वीरेन नंदा/
वर्तमान समय में लोकतंत्र का चौथा खंभा पूरी तरह जमींदोज नजर आ रहा है। एक वह समय था जब कोई मंत्री या सरकार किसी पत्रकार की तारीफ गलती से भी कर दिया तो उस पत्रकार की नौकरी जाना तय माना जाता था । मगर आज स्थिति उलट गई है, सत्ता की चाटुकारिता करने वाले अखबार और मीडिया घराने के मालिक अपने निर्भिक पत्रकारों को अखबार और चैनलों से बेदखल कर रहे। संपादक जब से अखबार के मैनेजर बनाये जाने लगे, सत्ता की चाटूकारिता की होड़ मच गई। मीडिया घराना धन-लिप्सा में लग गये तो पत्रकार भी कहाँ पीछे रहने वाले थे । अपनी सारी मर्यादा तोड़ कोठियां और फार्महाउस खड़ा करने में पत्रकारिता को जमींदोज़ करते चले गए। बढ़-चढ़कर सरकारी-कीर्तन करने वाली पत्रकारिता के इस दौर में जिन पत्रकारों का ज़मीर नहीं मरा या नहीं मार पाएं वो या तो गौरी लंकेश हो गए, पुण्य प्रसून बाजपेयी की तरह निकाले गए या फिर रवीश कुमार की तरह ट्रोल किये जाने लगे।पेड न्यूज़ के शुरुआती खेल ने मालिकों के मुँह में धन-दोहन का ऐसा स्वाद चखाया कि धन से धान्य भरने का यह उनका न केवल खूबसूरत जरिया बन गया, बल्कि और भी कई-कई राह खोल दिये । अखबारों से पाठकों को जोड़ उसकी बिक्री बढ़ाना अब उनके लिए जरूरी नहीं रह गया, बल्कि सरकार से विज्ञापन बटोरना मूल मकसद हो गया। सामाजिक मुद्दों से भटकाने के लिए धन के वैभव का महिमामंडन, सरकारी अभ्यर्थना, नफरत को हवा देने, जाति में तोड़ने, मजहब में बांटने, ऐतिहासिक झूठ को सच की तरह बार-बार परोसने और सच को जोर शोर से दबाने/छिपाने की होड़ अखबारों और चैनलों में मच गई। इस अंधी होड़-दौड़ में पत्रकारिता गिरते-गिरते इतनी नीचे गिर गई जिसका अनुमान किसी को भी न रहा होगा !
क्या यही हमारे देश की पत्रकारिता थी ? क्या पत्रकारिता की हमारी यही परंपरा रही है ? ‘सत्य के शव के साथ’ शहीद हो जाने वाले कितने पत्रकार अब देश में बचे हैं ?
पहले छोटे से छोटे शहरों ने भी पत्रकारिता की मिसाल पेश की, जहाँ के पत्रकार जुनून की तरह इसे आत्मसात कर ऊंचाई दी। उत्तर बिहार की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाने वाला कस्बाई शहर मुजफ्फरपुर ने कभी पत्रकारिता की ऊँची मिसाल कायम की थी। लेकिन आज ब्लॉक स्तर पर कुकुरमुत्तों की तरह उग आए पत्रकारों को दस रुपये कॉलम के पारिश्रमिक पर खटने वाले इन पत्रकारों से ईमानदारी की मांग बेमानी हो चुकी। आज किसी को पत्रकार बनना हो तो अखबार के संपादक पूछते हैं कि क्या आप के पास ऐंड्रॉयड फोन और मोटरसाइकिल है ? यदि नहीं है तो उसे चलता कर देते हैं। और यदि है तो आप पत्रकार बन गए । चाहे पत्रकारिता की समझ हो या न हो। आप का काम पत्रकारिता से ज्यादा विज्ञापन बटोर कर अखबार को देने की प्राथमिकता रहती है। ऐसे में वे पत्रकार पत्रकारिता की जगह प्रखंड और अंचल में दलाली करने लग गए। लेकिन कभी इसी शहर में ऐसे भी पत्रकार हुए जिन्होंने पत्रकारिता का आदर्श प्रस्तुत किया। शारदा प्रसाद भंडारी का नाम उन्हीं पत्रकारों में शुमार है, जिन्होंने पत्रकारिता के पेशे को इज्जत बख्शी। पत्रकारिता के पेशे को उन्होंने कैसे जिया यह उनके मुजफ्फरपुर प्रेस क्लब में 1971 में दिए वक्तव्य से पता चलता है- “मुझे गर्व है कि मैं अब नहीं मरूँगा क्योंकि लोग मेरी मृत्यु पर रोयेंगे और मुझे याद करेंगे।”
पत्रकारिता के आदर्श को अक्षुण बनाये रखने और उसे आसमान तक पहुँचाने वाले शारदा प्रसाद भंडारी का जन्म 1903 में मुजफ्फरपुर में हुआ था। इनके दादा का नाम अयोध्या प्रसाद भंडारी था जो ‘रसिकलाल भंडारी’ के नाम से लेखन किया करते थे। ये वही रसिकलाल भंडारी थे जिन्हें अयोध्या प्रसाद खत्री ने गीता का खड़ी बोली में अनुवाद करने के लिए उत्प्रेरित किया था, जो ‘सरल भगवद् गीता’ नाम से छपी थी। भंडारी जी का निवास जवाहरलाल रोड स्थित रवीन्द्रनाथ टैगोर के समधी और बांग्ला कवि बिहारी लाल चक्रवर्ती के घर के निकट था। बचपन से ही इन्हें पत्रकारिता का शौक था। ढोली के रहने वाले पुरूषोत्तम प्रसाद शर्मा की वजह से वे पत्रकारिता की तरफ मुड़े और बीस वर्ष की उम्र में कोरेस्पोंडेंट के रूप में कार्य करने लगे। आगे चलकर जब वे ख्यात वकील बने तब भी वे वकालत के अपने व्यस्ततम समय से समय निकाल पत्रकारिता करते रहे। उन्होंने सबसे पहले हिन्दी पत्र में कॉरेस्पॉन्डेंस के रूप में कार्य किया। उसके बाद कई अंग्रेजी अखबार के कॉरेस्स्पोंडेंट के रूप में अपने अंतिम समय तक कार्य करते रहे। उन्होंने गोलपलाल घोष के संपादन में कलकत्ता से निकलने वाली ‘अमृत बाजार पत्रिका’, ‘एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडिया’, ‘हिन्दुस्तान स्टैंडर्ड’, वाराणसी से ‘आज’, नई दिल्ली से ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’, ‘सर्चलाइट’, ‘इंडियन नेशन’, पीटीआई आदि के लिए कार्य किया।
मुजफ्फरपुर में अपनी पत्रकारिता के पचास वर्ष के अनुभव को साझा करते हुए बतौर “मुजफ्फरपुर प्रेस एसोसिएशन” के अध्यक्ष की हैसियत से 7 जनवरी 1971 को पत्रकारों को संबोधित करते हुए जो बातें कही थी, वह आज भी सच्ची पत्रकारिता करने वालों के लिए मील का पत्थर है। उन्होंने वह वक्तव्य ‘आल इंडिया स्माल एंड मीडियम न्यूजपेपर्स फेडरेशन’ के 51 वें अधिवेशन के अवसर पर दिया था। उनकी कही बातों का संक्षेप-सार जिंदा जमीर वाले पत्रकारों के लिए आज भी महत्वपूर्ण है। वैसे मरे हुए पत्रकारों के लिए यह न तब उपयोगी था, न अब है !अपने संबोधन में उन्होंने कहा था कि एक समय था जब पत्रकारिता को जुनून की तरह लिया जाता था और इसे समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता था। उन्हें आदर की दृष्टि से देखा जाता था। लोगों के बीच एक आम धारणा थी कि पत्रकारों को पासपोर्ट की जरूरत नहीं, चेहरा परखा नहीं जाता, कोई प्रवेश शुल्क नहीं, न उम्र का बंधन और न ही लिंग-जाति-पंथ की रुकावट। यह एक ऐसा अकेला पेशा है जिसका द्वार सभी के लिए खुला है, लेकिन इसमें होने वाले अनुभव सभी के लिए आनंदकारी नहीं होता है। इसलिए जो पत्रकारिता को पेशे के रूप में अपनाना चाहते हैं उन्हें इस पेशे की जरूरी बातें जानकर ही आना चाहिए। क्योंकि एक पत्रकार के पास निम्नांकित क्षमता अवश्य होनी चाहिए –
सर्वप्रथम उसमें सारभूत प्रवृति, मानसिक फुर्ती, परिस्थिति के अनुसार बदलने की क्षमता या अनुकूलित होना आना चाहिए। उसमें आलोचनात्मक क्षमता, समाचार सूंघने वाली घ्राण शक्ति, मानवीयता, व्यक्त करने का गुण इत्यादि होना चाहिए। इसके साथ-साथ सेल्समैन की तरह सहनशीलता, पर्वतारोही सा साहस, पुलिस की तरह चौकस, वकील सा सतर्क, जज की तरह निष्पक्ष, अभिनेता सा बहुमुखी, उपन्यासकार की तरह कल्पनाशील, कलात्मक बोध, दार्शनिकता, मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि और इन सबसे ऊपर मानवीय उदार हृदय के साथ सहिष्णु भी होना चाहिए। उन्होंने कहा था कि पत्रकारिता भाषा का माध्यम होता है। जैसे कुम्हार मिट्टी के साथ और चित्रकार पेंट के साथ जो करता है उसी तरह पत्रकार भाषा के माध्यम से करता है। इसलिए पत्रकार के पास अपनी बातों को व्यक्त करने के लिए उस भाषा के बहुलांश शब्द-भंडार निश्चय ही होने चाहिए।
पत्रकारिता का कार्य काफी मनोहर है। पत्रकार जो देखता है, सुनता है, उसका वर्णन कर लिखता है, घटना के आसपास अवाम क्या कह रही, कर रही, सोच रही, चाह रही, घृणा कर रही अथवा आशा कर रही या डर रही, उन सभी बातों से तादात्म्य बिठा अनुमान लगाते हुए उसकी व्याख्या करता है। पत्रकारिता एक कृतघ्न पेशा है। अधिकारियों और अवाम की चढ़ी त्योरी का उसे सामना करना पड़ता है क्योंकि वह किसी को भी प्रसन्न नहीं कर सकता है। बिना सांस लिए वह समाचार का पीछा करता है लेकिन आज कितने लोग हैं जो इसे उस हठधर्मिता से करते हैं !
पत्रकारों के लिए धूप, बरसात या ठंडक का कोई मतलब नहीं होता। वह किसी भी परिस्थिति में दौड़ता रहता है। वह अखबार को खुराक देता है। उसे सींचता है। वह टेलीप्रिंटर और टाइपराइटर का शोर झेलते हुए स्वयं और अपने परिवार को खो देता है। उसके पास कोई निश्चित समय घर लौटने की नहीं होती, न आराम करने का समय होता है। इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही इस पेशे का चुनाव करने की बात उन्होंने कही थी। इस “मुजफ्फरपुर प्रेस एसोसिएशन” के उपाध्यक्ष पी.सी. चौधरी और राधारमण टण्डन, सचिव जी.एन. साही, उप सचिव नत्थू प्रसाद अग्रवाल और डॉ. एस. आर. अहमद तथा कोषाध्यक्ष पी.एन. झा थे, जो सभी अपने समय में शहर के प्रखर पत्रकार के रूप में जाने जाते थे। लगभग पचास वर्ष पूर्व कही शारदा प्रसाद भंडारी की बातों के आइना में आज की पत्रकारिता तो कहीं ठहरती ही नहीं दिखती है। वर्तमान समय के पत्रकारों में न वह क्षमता है, न कोई जुनून और न ही आदर्श ! अखबार या मीडिया घराने का पत्रकारिता-धर्म ही खत्म हो चुका तो उन पत्रकारों के लिए पत्रकारिता के आदर्श के प्रति हठधर्मिता का क्या माने ! पत्रकारिता जो थोड़ी बहुत बची है वह पाठक के बल पर निकलने वाली कुछ पत्र-पत्रिकाओं और गिनती के कुछ पत्रकारों के बल पर। इस क्रूर समय में इन्हीं को देख उम्मीद जगती है। और उम्मीदें हैं तो सूर्योदय भी होगा ।
वीरेन नन्दा/ बदलाव के जून माह के अतिथि संपादक, बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति समिति के संयोजक। खड़ी बोली काव्य -भाषा के आंदोलनकर्ता बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री पर बनी फिल्म ‘ खड़ी बोली का चाणक्य ‘ फिल्म के पटकथा लेखक एवं निर्देशक। ‘कब करोगी प्रारम्भ ‘ काव्यसंग्रह प्रकाशित। सम्प्रति स्वतंत्र लेखन। मुजफ्फरपुर ( बिहार ) के निवासी। आपसे मोबाइल नम्बर 7764968701 पर सम्पर्क किया जा सकता