आशीष सागर
बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ सुनने में ये स्लोगन काफी अच्छा लगता है, लेकिन इसको साकार करने के लिए हमारा सिस्टम कितना संजीदा है इसको अगर समझना हो तो कभी प्रयागराज से मुगलसराय यानी दीन दयाल उपाध्याय स्टेशन के बीच नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस में सफर कीजिए । आपको एक छोटी सी बच्ची करतब करती नजर आएगी । जिस उम्र में हमारा आपका बच्चा घर से अकेले स्कूल जाने में भी डरता है उस उम्र (8-10 साल) में ये मासूम अकेले ट्रेन में सफर करती है, सिर्फ सफर ही नहीं करती बल्कि अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए अपना हुनर दिखाती है । वो कभी चोटी में बंधा नट गर्दन के सहारे घुमाती है तो कभी एक छोटे से छल्ले से बाहर निकलकर ट्रेन में मौजूद यात्रियों का मनोरंजन करती है, हम आप उसका करतब देखकर हंसते हैं, कुछ लोग मांगने पर पैसे भी दे देते हैं, इस पैसे से उसके मां-बाप और 8 भाईयों का पेट तो भर जाता है, लेकिन उसका बचपन हर दिन मर रहा है, इस बात को ना हम आप महसूस करने की कोशिश करते हैं और ना ही ट्रेन में मौजूद टीईटी साहब और सुरक्षाकर्मी । टीईटी साहब को ना उससे मतलब है और ना ही उसको टीईटी साहब से ।
जरा सोचिए, जिस उम्र में बच्चे हंसते-खेलते और स्कूल जाते हैं उस उम्र में ये लड़की पैसे कमाने के लिए मजबूर हैं, क्या ये हमारे सिस्टम पर एक तमाचा नहीं है, क्या बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ मुहिम बेमानी नहीं लगती । 26 अगस्त को जब मैं नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस में सफर के दौरान इस बेटी से मिला तो ये सारे सवाल मेरी जेहन में कौंधन लगे । हर रोज की तरह उस दिन भी ये बच्ची परिवार के लिए रोटी जुटाने की कवायद में करतब दिखलाकर पैसे कमाने निकली थी। आज हम भी इसी ट्रेन से वापस प्रयागराज आ रहे थे। आठ भाइयों में अकेली इस बच्ची के माता-पिता गरीब है। वो जो कमाकर ले जाती है उसी से परिवार का गुजर-बसर होता है। पूछने पर बताया कि उसके पिता घर पर रहते हैं, भाई स्कूल जाते हैं, हालांकि उसने ये भी बताया कि वो भी स्कूल जाती है सिर्फ छुट्टी के दिन ट्रेन में आती है, लेकिन जब हमने उसे याद दिलाया कि आज तो सोमवार है और कोई छुट्टी भी नहीं है तो वो निरुत्तर होकर अपलक मेरी तरफ देखने लगी ।
उसने बताया कि वो दिन भर मेहनत करके एक हजार रुपये तक कमा लेती है और यही वजह है कि परिवार वाले उसको स्कूल की बजाय ट्रेन में भेजना ज्यादा जरूरी समझते हैं, भाई जिस वक्त स्कूल में पढ़ रहे होते हैं उस वक्त बहन ट्रेन में अपने भाइयों के लिए दो जून की रोटी के इंतजाम में जुटी रहती है। हालांकि ये जरूर बताती है कि वो चौथी कक्षा में पढ़ती है लेकिन जब उससे स्कूल का नाम पूछा गया तो वो ना तो स्कूल का नाम बता सकी और ना जगह, उसने इतना जरूर बताया कि वो मुगलसराय की रहने वाली है ।
मुगलसराय स्टेशन का नाम तो बदल गया, लेकिन जिसके नाम पर स्टेशन का नाम पड़ा उसी दीन दयाल उपाध्याय स्टेशन से ट्रेन में सवार होकर ये बच्ची अपने बचपन को गंवाने पर मजबूर है । उम्मीद है कि केंद्र सरकार के परिधान मंत्री, बालकल्याण मंत्रालय सहित अन्य महकमे समय रहते बेटियों के लिए बनी योजना में एक काजल जैसे बच्चियों के लिए ग्राउंड पर मुकम्मल करने में सफल हो सके। अब मुगलसराय स्टेशन का नाम दीनदयाल जंक्शन हो चुका तब योगी सरकार की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है साथ ही समाज की संजीदगी भी होना लाजमी है ।
बाँदा से आरटीआई एक्टिविस्ट आशीष सागर की रिपोर्ट। फेसबुक पर ‘एकला चलो रे‘ के नारे के साथ आशीष अपने तरह की यायावरी रिपोर्टिंग कर रहे हैं। चित्रकूट ग्रामोदय यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। आप आशीष से [email protected] पर संवाद कर सकते हैं।