ब्रह्मानंद ठाकुर
देश के किसान एक महीने से दिल्ली दरबार की दहलीज पर आंदोलन कर रहे हैं। सर्द मौसम में खुले आसमान के नीचे अन्नदाता अपने हक की लड़ाई लड़ रहा है। केन्द्र-किसानों के बीच पांच दौर की बातचीत बेनतीजा रही है । कानून को किसानों के हक में करार देने के लिए पूरा सरकारी अमला जुटा है। जबकि किसान तीनों कृषि कानून को रद्द कराने की मांग पर आमादा हैं । किसानों का मानना है कि जिन कानूनों को सरकार किसानों की भलाई के लिए बता रही है उसकी नींव ही कारपोरेट को ध्यान में रख कर रखी गई है । ऐसे में किसानों को आशंका है कि इन कानूनों से आने वाले दिनों में खेती कारोबारी करने लगेंगे और जमीन का मालिक उनकी मजदूरी करने लगेगा ।
सितम्बर महीने में जब यह कानून लाया गया था तो देश में चौतरफा किसानों ने यह कहकर इसका विरोध किया कि इस कानून के लागू हो जाने से कारपोरेट खेती को बढ़ावा मिलेगा और किसान अपनी जमीन से बेदखल कर दिए जाएंगे। हालाकि प्रधानमंत्री ने ऐसी शंकाओं को निराधार बताते हुए इन तीनों कृषि कानूनों को देश और देश के किसानों के हित में बताया था और किसान संवाद के जरिए भी पीएम मोदी ने यही संदेश दिया है । लिहाजा सरकार और किसानों की दलील और आशंकाएं कितनी सार्थक हैं इसे समझने के लिए पहले तीनों कानूनों को विस्तार से समझना होगा ।
पहला कानून है कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सलीकरण) । इस कानून के तहत केन्द्र सरकार का एक देश, एक कृषि बाजार बनाने का प्रावधान है। इसके तहत पैन कार्ड धारक कोई भी व्यक्ति या कम्पनी या सुपर मार्केट किसी भी किसान की फसल किसी भी जगह पर खरीद सकता है । इसमें किसी भी तरह का कोई शुल्क नहीं लगेगा। मतलब फसल अब सिर्फ सरकारी मंडियों में ही नहीं बिकेगी, उसे बड़े व्यापारी भी खरीद सकेंगे। बिहार में 10 साल पहले ही बाजार समिति भंग की जा चुकी है और यहां के किसान व्यापारियों को ही अपनी फसल बेंचते हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या फसलों की खुली खरीद से किसानों को उचित कीमत मिलेगी ? उदाहरण के रुप में इस साल खरीफ की धान फसल को लिया जा सकता है। केन्द्र सरकार ने इस साल धान का समर्थन मूल्य 1868 रुपये प्रति क्विंटल निर्धारित किया । इस एमएसपी पर धान का क्रय अभी शुरू भी नहीं हो सकी और व्यापारी किसानों से धान 1150 से 1200 रुपये प्रति क्विंटल की दर से खरीद लिए । आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि देश में मात्र 6 प्रतिशत किसान ही एमएसपी पर अपनी फसल बेंच पाते हैं। शेष 94 प्रतिशत किसानों को अपनी फसल औने-पौने दाम पर बेंचना पडता है। आंदोलनकारी किसान संगठनों के नेता सरकार से यह मांग कर रहे हैं कि इस कानून में इस बात को शामिल किया जाए कि कोई भी व्यापारी किसानों से एमएसपी से कम मूल्य पर उसकी फसल नहीं खरीदे। संगठन के नेताओं का मानना है कि सरकार यदि ऐसा नहीं करती है तो इसका साफ मायने होगा कि वह किसानों के एमएसपी से अपना पिंड छुडाना चाहती है। हालांकि किसानों के दबाव में सरकार एमएसपी पर लिखित आश्वासन देने की बात कह रही है ।
दूसरा कानून है कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्ववासन और कृषि सेवा करार। यह कानून कंट्रैक्ट फार्मिंग से जुडा हुआ है और इसे किसान संगठनों के नेता किसानों के हितों के विपरीत मान रहे हैं। इस कानून के तहत कोई भी बड़ा पूंजीपति या कारपोरेट घराना किसानों से उसकी जमीन लीज पर लेकर खेती कर सकेगा। इस कानून का देश के किसानों पर पड़ने वाले दूरगामी प्रभावों का उल्लेख करते हुए भारतीय किसान महासंघ के राष्ट्रीय प्रवक्ता अभिमन्यु कैहाड़ लिखते हैं कि कंट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देने वाले इस कानून से बड़ी- बड़ी कम्पनियां खेती करेंगी और किसान अपने ही खेत पर मजदूर बन जाएंगे। वे आगे लिखते हैं कि इस कानून के जरिए सरकार कृषि का पश्चिमी मॉडेल हमारे देश के किसानों पर लाद रही हैः हमारे देश में खेती -. किसानी जीवन यापन का साधन है ,व्यवसाय नहीं। एक आंकड़े के मुताबिक देश में करीब 26 करोड़ परिवार खेती-किसानी से जुड़े हैं, जिसमें करीब 12 करोड़ परिवार के पास खुद की जमीन है । जबकि करीब 14.46 करोड़ किसान परिवार भूमिहीन है और बटाई पर खेती करते हैं । ऐसे में कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग शुरू होने से 14 करोड़ किसान परिवार मजदूर बनने को मजबूर हो जाएंगे ।
तीसरा कानून है आवश्यक वस्तु संशोधन । इस कानून के जरिए केन्द्र सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में बड़ा बदलाव किया है। पुराने कानून में यह प्रावधान था कि व्यापारी औने पौने दाम पर किसानों से उसकी फसल खरीद कर कालाबाजारी के लिए जमाखोरी नहीं कर सकते । अगर कोई ऐसा करते पाया गया तो उसे दंडित किया जाता था। इस कानून के लागू हो जाने से अब कोई भी व्यापारी यदि किसी भी अनाज का जमाखोरी करता है तो वह गैरकानूनी नहीं होगा। मतलब व्यापारी अब अपने हिसाब से खाद्यान्नों का भंडारण कर सकेंगे।
बिहार में चूंकि इन कृषि कानूनों पर किसानों के बीच अबतक विस्तार से चर्चा नहीं हुई है , इसलिए यहां के किसानों में इसको लेकर चिंता की कोई बात नहीं देखी जा रही है फिर भी आंदोलनरत किसानों ने देश किसानों के दूरगामी हितों को लेकर जो मुद्दे उठाए हैं उन्हें नजर अंदाज तो कतई नहीं किया जाना चाहिए।