अक्सर जब हम महाराष्ट्र की लोक कला शैलियों की बात करते हैं तो हमारे जेहन में ‘तमाशा’, गोंधल, पोवाडा, और कीर्तन की परंपरा आती है। पर शायद काफी कम लोगों ने महाराष्ट्र के विदर्भ की नाट्य शैली ‘झाड़ीपट्टी’ के बारे सुना हो। जो गढ़चिरौली, भंडारा, चंद्रपुर और गोंदिया जिलों में आज भी काफी लोकप्रिय है। महाराष्ट्र के जानेमाने गायक, रंगकर्मी और निर्देशक अनिरुद्ध वनकर इस नाट्य शैली के संवर्धन और विकास के लिए लगातार पिछले 25 सालों से काम कर रहे हैं।इनको महाराष्ट्र सरकार से अम्बेडकर रत्न पुरस्कार, लोक सूर्य पुरस्कार समेत कई सम्मानों से नवाजा जा चुका है। अभी हाल में ही संपन्न हुए 21वें भारत रंग महोत्सव में वो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में शामिल हुए। इसी मौके पर थोड़ा वक्त निकालकर ललित सिंह ने अनुरुद्ध वनकर से ‘झाड़ीपट्टी’ लोक नाट्य शैली पर बातचीत की।
ललित सिंह- झाड़ीपट्टी कला क्या है , इसकी शुरुआत कब से हुई ?
अनिरुद्ध वनकर- झाड़ीपट्टी विदर्भ की एक लोक नाट्य विधा है। यह रंग-प्रस्तुति रात भर चलती है। इसे लोकधर्मी और नाट्यधर्मी कला भी कहा जाता है। ये नृत्य, संगीत और अभिनय की मिली-जुली प्रस्तुति होती है। वैसे तो आधुनिक झाड़ीपट्टी में कलाकारों की संख्या काफी बढ़ गई है पर परम्परागत रूप से इसमें नायक, खलनायक, दो हास्य अभिनेता और लावणी नृत्य के लिए दो नर्तकियां होती हैं। यह कार्यक्रम रात को 10:00 बजे शुरु होता है और सुबह 5:00 बजे समाप्त होता है।
झाड़ीपट्टी के नाम के सन्दर्भ में कहा जाता है कि छोटी – छोटी कंटीली झाड़ियों को ‘झाड़ी’ और उसके क्षेत्र को पट्टी बोलते हैं इस कारण इसका नाम झाड़ीपट्टी पड़ा। झाड़ीपट्टी की परंपरा में देखें तो पहले कोई लिखित आलेख नहीं होता था। लोक में मौखिक रूप से प्रचलित मिथकों , किस्सों कहानियों को आधार बना कर इनका मंचन किया जाता था। इन कहानियों पर किसी व्यक्ति विशेष का विशेषाधिकार नहीं था। पहले लिखित आलेख नहीं होता था। समयानुसार इनकी कहानियों में बदलाव भी आते गए। झाड़ीपट्टी मुख्यत: म्यूजिक वाला ड्रामा है जिसमें संगीत की समृद्ध परम्परा है। जो अपनी संगीतमय प्रस्तुति से सहज ही दर्शकों का मन मोह लेती है। प्राय: सभी अभिनेता गायन की शैली में संवाद अदायगी करते हैं। संगीत की पूरी मण्डली मंच पर बैठती है।
झाड़ीपट्टी 100 – 200 साल पहले की परंपरा है। महाराष्ट्र में सांगली का क्षेत्र कलाओं का क्षेत्र माना जाता है। जहां 1843 के लगभग पहला नाटक ‘सीता स्वयंवर’ हुआ था । झाड़ीपट्टी की शुरुआत महाराष्ट्र के पूर्व विदर्भ में 1886 में हुई। झाड़ीपट्टी का पहला नाटक 1890 में हुआ था। वहां दंदार और तंडाना लोक कला थी जिसमें कलाकार इकतारे के माध्यम से पूरी कहानी को गा कर सुनाते थे।
ललित सिंह- पहले की झाड़ीपट्टी में और अब की झाड़ीपट्टी में किस तरह के बदलाव आए हैं , इस कला को किस समय खेला जाता है ?
अनिरुद्ध वनकर- पहले की झाड़ीपट्टी में और अब की झाड़ीपट्टी में बहुत सारे बदलाव आ गए हैं। पहले झाड़ीपट्टी के अभिनय में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित माना जाता था इस कारण स्त्रियों का किरदार प्राय: पुरुषों को ही निभाना पड़ता था। लेकिन जैसे – जैसे शिक्षा का प्रसार हुआ , लोगों में जागरूकता आई तथा सामाजिक जुड़ाव बढ़ता गया तो इसमें स्त्रियों का प्रवेश होता गया। अब स्त्रियों की महत्वपूर्ण भमिका रहती है। इस कला से लोगों को रोजगार भी मिलने लगा है। मैं अपने बारे में बताऊं तो मुझे पहले 300 रुपए मिलते थे लेकिन अब 15 से 20 हज़ार मिल जाते हैं। झाड़ीपट्टी के कलाकार जगह- जगह शो करके जीवनयापन करते हैं। झाड़ीपट्टी में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक कहानियों को केंद्र में रखा जाता है। झाड़ीपट्टी के कलाकार अपनी कहानी को समसामयिक मुद्दों से जोड़ कर व्यंग्य भी करते हैं। इसके कलाकार गीत संगीत और नृत्य में निष्णात होते हैं। झाड़ीपट्टी में 28 से 30 कलाकार होते हैं। जिनको लोग अपने यहां शो करने के लिए बुलाते हैं। कलाकारों की मंडली का एक ट्रक होता है जिसमें ये लोग अलग – अलग गावों में शो करने के लिए जाते हैं । शो देखने के लिए टिकट की व्यवस्था रहती है। 100 रुपए से 150 रुपए तक के टिकट से शुरुआत होती है।
झाड़ीपट्टी आमतौर पर धान कटाई से लेकर या कह सकते हैं कि दिवाली से लेकर होली तक के समय खेली जाती है। इसका कार्यक्रम लोग पहले से तय करते हैं । धान कटाई के समय में गांव के लोग तय करते हैं कि इस बार कौन सी मंडली को बुलाना है। कम्पनी का अपना एक सेंटर होता है जहां लोग जाते हैं और मंडली को अपने यहां शो करने के लिए आमन्त्रित करते हैं। झाड़ीपट्टी में कई तरह के बदलाव हुए हैं। पहले कुछ नहीं था मिट्टी का स्टेज होता था और अब थोड़ा सा अच्छा स्टेज हो गया है। स्टेज में एंट्रीज होने लगी, ग्रीन रूम होने लगा है। कहानी में बदलाव अभी उस तरह से नहीं आया है क्योंकि लेबल का पता नहीं होता है। उधर सेट, पर्दे, लाइट आदि की कुछ खास तैयारी नहीं होती है । लाइट किधर भी जल जाती है लेकिन फिर भी लोग रात – रात भर नाटक देखते हैं।
झाड़ीपट्टी में बदलाव लाने के लिए आर्टिस्ट को समझने की जरूरत है, गांववालों को समझने की जरूरत है। हम लोग ज्यादा बदलाव से थोड़ा परहेज करते हैं क्योंकि अगर लोग ही नहीं समझेंगे तो उस बदलाव क्या मतलब। गांव ने जैसे स्वीकार किया है वैसे चल रही है स्टोरी। बदलाव लाने के लिए बहुत सारे लोग काम कर रहे हैं, मैं भी कर रहा हूं। कहानी तो वही रखें जो सुनकर थोड़ी अच्छी लगे। हम लोग अच्छे साउंड और लाइट का प्रयोग करते हैं तथा उसमें कुछ कुछ नई चीजें जोड़ते हैं जिससे लोगों का सामाजिक जुड़ाव होता है।
ललित सिंह- झाड़ीपट्टी से लोगों का सामाजिक जुड़ाव कैसा है तथा इसके भविष्य की संभावनाओं को आप किस प्रकार देखते हैं ?
अनिरुद्ध वनकर- सामाजिक अभिरुचि अभी झाड़ीपट्टी में बनी हुई है। कुछ लोग अपने मतलब के लिए कर रहे हैं, कुछ लोग जाति व्यवस्था के लिए कर रहे हैं, कुछ लोग समाज बदलने की कोशिश कर रहे हैं और सब्जेक्ट वहीं के वहीं हैं मतलब की वही धंधा चल रहा है। इसमें जातिवाद का भी खेल खूब चलता है, जो जिस जाति के होते हैं ज्यादातर उसी जाति के कलाकारों को बुलाते हैं। आमतौर पर इसको आदिवासी, बहुजन और पिछड़ी जाति के लोग करते हैं। इसमें अब अन्य जाति के लोग भी आने लगे हैं। लोग राजनीति से जुड़ने लगे, जिससे एक खास किस्म का कास्टिजम आ गया है। जिससे लोग अपने मंसूबे सिद्ध करने में लगे हैं। इसमें ‘स्टारीजम’ भी आ गया है । लोग स्टार कलाकारों को बुलाते हैं।
झाड़ीपट्टी कला बहुत फास्ट है, एक्टिंग भी लाउड है जिससे बहुत रियाज़ करने की जरूरत होती है। कुरुर नाम का एक गांव है जहां एक ही समय में 15 जगह नाटक हो रहे होते हैं, फिर भी दर्शक बहुत ज्यादा संख्या में रहते हैं। लोग बहुत दूर से दूर से नाटक देखने आते हैं और बहुत इंटरेस्ट के साथ रात – रात भर बैठ कर नाटक देखते हैं। झाड़ीपट्टी एक ऐसा थिएटर है जिसमें से हम पैसे कमा सकते हैं। झाड़ीपट्टी में पैसे भी मिलते हैं ख्वाहिश भी पूरी होती है। कलाकार को अपना जीवन यापन करने के लिए कुछ पैसे की व्यवस्था हो जाती है। कई सेलिब्रेटी हैं जो झाड़ीपट्टी करते हैं और पैसे कमाते हैं और फिर मुंबई जा कर स्ट्रगल करते हैं क्योंकि इसमें इतना पैसा मिल जाता है कि हम मुंबई में सिंपल तरीके से स्ट्रगल कर सकते हैं।
झाड़ीपट्टी का अपना कोई भविष्य नहीं नजर आ रहा, यह एक सीमित रंगभूमि है और इसमें सब कुछ फिक्स है। आप इसी को करके अपना करियर नहीं बना सकते हैं। लेकिन अब इसका प्रसार हो रहा है। इसमें संभावनाएं बहुत हैं अगर पढ़े लिखे लोग इस कला को अपनाते हैं और नए तरह के प्रयोग करते हैं तो इसको बेहतर मुकाम तक ले जाया जा सकता है। इस कला को ज्यादा से ज्यादा सामाजिक जुड़ाव की जरूरत है। इसमें जो कुछ लोग दकियानूसी विचारों के साथ जुड़ते हैं उनको त्यागने की जरूरत है। अंत में यही कि सामाजिक अभिरुचियां ही किसी भी कला को संरक्षण और गति देती हैं।
ललित सिंह। दिल्ली विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कॉलर। रंगकर्म में गहरी दिलचस्पी। बाल रंगमंच, मुखौटों और कठपुतलियों पर शोध। आप से 8586022945 पर संपर्क किया जा सकता है। इमेल – [email protected]