चुनावी नारा राजनीतिक दलों के लिए एक भावनात्मक चीज़ भी होता है। नारा यानी वह सबसे अहम बात जिसे आप दिल की गहराई से महसूस करते हैं, इसलिए ऊंची आवाज़ में लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं। 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी सरकार नारा फीलगुड था। वाजपेयी मानते थे कि पांच साल में उन्होंने इतना काम किया है कि जनता के लिए नाउम्मीद होने का कोई कारण नहीं है। कैंपेन डिजाइन का काम उस समय के चाणक्य कहे जाने वाले प्रमोद महाजन के जिम्मे था। वाजपेयी कथित आर्थिक प्रगति के चकाचौंध में ग्रामीण भारत के असंतोष को पढ़ने में नाकाम रहे। चुनाव करीब आया तब ग्रामीण असंतोष की बात सतह पर आने लगी लेकिन बीजेपी फीलगुड पर डटी रही क्योंकि पार्टी के नेता यह महसूस करते थे कि उनके नैरेटिव में दम है।
2014 में नरेंद्र मोदी अच्छे दिन का नारा लेकर आये। बीजेपी यह जानती थी कि दो बार की एंटी-इनकंबेंसी के साथ भ्रष्टाचार के इल्जामों की वजह से जनता यूपीए से उब चुकी है और बदलाव चाहती है। इसलिए अच्छे दिन का नारा शुरू से आखिर तक बना रहा।लेकिन 2019 में क्या हो रहा है? मोदी अपना नैरेटिव और नारे इस तरह बदल रहे हैं, जिस तरह कपड़े बदलते हैं। 2018 की शुरुआत तक यह कहा जा रहा था कि बीजेपी ने अभी से 2019 की तैयारी शुरू कर दी है। 2019 के लिए उछला नारा था- साफ नीयत सही विकास। यह पहला मौका था जब कोई सरकार अपनी नीयत को लेकर सफाई दे रही थी। साफ नीयत सही विकास के पोस्टर महीनों तक नज़र आये। लेकिन अचानक यह नारा गायब हो गया। नीयत की जगह विकास साफ हो गया या सरकार को अपनी ही नीयत पर एतबार ना रहा, यह कह पाना मुश्किल है।
फिर नया नारा आया- मोदी है तो मुमकिन है। यह एक बहुअर्थीय नारा है जो बीजेपी के रणनीतिकारकों के दिमागी उलझन को दर्शता है। आखिर मोदी हैं, तो क्या मुमकिन है? नोटबंदी, दुनिया की सबसे खराब जीएसटी, बैंक डिफॉल्टरों का भागना या लगातार बढ़ते बेरोजगारी के आंकड़े? कार्यकर्ताओं की जुबान पर यह नारा चढ़ा भी नहीं था कि `मैं भी चौकीदार’ सामने आ गया। राफेल पर कांग्रेस के ताबड़तोड़ इल्जामों से परेशान मोदी ने पूरी पार्टी को चौकीदार की वर्दी पहना दी।
आज़ाद भारत का यह एक ऐसा नारा है, जिसमें ना तो उपलब्धियों का दावा है और ना भविष्य की कोई रूप-रेखा। अगर कुछ है, तो एक व्यक्ति का दंभ जो अपने आपको इतना चतुर मानता है कि अगर वह चाहे तो किसी गंभीर आरोप को भी अपने पक्ष में मोड़कर चुनावी हवा बना ले। लेकिन क्या हवा सचमुच बन रही है, या हवा गुम है? विकास से लेकर गाय, मंदिर से लेकर पाकिस्तान तक मोदी सबकुछ बारी-बारी से आजमा चुके हैं और कॉरपोरेट मीडिया निर्देश के मुताबिक इन मुद्दों को हवा दे चुका है। लेकिन कनफ्यूजन अब भी कायम है। क्या आपने सोचा है कि कोई एंकर त्यौरियां चढ़ाकर अब यह क्यों नहीं पूछ रहा है कि राम मंदिर कब बनेगा। हिंदू-मुस्लिम से काम बनेगा या सर्जिकल स्ट्राइक से, किसी भगोड़े को लाने की अफवाह से या गांधी-नेहरू परिवार के खिलाफ निजी हमलों से?
शायद प्रधानमंत्री मोदी के पास भी इन सवालों के जवाब नहीं है। इसलिए उन्होंने एक साथ सारे घोड़े खोल दिये हैं, आखिर कोई ना कोई मंजिल तक पहुंचाएगा ही। 2019 का कैंपेन देखकर 2015 के बिहार चुनाव की याद आ रही है, जब पैसे लुटाने से लेकर पाकिस्तान में दिवाली मनवाने तक हर दांव अलग-अलग राउंड के कैंपेन में आजमाये गये थे। कुल मिलाकर 2019 का चुनाव रूझानों के हिसाब से संभवत: देश का सबसे जटिल चुनाव है। आनेवाले वक्त के साथ जैसे-जैसे बेचैनी बढ़ेगी, बहुत से और नये नारे और नये ड्रामे नज़र आएंगे।
राकेश कायस्थ। झारखंड की राजधानी रांची के मूल निवासी। दो दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय। खेल पत्रकारिता पर गहरी पैठ। टीवी टुडे, बीएजी, न्यूज़ 24 समेत देश के कई मीडिया संस्थानों में काम करते हुए आप ने अपनी अलग पहचान बनाई। इन दिनों एक बहुराष्ट्रीय मीडिया समूह से जुड़े हैं। ‘कोस-कोस शब्दकोश’ और ‘प्रजातंत्र के पकौड़े’ नाम से आपकी किताब भी चर्चा में रही।