छत्तीसगढ़ लोकसभा चुनाव भाजपा में अप्रत्याशित रूप से चेहरे बदल दिए हैं। यह तो उम्मीद की जा रही थी कि 11 लोकसभा सीटों में से दस पर काबिज कुछ सांसदों का टिकट कटेगा और नये को मौका मिलेगा। रायपुर संसदीय सीट को सात बार जीतने वाले रमेश बैस या केन्द्रीय मंत्री व रायगढ के आदिवासी नेता विष्णुदेव साय या फिर कांकेर लोकसभा का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी सोच भी नहीं सकते थे कि उनका टिकट कटेगा लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व ने बड़ा दाँव खेलते हुए सभी दस विजेताओं को संदेश दे दिया कि अब उनकी भूमिका बदली जा रही है तथा उन्हें नेता की हैसियत से अपने प्रभाव का इस्तेमाल अपेक्षाकृत नए उम्मीदवारों को जीताने में करना है।
दिवाकर मुक्तिबोध की चुनावी चौपाल
पार्टी का यह चौंका देने वाला फैसला रहा और स्वाभाविक रूप से इसकी मौजूदा सांसदों व उनके समर्थकों के बीच तीव्र प्रतिक्रिया हुई। बंद कमरों में आक्रोश फूट पड़ा और नेतृत्व पर दबाव बनाकर फैसला बदलने की रणनीति पर विमर्श शुरू हो गया लेकिन जाहिर था समूची कवायद व्यर्थ थी। व्यर्थ रही। राज्य के करीब दो करोड़ मतदाताओं के सामने भाजपा के 11 नए लोकसभा प्रत्याशी मैदान में है। भाजपा ने पांसा फेंक दिया है, इस उम्मीद के साथ कि विधान सभा चुनाव जैसा हश्र न हो तथा मुकाबला बराबरी का रहे।भाजपा ने छत्तीसगढ़ के मामले में ऐसा क्यों किया? जाहिर है, तीन माह पूर्व सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी की भीषण पराजय इसका प्रमुख कारण है। बीते पाँच सालों में इतनी बुरी शिकस्त अपवाद स्वरूप दिल्ली को छोड़ दें, किसी भी राज्य के विधानसभा चुनाव में नहीं हुई। फिर भी लोकसभा सीटों की संख्या के हिसाब से छत्तीसगढ़ उसकी प्राथमिक सूची का राज्य नहीं है पर एकतरफा हार से जो संदेश गया है, उससे भाजपा के चुनाव केन्द्रित लोक-अभियान को बड़ी ठेस पहुँची है। इसलिए उसकी काट जरूरी थी जो ऐसे ही किसी कठोर निर्णय से संभव थी। लिहाजा केन्द्रीय नेतृत्व ने छत्तीसगढ़ के लिए तय किया कि विधानसभा चुनाव में हारे हुए प्रत्याशियों को, जीते हुए विधायकों व मौजूदा सांसदों को टिकिट नहीं दी जाएगी। दिल्ली में बैठे आकाओं की सोच है कि नए चेहरों को सामने लाने से मतदाताओं की नाराजगी दूर हो जाएगी तथा इसके बेहतर नतीजे मिलेंगे। लेकिन यह नीतिगत निर्णय अजीबोगरीब है और जमीनी हकीकत को जाने बिना लिया गया प्रतीत होता है।
विभिन्न राज्यों की जो सूचियाँ घोषित हुई है, उनमें कुछ वर्तमान सांसदों के टिकट कटे हैं किंतु अधिकांश की उम्मीदवारी बहाल की गई है। ऐसा किसी राज्य में नहीं हुआ कि सभी सीटिंग सांसदों के टिकट काट दी गई हो। छत्तीसगढ़ में ऐसा किया गया। लेकिन इस फार्मूले के उलट परिणाम भी हो सकते है। यानी यह निर्णय कुछ सीटों पर जीत की संभावनाओं को शून्य भी कर सकता है। यदि पार्टी सभी 11 सीटें हारती है तो उसकी मुख्य वजह होगी भीतर तक फैला हुआ सन्नाटा जो अभी भी दूर नहीं हो सका है। टिकिट कटने से नाराज सांसदों व उनके समर्थक कार्यकर्ताओं की वैसी ही निष्क्रियता, उदासीनता संभव है जो विधानसभा चुनाव में नजर आई थी और जिसे बकौल बड़े नेताओं के, हार का सबसे प्रमुख कारण माना गया था। टिकट के मामले को लेकर प्रदेश पार्टी में जिस तरह बगावत के सुर सुनाई पड़ रहे हैं, उनसे इस संभावना को बल मिलता है। यह अलग बात है कि टिकट से वंचित कोई नेता खुलकर बोल नहीं पा रहा है। वे नए उम्मीदवारों के समर्थन में खुले मन से कार्य करेंगे, मुश्किल है।
यह समझ से परे है कि रायपुर के सात बार के सांसद रमेश बैस का टिकिट क्यों काटा गया। वे अभी लालकृष्ण आडवाणी की तरह 91 साल के नहीं है। 70-75 के घेरे के रमेश बैस रायपुर से भाजपा की जीत की गारंटी रहे हैं। बीते चुनावों में उन्होंने विद्याचरण शुक्ल, श्यामाचरण शुक्ल जैसे कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को पराजित किया। हालाँकि बतौर सांसद वे राष्ट्रीय फलक पर अपनी कोई छाप नहीं छोड़ पाए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी उन्हें अपनी कैबिनेट में नहीं लिया। लेकिन वे भाग्य के धनी माने जाते हैं और संसद में भाजपा की सीटों में एक का इजाफा करते रहे हैं। उनकी लगातार जीत का बड़ा कारण भले ही जातिगत समीकरण हो पर इस बात में संशय नहीं कि उनकी जमीनी पकड़ मजबूत है। जातिगत समीकरण हो अथवा इतर दृष्टि से भी भाजपा का कोई और नेता उनके मुकाबले फिट नहीं बैठता। ऐसी ही स्थिति रायगढ़ से विष्णुदेव साय के बारे में कही जा सकती है जो चार बार के सांसद होने के साथ-साथ केन्द्रीय मंत्री भी है तथा बड़ा आदिवासी चेहरा भी। वे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। मौजूदा सांसद व प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी पर भी यह बात लागू होती है।
दरअसल भाजपा केन्द्रीय नेतृत्व का सांसदों से यह सवाल रहा है कि उन्हें किस आधार पर टिकट दी जाए। तर्क दिया गया कि जो सांसद अपने संसदीय क्षेत्र की विधानसभा सीटों को नहीं बचा सका वह लोकसभा चुनावों में हार का अंतर जो हजारों में है, पाटकर कैसे बढ़त हासिल करेगा? पार्टी का मानना है कि विधानसभा चुनाव में पराजय से साफ जाहिर है कि भाजपा सांसदों ने अपने क्षेत्र की घनघोर उपेक्षा की तथा पार्टी का काम नहीं किया। टिकट से वंचित रखने का यह तर्क अपनी जगह सही हो सकता है पर बुरी हार का यह एकमात्र कारण नहीं है। बड़ा कारण है रमन सरकार के खिलाफ जबरदस्त नाराजगी, मंत्रियों व नेताओं की बद्मिजाजी और कायकर्ताओं की उपेक्षा। यह ठीक है कि मतदाता पुराने के मुकाबले नए चेहरे को अधिक पसंद करते हैं, भरोसा जताते हैं। इसलिए परिस्थिति के अनुसार हारे हुए के बजाए नए पर दाँव लगाना अधिक श्रेयस्कर माना जाता हैं हालाँकि यह भी सफलता की शतप्रतिशत गारंटी नहीं है। पराजित हुए नेता भी आगे चुनाव जीतते रहे हैं। इसलिए टिकट के संदर्भ में पार्टी को लचीला रूख अपनाने की जरूरत थी। कुछ प्रत्याशियों की जीत की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता था। मसलन पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह, साफ सुथरी छवि वाला उनका बेटा सांसद अभिषेक सिंह, सांसद रमेश बैस, केन्द्रीय मंत्री विष्णुदेव साय, लोकप्रिय विधायक बृजमोहन अग्रवाल, ननकीराम कंवर, प्रेम प्रकाश पांडे, विधायक अजय चन्द्राकर आदि।
कांग्रेस ने भी भाजपा के दाँव के बाद कुछ प्रत्याशियों के चयन पर नए सिरे से विचार किया व नई राह चुनी। उसने भी नए उम्मीदवारों पर विश्वास जताया है। पिछले तीन लोकसभा चुनावों में उसकी बुरी हालत रही थी। वह 2004 के चुनाव में दो तथा 2009 व 2014 में केवल एक सीट तक सीमित रही। विधानसभा चुनाव के बाद उसका जनाधार बढ़ा है। इसलिए अब उसके पास पाने के लिए बहुत कुछ है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजधानी रायपुर है जहाँ करीब 23 साल से सूखा पड़ा हुआ है। इस सूखे के अब खत्म होने के आसार दिखते है क्योंकि कांग्रेस के मेयर प्रमोद दुबे के खिलाफ भाजपा ने अपेक्षाकृत कमजोर सुनील सोनी को मैदान में उतारा है। रमेश बैस होते तो यकीनन बात कुछ और होती। बहरहाल भाजपा का जोखिम भरा कदम कितना सही या गलत है, यह 23 मई को मतगणना के दिन स्पष्ट हो जाएगा।
दिवाकर मुक्तिबोध। हिन्दी दैनिक ‘अमन पथ’ के संपादक। पत्रकारिता का लंबा अनुभव। पंडित रविशंकर शुक्ला यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। संप्रति-रायपुर, छत्तीसगढ़ में निवास।