पुष्यमित्र
बारिश से गीली हुई सुबह में जब टहलने निकला तो एक मैदान में मक्के यह ढेर पड़ा मिला। साफ नजर आ रहा था कि रात भर हुई बारिश में यह मक्का भींगता रहा है। आखिर यह मक्का किसका है, किस किसान ने बड़ी मेहनत से उपजाई अपनी फसल को इस तरह रात में खुली बारिश में सड़ने छोड़ दिया? दो दिन से गांव में देख रहा था कि किसानों में हड़बड़ी मची है, मक्के की फसल तैयार कर लेना है। जो भी कीमत मिले उसी में बेच देना है। मानसून सिर पर है। बारिश में लोगों के लिये सिर छुपाना मुश्किल है। मक्के को कहां रखा जाएगा।
जिस मक्के का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये प्रति क्विंटल से अधिक तय हुआ था, वह इस पूरे मौसम में हजार-11 सौ रुपये क्विंटल की दर से बिकता रहा। पिछले दो तीन दिनों में तो उसका भाव और गिर गया। जबकि सरकार ने यह माना है कि एक क्विंटल मक्का उपजाने की लागत 1230 रुपये है। किसानों ने सोचा अब लाभ की उम्मीद रखना बेकार है। कुछ पैसे निकल जाएं तो सर पर सवार खरीफ की खेती करने में सुविधा होगी। और फिर उनकी उम्मीदें खरीफ पर शिफ्ट हो गयी।
किसानों के साथ यही होता है। रबी की उम्मीद खरीफ पर शिफ्ट हो जाती है। खरीफ की उम्मीद फिर रबी पर। कभी किसी आपदा, बीमारी या अन्य वजह से उपज ही कम हो जाती है तो कभी उपज अच्छी हुई तो खरीदार नहीं मिलता।इतने साल बाद भी हमारी सुशासन सरकार ने फसलों की सरकारी खरीद की बेहतर व्यवस्था विकसित नहीं की। एकमात्र धान की खरीद ठीक से होती है। मगर उसमें भी छोटे किसान छूट जाते हैं, बड़े किसान और व्यापारी एमएसपी का लाभ उठाते हैं। गेहूं की प्रक्रिया औपचारिक रूप से शुरू होती है मगर सरकार गेहूं खरीद नहीं पाती। मक्के की खरीद की अब तक योजना ही बनती रही है।
अब तो सुन रहे हैं कि इस देश की सरकार ने सरकारी खरीद की प्रक्रिया को बन्द करने का मन बना लिया है। पिछले दिनों गडकरी महोदय ने कहा था, सरकार का एमएसपी बाजार रेट से अधिक होता है, यह आर्थिक अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न कर सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार के गोदाम पहले से भरे हैं। मगर बाद में जब इसका विरोध होने लगा तो वे खुद अपने बयान से पलट गए। मगर सरकारें ऐसा करती हैं, योजना बनाकर इसी तरह माहौल चेक करती रहती हैं। माहौल अनुकूल हुआ तो लागू कर देती हैं। वैसे भी अब इस सरकार को उसका वह वादा याद दिलाना बेकार है कि वह किसानों की आय दोगुनी कर देगी।
गोदाम में रखे अनाज का क्या करें? इस भीषण संकट में देश के गरीबों को एकमुश्त 50-50 किलो अनाज बंटवा दें। गोदाम में जगह बन जाएगी। गरीबों का भी कॉन्फिडेंस लेवल हाई हो जाएगा। सरकार की भी जय जयकार हो जाएगी। मगर नहीं, यह सरकार एक दफा इस अनाज को सड़ा कर दारू या सेनिटाइजर बनवाने पर सहमत हो सकती है। गरीबों के भूख का समाधान करने में उसकी बहुत दिलचस्पी नहीं है। वैसे मक्के का तो मामला ही अलग है। सरकार बहादुर के गोदाम में मक्का पड़ा है या नहीं यह तो मालूम नहीं। मगर पिछले दिनों बड़े पैमाने पर सरकार द्वारा मक्का आयात को मंजूरी देने की खबर जरूर है। लिहाजा हर साल पूर्णिया की गुलाबबाग मंडी में जो होर्लिक्स और कॉर्नफ्लेक्स कम्पनियों के परचेजर इस मौसम में जुटते थे वे इस बार नहीं आये हैं। स्थानीय गोला व्यापारी सस्ते भाव में मिल रहे मक्के की खरीद जमकर कर रहे हैं और गोदाम भर रहे हैं। कभी तो फैक्ट्रियों के व्यापारी आएंगे। मगर उन्हें क्या पता, इस बार उन्होंने आयात वाले सस्ते मक्के का इंतजाम कर लिया है। कम पानी में अधिक मुनाफा कमाने की लालसा में हमारे इलाके के किसानों ने एक या डेढ़ दशक पहले मक्के की फसल को अपना लिया था। मगर उनकी यह कोशिश मृगतृष्णा ही साबित हुई। कभी नकली बीज ने तबाह किया तो कभी खरीदार नहीं मिले। अब न तो उनसे छोड़ते बन रहा है, न करते।
मध्यप्रदेश में किसानों को मक्के की कीमत नहीं मिल रही तो वे सत्याग्रह कर रहे हैं। मगर उत्तर बिहार के किसान अपना मक्का चुपचाप हजार-1100 रुपये क्विंटल की दर से बेच रहे हैं। इसे कोरोना, लॉकडाउन और ईश्वर की मर्जी मान रहे हैं।सच तो यह है कि सरकार ने यूक्रेन और दूसरे मुल्कों से मक्के का आयात कर लिया है इसलिए किसानों को अपना मक्का आधी कीमत में बेचना पड़ रहा है। सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य जरूर तय किया है, मगर वह उसपर मक्का ख़रीदने के लिये राजी नहीं है। अगर लॉक डाउन की वजह से ही मक्के की कीमत गिरी होती तो इसी दौरान गेहूं ऊंची कीमत में क्यों बिकता?
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। प्रभात खबर की संपादकीय टीम से इस्तीफा देकर इन दिनों बिहार में स्वतंत्र पत्रकारिता करने में मशगुल