बीजापुर से आगे महाराष्ट्र के पश्चिमी छोर की ओर बढ़ा तो एक अलग ही नजारा दिखा । जितनी दूर तक देखो उसी अनुपात में उतनी दूर तक खाली-खाली जगह दिखाई देती है. आंखों पर यकीन करना मुश्किल होता है कि महाराष्ट्र का यह वही पश्चिम छोर है जहां थोड़ी देर पहले तक तो चारों ओर धरती हरे रंग से ढकी थी! फिर ऐसा क्या हुआ कि महज कुछ किलोमीटर आगे चलने पर यह सुंदर रंग का चोला उससे अलग होकर उतर चुका होता है? एक पक्की सड़क के चलते जत और इससे पचास किलोमीटर पार जाना सुगम तो होता है, लेकिन लोकसंख्या विरल होने के चलते आपको लगता है कि बहुत दूर-दूर तक आप अकेले ही हैं।
शिरीष की ग्राउंड रिपोर्ट पार्ट 2
ऐसा इसलिए कि काली माटी वाला यह सूखा-क्षेत्र है. दो साल में सूखे की स्थिति दुष्काल में बदल गई है. छाया के नाम पर यदि कुछ नजर भी आता है तो हरे लेकिन कांटेदार वृक्ष. यदि किसी की जमीन पर पंद्रह सौ फीट नीचे खोदने पर पानी निकल आए तो वह नसीब वाला माना जाता है. इसके बाद भी इस पूरे इलाके में कुछ नहीं होता हो तो ऐसा नहीं है. यहां भाकरी बनाने के लिए कहीं-कहीं अलग-अलग किस्म का ज्वार और बाजरा होता है, लेकिन खेती करना उन बड़े किसानों का ही काम है जिनका इलाके की सिंचित जमीनों पर कब्जा है. थोड़ा ज्यादा पानी जुटाने वाले किसान अंगूर उगाते हैं।
दूसरी तस्वीर में एक टैंक है. बड़े किसान आसपास के सभी स्त्रोतों से पानी जमा करके इसे एक टैंक में भरते हैं और अंगूर की फसल पर बूंद-बूंद पानी डालकर खेत सींचते हैं. यहां का अंगूर देश-विदेश तक बिकता है. इसलिए यहां का अंगूर उत्पादक मालदार होता है, लेकिन यहां ऐसे उत्पादकों की संख्या सौ में से पांच-सात होती है. लिहाज शेष बड़ी आबादी रोजीरोटी के लिए साल के छह महीने प्रवास पर रहती है. इस दौरान वह अगले छह महीने के लिए जब पैसा बचा लेती है तो लौटती अपनी जड़ों की तरफ ही है।
थोड़ा आगे चलने पर रत्नागिरी का लांजा इलाके में पहुंचा । कोंकण इलाके में लंबे समुद्री किनारे से दूर पहाड़ी के उतार का छोर. पर्वतमालाओं से घिरे होने के बावजूद आसपास कई प्रॉफिट-रुट सम्भवत: इसलिए हैं कि पहाड़ों पर सड़कों का जाल बिछा होने के अलावा जनसंख्या के अनुपात में निजी वाहनों की संख्या काफी कम है. राज्य परिवहन सेवा सस्ती और सर्व-सुलभ है. इसलिए आमतौर पर लोग सरकारी बसों में यात्रा करते हैं. आज सुबह मैं भी कोल्हापुर-रत्नागिरी रुट पर पाली से होते हुए लांजा शहर और फिर यहां से राजापुर-गोवा रुट पर एक-एक करके तीन अंदरूनी छोटे गांव वाकेड, वातूल और ओरी पहुंचा।
रत्नागिरी का कुम्भारवाड़ी कोंकण का एक ऐसा इलाका जहां कोंकण के घरों की तरह स्कूल भी इतने सुंदर और साफ-सुथरे होते हैं कि जूते उतरने का खयाल गेट के बाहर अपनेआप ही आ जाता है।
शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।