते हैं। जब भी मैं घर आता, पापा एक शाम ऐसी रखते जिसमें आप सभी का आशीर्वाद मुझ पर बरसता। मैं इतना सारा प्रेम देखकर अंदर से असहज हो जाता। पिता पात्र की पात्रता से अधिक प्रेम उड़ेलने के आदि रहे हैं।
मेरे पिता के प्रिय शंकर सिंह अंकल जी, जिनके घर पापा ने सहज भाव से हजारों कप चाय पी होगी। अंकल जी दो महीने पहले परलोक चले गये। वो हमेशा अपने भाईजी से दो कदम आगे चलते और राह के अवरोधों को ललकारते। आंटी जी का मां से निश्छल और सतत लगाव हमें प्रेम संसार की अहमियत बताता है। शंकर सिंह अंकल की एंबेसडर गाड़ी से पापा ने कई यात्राएं की। पूरणदेवी मंदिर, कस्बा मंदिर और कई पिकनिक हम सपरिवार इस एंबेसडर से गये। ठसाठस भरी एंबेसडर और अंकलजी की ठसक, दोनों का आनंद था।
मेरे पिता के प्रिय भ्रातानंद अंकलजी। मुझे याद है पूर्णिया के शुरुआती दिनों में एक वो घर था, जहां पापा पूरे परिवार के साथ जाते, घंटों गप्पें लड़ाते और हम खा-पीकर लौटते। मेरे पिता के प्रिय रायजी। सीधे सरल। आज भी उनकी सादगी को याद कर मन शुद्ध हो उठता है।
मेरे पिता के प्रिय माधो चा, मुकुंद चा। माधो चा मेरे चाचाजी के मित्र थे। धड़ल्ले से घर के अंदर दाखिल होते। दरवाज़े पर दादाजी रोकते टोकते लेकिन वो परवाह नहीं करते। बेहद जिंदादिल, बेख़ौफ़ और ताल ठोककर दोस्ती-दुश्मनी निभाने की परंपरा वाले। हम बच्चों के वो प्रिय थे क्योंकि वो किस्से बहुत रस लेकर सुनाते। गांव परोरा में उनके घर जाते तो खूब आनंद आता।
मेरे पापा के प्रिय मधु चा। मधु चा के पापा डॉ विभूति नारायणजी सिन्हा और मेरे दादा सूर्य नारायणजी शर्मा मित्र रहे। मित्रता ऐसी कि दादा की स्मृति में विश्राम गृह बनाया तो चौखट पर दादा का नाम खुदाया, चरणों में अपना। मेरे पापा का प्रिय नयाटोला का दोसबाबू परिवार। दादा के नया टोला वाले दोस्त हमारे पापा, चाचा के दोसबाबू। अब न दोसबाबू रहे, न दोसमाय। अब न वैसा गहरा, निस्वार्थ प्रेम रहा न वैसे प्रगाढ भाव।
मेरे पिता के प्रिय अमरनाथ जी। नवोदय के मेरे तमाम साथी पिता से मिले तो उसी भाव से पर अमरनाथ जी ने संकट के दिन में पुत्र धर्म निभा पापा के दिल में एक कोठरी और खोल ली। ऐसी ही एक कोठरी मधेपुरा में रूपेश ने खोल ली।
पिता मेरे बस भाव के भूखे, जिन्होंने अपने भाव से पिता की आत्मा को सुख पहुंचाया, सबका ऋणी हूं। मेरे प्रिय हरि, मेरे पापा के प्रिय का ये संसार बहुत विशाल है, इस जन्म में सबका बखान मुमकिन नहीं। इस कथन में कहीं चूक हो तो हे हरि मुझे माफ करें। हरि के प्रिय उनसे पहले माफ करें।
कबीरा कुआं एक है, पानी भरे अनेक।
बर्तन में ही भेद है, पानी सब में एक।।