एक मित्र ने फोन करके पूछा, कल पहले चरण का प्रचार खत्म हो जायेगा। अब बताइये क्या माहौल है? जवाब में अनायास मेरे मुंह से निकल गया, प्रचार अभियान शुरू कब हुआ और माहौल कहीं दिख कहां रहा है? जवाब में उन्होंने सहमति जताई और कहा कि ट्रैजेडी यह है कि कई इलाकों में लोगों को अब तक मालूम नहीं है कि कैंडिडेट कौन है? पिछले एक माह से अधिक वक्त से बिहार के अलग-अलग इलाकों में घूम रहा हूं। लगभग आधा बिहार घूम लिया है। इस दौरान एक ही बात समझ में आयी है, कि कुछ समझ नहीं आ रहा । वजह यह कि हर तरफ सन्नाटा है। कहीं कोई चुनावी हलचल नहीं। न रेल में, न चाय दुकान में, न होटलों में, न नाई की दुकान पर, न सब्जी बाजार में, न कोर्ट कचहरी में, कहीं चार लोग बैठकर चुनावी चर्चा करते नहीं दिख रहे। कभी-कभार दिखते भी हैं तो पैतालिस-पचास से ऊपर के लोग। नयी पीढ़ी आईपीएल में बिजी है, इस बार कोई एप भी आया है जो पैसे कमाने का मौका दे रहा है, कई यंगस्टर उसमें बिजी दिखते हैं। बाकी लोग अपने-अपने काम में लगे हैं, स्कूल, कॉलेज, नौकरी पर जा रहे हैं, किसान खेतों में गेहूं काट रहा है। बिहार में तो कोई हेमामालिनी भी उसकी मदद के लिए नहीं पहुंच रही। हां, हम जैसे पत्रकार कभी कभार उनकी तस्वीरें लेने लगते हैं तो उन्हें अचरज होता है।
वोटर तो वोटर इस चुनाव में नेता नगरी भी बहुत उत्सुक नहीं है। लगता ही नहीं है, तीन दिन बाद चुनाव होने हैं। 26-28 मार्च तक जमुई में था, 31 मार्च को गया में। इन दोनों जगहों पर पहले फेज में 11 अप्रैल को वोट पड़ने हैं। मगर दोनों जगह शहरों में कहीं पोस्टर बैनर नहीं दिखे। न नेताओं के भाषण, प्रचार वाली गाड़ियां, मोटरसाइकिल रैलियां, रोड शोज, कुछ भी नहीं। अप्रैल का पहला हफ्ता भागलपुर-मुंगेर में गुजरा। भागलपुर में 18 को वोटिंग होगी। मगर उस शहर में भी हर तरफ सन्नाटा था। लोगों ने कहा, दोनों कैंडिडेट गांव के इलाके से हैं और पैसा खर्च करने वाले नहीं हैं, यह भी सन्नाटे की एक वजह है। पिछले चुनावों में शाहनवाज होते थे तो युवाओं की गाड़ियों में पेट्रोल भरवाया जाता था और दोनों वक्त चिकेन-मटन की पार्टी चलती थी। इस बार शाहनवाज नहीं हैं तो रौनक ही गायब है।
भागलपुर वालों को लग रहा है कि यह सन्नाटा सिर्फ उन्हीं के शहर में है, जबकि मैं आधे बिहार की खबर बता रहा हूं। सोशल मीडिया में लोग बता रहे हैं कि यह हाल तकरीबन पूरे देश का है। मगर इस सन्नाटे के क्या मायने हैं? वोटरों की उदासीनता क्या कह रही है, यह लाख टके का सवाल है। इसका जवाब राजनीतिक विश्लेषक ही दे सकते हैं, जो मैं हूं नहीं।
मोटी बात जो मैं समझता हूं कि इस उदासीनता का नतीजा कम मतदान में होने जा रहा है और इलेक्शन की क्लासिकल थियरी कहती है, लो वोटिंग का मतलब जो सरकार है उसी की वापसी होने जा रही है। यह बात कुछ हद तक सही है। विपक्ष कमजोर दिख रहा है, वोटरों को लग रहा है कि मोदी जी ही वापस आयेंगे। हां, थोड़े कमजोर हो जायेंगे। अमूमन कई लोग बातचीत में कहते भी हैं कि मोदी जी को एक बार और मौका मिलना चाहिए। मगर यह बहुत सरल नतीजा है, इस सन्नाटे की इतनी सरल व्याख्या नहीं हो सकती। दूसरी बात जो हो सकती है, वह यह है कि हाल के दिनों में लोग सोशल मीडिया के इतने एडिक्ट हो गये हैं कि वे अजनबियों से बात करने में कतराने लगे हैं. उनके मन में राजनीति चल रही है, फेसबुक, वाट्सएप पर खूब मुखर होते हैं, मगर रियल लाइफ में चुप्पा हो जाते हैं. क्योंकि कई लोगों से पर्सनल लेवल पर बातचीत हुई तो वे चुनावी राजनीति में दिलचस्पी लेते खूब नजर आये। जिनसे थोड़ा बहुत राब्ता हो जाता है, वे पूछ ही बैठते हैं, अच्छा यह बताइये, आप तो हर जगह घूमते हैं, सीन क्या चल रहा है। मगर इनमें से ज्यादातर लोग प्रीआकुपाइड भी हैं। टीवी चैनलों और वाट्सएप पर जारी होने वाली आधी सच्ची-आधी फर्जी सूचनाओं ने इनके दिमाग को भर दिया है। वे बार-बार रिपब्लिक टीवी और वाट्सएप पर शेयर खबरों के रेफरेंस देते हैं।
एक बहुत पढ़े लिखे सज्जन ने मुझे पिछले दिनों बताया कि पश्चिम बंगाल के डेढ़ सौ से अधिक तृणमूल विधायक भाजपा में शामिल होने जा रहे हैं। मैंने आपत्ति की तो उन्होंने वाट्सएप पर चल रही एक खबर का लिंक दिखाया। ऐसे ही मेरे कई रिश्तेदार हर तीसरे दिन मुझसे चुनावी हाल पूछते हैं। मैं बताता हूं बिहार में कांटे की टक्कर है, तो कहते हैं टीवी पर तो बता रहा है, भाजपा क्लीन स्वीप कर रही है। फेसबुक पर रोज खबरों की जंग चलती है और उसनें कई दफा झूठी खबरें हार भी जाती हैं। मगर वही झूठी खबरें वाट्सएप पर महीनों जिंदा रहती है। मेरे स्कूल, कॉलेज और ऐसे ही दूसरे वाट्सएप ग्रुप पर उन्हें लोग खूब शेयर करते हैं और पूरा भरोसा करते हैं।
मतलब यह कि टीवी और वाट्सएप एक खास तबके को खूब प्रभावित कर रहा है। गलत सूचनाओं से उन्हें भर रहा है। मगर इस वर्ग को पूरा भारत मानना गलत होगा। पिछले दिनों घूमते हुए यही सीखा है। अभी भी बहुत बड़ी आबादी है, जो इन दोनों के प्रभाव से मुक्त है। वह दूसरी वजहों से उदासीन है, क्योंकि बार-बार सरकार बदलने पर भी उनका जीवन बदल नहीं रहा। उन्हें सर्जिकल स्ट्राइक या राफेल घोटाले से कोई लेना देना नहीं है। उन्हें पानी नहीं मिल रहा, किसान सम्मान योजना का पैसा सक्षम लोगों को मिल गया, मगर उन्हें नहीं मिला। आवास योजना से लेकर पेंशन तक का लाभ बिना पैसे के नहीं मिलता। फसल की सही कीमत नहीं मिलती। रोजगार नहीं मिल रहा। दिल्ली-पंजाब की दौड़ खत्म नहीं हो रही। उसे कोई लेना-देना नहीं कि मोदी जी अच्छे हैं या राहुल जी। इनमें एक ऐसी भी आबादी है, जिसके बीच मतदान से एक रोज पहले जो पैसे बांट देगा वे उसे वोट दे आयेंगे. नहीं तो वोट डालने भी नहीं जायेंगे।
मोटे शब्दों में मुझसे पूछेंगे तो यही कहूंगा, इस सन्नाटे की सबसे बड़ी वजह विपक्ष की सामूहिक नाकामी है।वह मोदी सरकार के खिलाफ कोई भी नकारात्मक माहौल क्रियेट कर पाने में असफल रही है। सोशल मीडिया में और जमीन पर भी मोदी सरकार के खिलाफ छिट-पुट जो बातें कही जाती है, वह भी कुछ पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की वजह से, विपक्ष के कारण नहीं. मगर ट्रैजडी यह है कि विपक्ष की इस नाकामी का लाभ कहीं सत्ता पक्ष को भी नहीं मिलता नजर आ रहा। सरकार के चरणों में बिछ जाने वाले टीवी चैनल भी किसी सर्वे में यह नहीं बता रहे कि मोदी 300 सीटें ला रहे हैं। यह बात कुछ अंधभक्तों के सिवा कोई नहीं कहता। उसकी वजह भी यह उदासीनता ही है, क्योंकि सरकार ने ऐसा कुछ किया नहीं जिससे उत्साह का माहौल बने। इस उदासीनता का शिकार जितना विपक्ष है, उससे कम सत्ता पक्ष नहीं। सत्ता पक्ष के समर्थकों की भी बड़ी आबादी इस चुनाव में वोट डालने नहीं निकले तो यह अचरज की बात नहीं होगी। कुल मिलाकर हर कोई उस खिचड़ी के इंतजार में है जो मतदाताओं की छोटी सी आबादी मिलकर तैयार करेगी। क्योंकि सच यही है कि इस बार सरकार खिचड़ी बनने वाली है।
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। प्रभात खबर की संपादकीय टीम से इस्तीफा देकर इन दिनों बिहार में स्वतंत्र पत्रकारिता करने में मशगुल ।