रमेश रंजन सिंह
आज मेरे सिर से पिताजी का साया हमेशा के लिए उठ गया। कोरोना ने पापा को हमसे हमेशा के लिए छीन लिया। मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सका। पापा की जिंदगी बचाने के लिए झारखंड की सड़ी गली और हडिया पीकर मस्त रहने वाली सरकार से लेकर रांची के हर छोटे बड़े पत्रकार, दोस्तों से पापा की जिंदगी बचाने की भीख मांगता रहा। कई अनजान लोगों ने अपनी हैसियत से आगे बढ़कर पापा की जान बचाने के लिए इंसानियत का फर्ज निभाया, तो कईयों ने छोटे और बड़े भाई की भूमिका अदा कर अपनी जान लड़ा दी। सबने अपनी तरफ से पापा की जान बचाने, दिल्ली से रांची दवा पहुंचाने तक की हर मुमकिन कोशिश की।
अभिनव पांडे, बी.वी. श्रीनिवास जी, नितेंद्र, कुंदन भैया, रितेश, हर्षवर्धन, आनंद दत्ता, अक्षय, अनुरंजन सर से लेकर CRPF के DIG और IIMC के सीनियर संतोष दुबे सर और उनकी IPS पत्नी प्रिया दुबे मैम भी कामधाम छोड़कर पापा की जान बचाने में जुटे रहे। जिस निकम्मी सरकार और डॉक्टरों पर रांची के पारस अस्पताल में भर्ती मेरे पिताजी की जिंदगी बचाने की जिम्मेदारी थी, वो दिल्ली वाले साहेब के दिखाए गए रास्ते पर चलकर ‘आपदा में अवसर’ की रात-दिन तलाश में जुटे रहे। चार दिनों तक झारखंड के सीएम से लेकर बनाना गुप्ता के दफ्तर तक बस फोन की घंटी घनघनाती रहीं…और पापा की जिंदगी की सांसो की डोर टूटती रहीं।
मेरे पापा की तरह ही पूरे देश के लाखों कोरोना मरीजों और उनके घरवालों की जिंदगी से इलाज के नाम पर दिल्ली से मुंबई तक खुलेआम मौत का खेल खेला जा रहा है। हजारों जिंदगियां मौत के मुहं में समा रही हैं।अस्पताल की चौखट से लेकर श्मशान घटों तक लाशों का ढेर लगा है। साहेब बस मौत का तमाशा देख रहे हैं। हम जैसे बेबस और लाचार लोग सामने से आती मौत के आगोश में अपनों को समाता देख रहे हैं। कोरोना सिर्फ लोगों की जिंदगी नहीं छीन रहा है। हर दिन धरती के भगवान डॉक्टरों और सियासतदान से जनता का भरोसा उठ रहा है। हालात इतने खराब हैं कि इलाज के नाम पर लाखों करोडों रुपये कूट रहे अस्पतालों में लाखों रुपये खर्च करने के बावजूद, बीते साल विदेशों से आए ICU, VENTILATOR के साथ लाइफ सेविंग्स ड्रग तक नसीब नहीं हो पा रहे हैं।
बात साहेब के दो गज की दूरी…मास्क है जरूरी से… कोसों दूर निकलकर यमराज के हाथों में आ गई है। …. और साहेब समुद्र मंथन से निकली कोरोना वैक्सीन की खेप पूरी दुनिया में बांटकर चैन की बांसुरी बजा रहे हैं। मैंने तो पापा के साथ अपना सब कुछ खो दिया। आप, पहले सूरसा राक्षस की तरह मुँह बाये खड़े कोरोना से अपनी और अपने परिवार की जान बचाये और दुआ करें कि पापा की आत्मा को शांति मिले।
पापा राजा हर्षवर्धन से भी बड़े दानवीर और हिमालय पर्वत से ज्यादा गंभीर आदमी थे। आज भी मेरे गाँव से लेकर छपरा तक कहावत है जो बाबू तेज नारायण सिंह जी को हंसते हुए देख लिया…समझो झरोखे से पद्मावती को देख लिया। बिहार के चीफ इंटरनल ऑडिटर रहे पापा। अक्सर अपना सब कुछ दांव पर लगाकर मजबूरी में माँ बाप को छोड़कर बाहर मजदूरी करने जाने वालों के साथ मेरा भी यह बोलकर मज़ाक़ उड़ाते थे कि… “दिल्ली की लड़की…मथुरा की गाय…कर्म फूटे तो बाहर जाए…मीडिया के नौकरी…बिना बिहाअल साथ रहे वाली छोकरी ( लिव-इन ) के साथ कब छूट जाय… केकरो ना मालूम।”
दूसरी बात माँ को चिढ़ाने के लिए कहते थे होली, दिवाली, छठ जैसन पर्व-त्योहारवा में बेटा…घरवा ना आवस…नौकरी छूट जाई वाला हर दम बहनवा बनावस… देखना जब मैं मरूंगा…उस दिन भी ऑफिस से छुट्टी नहीं मिलेगी…आओगे जरूर मगर मेरे मरने के बाद ही घर पहुंच पाओगे…और बदनसीबी देखिए…पापा हमेशा के लिए चले गए…मैं चाहकर भी पिताजी को कंधा और आग तक ना दे सका। भगवान ऐसे हालात किसी को भी नसीब ना करें। कोरोना ने बीते साल मौत के मुँह में समाने से पहले मेरी जिंदगी बख़्श दी थी…और पापा को सबकी आँखों के सामने निगल गया।
संभल कर रहिए भाई… ना जाने कोरोना ने अगला नंबर किसका लगा रखा है। राजनीति हो..या फिर जिंदगी और मौत का मैदान सरकार….साहेब और शहंशाह दोनों ने लोगों की मौत को भी नंबरों का खेल मान लिया हैं। हर जगह आपकी जिंदगी दांव पर लगी है… ‘खेला होवे’ नहीं, मौत का खेला हो रहा है।
रमेश रंजन के फेसबुक वॉल से साभार
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