बिहार में विधानसभा चुनाव के लिए पहले दौर की वोटिंग हो चुकी है। सभी सियासी दल अपने अपने हिसाब से अपनी बढ़त का दावा कर रहे है हैं लेकिन इस समय कुछ ऐसे उम्मीदवार हैं जिनकी जीत का दावा खुद जनता कर रही है। ये ऐसे उम्मीदवार है जो किसी दल से नहीं बल्कि जनता के टिकट पर जनता उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसे उम्मीदवारों के पास ना तो कोई तामझाम है और ना ही कोई कार्यकर्ता। इनके समर्थन में जनता खुद प्रचार कर रही। ऐसे ही उम्मीदवारों में एक नाम है डॉ अखिलेश कुमार का। जो जनता के बीच ज़ीरो बजट का चुनाव लड़ रहे हैं साथ हो उनके चुनाव प्रचार का तरीका भी पारंपरिक प्रचार से अलग है। अखिलेश के बारे में जो भी सुन रहा है खिंचा चला आ रहा है। ऐसा ही एक नाम है भगवान प्रसाद सिन्हा को 70 साल की उम्र में बेगूसराय से नरपत गंज गए और वहां अखिलेश के प्रचार के तरीके के बारे में को कुछ देख उसे अपने फेसबुक पेज पर शेयर किया। आप भी पढ़िए खासकर नरपत गंज के लोग जरूर पढ़ें जिससे अखिलेश को लेकर किसी के मन में कोई दुविधा है तो वो भी दूर हो जाएगी।
भगवान प्रसाद सिन्हा के फेसबुक पेज से साभार
नरपतगंज, ज़िला अररिया का विधानसभा क्षेत्रयहाँ एक ऐसे उम्मीदवार के चुनाव प्रचार मे समर्थन देने पहुँचा हूँ जो अपने ज़ीरो बजट पर चुनाव लड़ने के संकल्प पर अडिग है। उसके साथ चलनेवाले साथी अन्य उम्मीदवारों के क़ाफ़िले के विपरीत बिना किसी तामझाम के चलते हैं। यह प्रचलन में आम है कि उम्मीदवारों के गले में अमूमन माला रहता है।लेकिन इस उम्मीदवार ने नामज़दगी के पर्चे दाख़िल के वक़्त भी माला नहीं पहना । चार कॉमरेडों के साथ गया और पर्चा दाख़िल कर आया। वह लोगों से कहता है कि अगर आप ज़ात के नाम पर वोट देना चाहते हैं तो मुझे वोट न दें। मुझे वोट मेरी सलाहियत और क़ाबिलियत के पैमाने पर दें। अगर इस पैमाने पर कोई और उम्मीदवार उतरता है तो आप बेशक उन्हें वोट दें। वह उम्मीदवारों से और लोगों से भी अपील करता रहता है कि विस्तृत परिक्षेत्र में फैले नरपतगंज विधानसभा क्षेत्र (इस विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में 42 पंचायत हैं और एक छोड़ से दूसरे छोड़ की दूरी अधिकतम 70 किलोमीटर है जो नेपाल की सीमा से सूदूर कोशी अंचल के पूर्णिया मधेपुरा सीमा तक जाती है) के चौक चौराहे, नुक्कड़ों पर सभी उम्मीदवार एक साथ अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के तर्ज़ पर आमजनता के सामने मुद्दों पर अपने अपने बहस-विमर्श पेश करें। उसके बाद जनता पर छोड़ दें कि वे किन्हें चुनती है। एक आदर्शमय स्थिति वे भारतीय लोकतंत्र के सामने न सिर्फ़ प्रस्तुत करना चाहते हैं बल्कि उसके प्रति अमल के लिए भी तैयार खड़े हैं। लोगों के सामने भी, ख़ासकर मैं वअभी जिस प्रचार व जनसंपर्क अभियान का हिस्सा था, उसमें वह इसे बेबाकी से रख रहे थे। अपनी बातों को रखते हुए जो आत्मसंघर्ष उनके अंदर दिखाई पड़ता है वह उन्हें आत्मविश्वास से लबरेज़ दमक तक पहुँचा देता है।
वह मौज़ूदा दलगत स्थिति पर चोट करते हुए एक बिल्कुल नयी शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं कि जैसे जुडिसियरी में ” कॉलेज़ियम” ने जजों की बहाली पर अदालते आलिया तक की साख पर सवाल खड़ा कर दिया वैसे ही पॉलिटिकल पार्टियों के अंदर भी कॉलेज़ियम है जो समस्त लोकतांत्रिक संस्थाओं पर ही डोरे डाल चुकी है जिसे आमलोग ही नहीं चिंतक और विशेषज्ञ भी नहीं देख पाते हैं। यह कॉलेज़ियम टिकट बँटवारे के वक़्त इस तरह संगठित रूप से सक्रिय होता है कि परिवार के सदस्यों से अंतिम उपाय के तौर पर बाहर आता है। पहले अपने बेटों और बेटियों को टिकट देता है, फिर ससुर, दामाद, समधी समधिनियों को, फिर भाई, बहू, भतीज़ों को देता है भले ही वे स्थायी तौर पर बिहार से बाहर अमेरिका, इंग्लैंड या कर्नाटक, केरल तमिलनाडु में ही क्यों न बसे हों ।
महागठबंधन से लेकर राजग गठबंधन तक दोनों गठबंधनों का हर सयासी हरीफ़ व फ़रीक़ इस पुत्रवाद, रक्तबीजवाद के पीलिया रोग से पीड़ित है। वह बता रहे थे जगता बाबू और शिवानंद तिवारी सरीखे दोनों गठबंधनों के कतिपय राजनेताओं ने अपने बेटों के लिए टिकट सुरक्षित करवाया। इस पर मैंने उनके आँकड़े ठीक करते हुए कहा कि वामपंथियों में यह प्रचलन नहीं है। तब उन्होंने तपाक से ज़वाब दिया कि वहाँ तो उम्र बीतने तक ख़ुद से फ़ुर्सत नहीं है तो बेटों के लिए कहाँ सोचेंगे…. सब लोगों ने इस टिप्पणी को परिहास में लिया।
फिर आगे बढ़ते हैं और जनता से मुख़ातिब होकर संवाद चलाते हुए कहते हैं कि रक्तबीजवाद के बाद दलों के कॉलेज़ियम टिकट के लिए अपराधियों को, उसमें भी शातिर अपराधियों को प्राथमिकता देते हैं। यह अकारण नहीं है कि दोनों राजदीय महागठबंधन और राजग के गठबंधन में अपराधियों की तादाद टिकट पानेवालों में लगभग बराबर है। वे और उनका मीडिया डर से उन शातिर अपराधियों को बाहुबली बोलता है। संख्यात्मक उदाहरण से वे अपने मुवक़्क़िफ़ को तस्दीक़ करते हैं ।
अपराधियों के बाद, वे कॉलेज़ियम के द्वारा टिकट देने के तीसरे मरहले का ज़िक़्र करते हैं जिनमें प्राथमिकता धनपशुओं को दी जाती है। भाजपा के दो सक्रिय कार्यकर्ताओं के दरवाज़े पर हठात पहुँचने के बाद वे धनपशुओं वाली बात की तस्दीक़ उन्हीं से कराते हैं जो यह बताते हैं कि उनका उम्मीदवार पाँच करोड़ में टिकट ख़रीद कर लाया है।
इस तरह वे राजग गठबंधन और राजदीय महागठबंधन दोनों के कार्यकर्ताओं से मुख़ातिब होकर कहते हैं कि उनकी हैसियत दलों में बँधुआ मज़दूरों वाली है। अपनी हैसियत और ऊपर के रक्तबीजवादी नेताओं के द्वारा आरोपित औक़ातों से ऊपर उठें और लोकतंत्र के मंदिर के असली मूरत को पहचानें जो जीते या नहीं जीते दोनों स्थितियों में आपके लिए उसी तरह और उसी मात्रा में उपस्थित रहेगा जितना और जैसे आज है।
थकान तो हुई। शरीर कमजोर है हाल के बुखारों से। फिर भी सुबह से दोपहर तक जो मतदाताओं के बीच बहस-विमर्श मिलता रहा वह सारी थकान मिटाते रहा। गाँव के कम शिक्षित ठेठ किसान तबक़े के लोग इस उम्मीदवार को वोट मिले इसके लिए जिस तर्क, तथ्य और विश्लेषण को पेश करते हुए दीख रहे हैं वह अपने आप में हम जैसों के लिए उम्मीद और उत्साह के तोहफ़े की तरह है। वे अद्भुत ठेठी तर्क के साथ जातिवाद और फ़िरक़ावारियत के बिना पर वोट के लिए मना कर रहे थे। उनके इस तेज तर्रार देसी शैली के विवेकसम्मत बहस के सामने देश के बड़े बड़े नामचीन राजनीतिक वैज्ञानिक विशेषज्ञों, राजनेताओं और मेनस्ट्रीम टीवी डिबेट में भाग लेने वालों के विमर्श आपको फीके और पढ़े लिखे मूर्खों की बहस लग सकते हैं।
उम्मीदवार #डॉक्टर_अखिलेश_कुमार सुदूर राज्य के उपूसी अंचल के दूरवर्ती क्षेत्र नरपतगंज विधानसभा क्षेत्र से सच में लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी के तौर पर आज खड़े हैं। वे #रेणु के इस #मैला_आँचल से लोकतंत्र के नये उद्घोष को राज्य के दूसरे दूर दूर प्रांतर तक पहुँचाने के लिए शंखनाद कर रहे हैं। वे दीपस्तंभ खड़ा कर रहे हैं जहाँ से लोकतंत्र पर छा रही कलिमा तम को रोशनी से भर दें।
शायद यह प्रेरणा उन्हें और उनके जैसे दर्जनों नवोदयनों को अपने alma mater से मिली हो जहाँ दी जानेवाली व्यक्तित्व और चरित्र के सर्वांगीण विकास की शिक्षा उन्हें याद हो, जहाँ की “तू ही राम है तू रहीम है…” की प्रार्थनाएं उनके मस्तिष्क में भौतिक घर बना ली हों, जहाँ अंबेडकर, गाँधी, नेहरू के पाठ उन्हें याद रह गये हों, जहाँ गाये जानेवाले रवींद्रसंगीत के वे गीत “केई तोमारे डाक सुने आसि न तबे एकला चलो रे.. ” उनके संस्कार में शामिल हो गए हो, जहाँ समवेत स्वर में गाए जाने वाले क़ौमी तराने ” सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा.. ” के गुलिस्ताँ और उनके बुलबुले के ख़तरे में पड़ने का आभास उन्हें ललकार दिया हो…!
तभी कोई डीएसपी की अच्छी भली नौकरी का परित्याग का साहस जुटाया होगा और पटना साइंस कॉलेज़ की प्रोफ़ेसरी का इस्तेमाल लोकतंत्र के यज्ञाहुति के लिए करने को सोचा होगा!
देखकर दंग रह गया जब उम्मीदवार डॉक्टर अखिलेश ने बताया कि दर्जनों नवोदय विद्यालय से पढ़े बच्चे जो कहीं बड़े बड़े पद पर हैं और कुछ युनिवर्सिटियों में हैं उनके साथ घूम रहे हैं और उनमें से लगभग सभी कम्युनिस्ट आंदोलन और विचारधाराओं के साझीदार हैं। यह मेरे लिए अद्भुत सुखद अनुभव था।
मन में कचोट आया कि कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार भी अपने अपने क्षेत्र में इसी किरदार के साथ चुनाव अभियान चलाते! मेरी अंतर्दृष्टि में डॉक्टर अखिलेश वही उदाहरण पेश कर रहे हैं जो 1952-67 के आम चुनावों तक कम्युनिस्ट उम्मीदवार पेश किया करते थे। इसलिए मुझेRanjan Jha और Sushant Bhaskar के सामने समझाना पड़ा कि क्यों मैं अखिलेश को कॉमरेड अखिलेश कहूँ!
#डॉक्टर_अखिलेश_कुमार सचमुच इतिहास गढ़ने में लग गए हैं। नवोदय विद्यालय परिवार उन पर स्वाभाविक रूप से गर्व करता है।