वे गांव में रहते थे। साधारण किसान थे। वक़्त बदला तो अहसास हुआ कि परिवार की जिंदगी बदलनी है। शहर आ गए। कभी जूस बेचा तो कभी कोई और धंधा किया। बेटे को पढ़ाया लिखाया। बेटा सीआरपीएफ में नौकरी पा गया। वे जिस माहौल में रहते हैं, वहां सरकारी नौकरी पाना एवरेस्ट फतह करने के बराबर माना जाता है। भले ही वह नौकरी उस सीआरपीएफ की हो, जो हर आतंकी-नक्सल हमले के पहले और सबसे आसान शिकार होते हैं।
बहरहाल बेटे को सरकारी नौकरी मिली तो बाप को लगा कि संघर्ष सार्थक हो गया। बेटे की शादी हुई, एक बच्चा हुआ, जो अभी 4 साल का है। इस बीच 2013 में बेटे की मां गुजर गई। बेटा सेना के कैम्पों में ड्यूटी करता, वे बहू और पोते को संभालते। एक बिटिया थी, बेटे ने कहा था बहन की शादी किसी सरकारी नौकरी वाले से कराऊंगा। बहू फिर से गर्भवती थी। सब कुछ ठीक ही चल रहा था, कि यह खबर आ गयी।
बाप को समझ नहीं आ रहा कि यह खबर किसे बताये और कैसे? क्या वह अपनी बहू को बताए जो गर्भवती है कि उसका जीवनसाथी आधे रास्ते मे ही साथ छोड़ कर चला गया। उस बच्चे को बताए जो सिर्फ चार साल का है कि तुम्हारे सिर से बाप का साया उठ गया। या उस बहन को बताए जो भाई के दम पर अच्छे जीवन का सपना देख रही है। वह मौन हो गया है।
फौजियों की जिंदगी ऐसी ही है। उन्हें सरकार इसलिये तनख्वाह देती है कि एक दिन उसे इसी तरह चले जाना है। ये कोई अमेरिकी आर्मी के लोग नहीं, जहां एक आर्मी मैन के मरने पर तहलका मच जाता हो। यहां सरकारें उनके जीवन की जरा भी परवाह नहीं करती। बहुत हुआ तो लाश को सलामी देती है, शहीद कह कर पुकारती है और मुआवजे से मुंह भर देती है। कोई हमला, कोई बदला और कोई सर्जिकल स्ट्राइक इन परिवारों के गमों का इलाज नहीं है। दिक्कत यह है कि हमारी सरकारों ने फौजियों की जान को अभी तक बहुमूल्य समझना नहीं सीखा है। सच यही है कि हर जगह बहुत ही असंवेदनशील रवैया है। एक सोच बनी हुई है कि फौजी तो मरने के लिये ही बहाल होते हैं।
इनकी सिक्युरिटी को लेकर कोई गंभीर कवायद नहीं होती। इंटेलिजेंस आउटपुट के बावजूद। बस्तर से कश्मीर तक हर दूसरे साल थोक में सीआरपीएफ के जवान मरते हैं। इन्हें शहादत कह दीजिये और अपनी जिम्मेदारी से छुटकारा पा लीजिये। हर सरकार का यही रवैया है। अब देश में बेरोजगारी इतनी है कि फिर भी लोग सीआरपीएफ में बहाल होने कतारों में खड़े हो जाते हैं। हां, अफसर कैडर में लोगों की कमी होती है, क्योंकि जिनके पास दूसरे बेहतर रास्ते होते हैं वे अमूमन सेना की नौकरी से बचते हैं।
इसलिये अगर सचमुच इस तरह के हमले हमारी संवेदनाओं को झकझोरते हैं तो सबसे पहले फौजियों की बेहतर सुरक्षा का इंतजाम करना होगा। सुरक्षा चूक के कसूरवारों को सख्त सजा देनी होगी। दुःखद तथ्य यह है कि मैंने आज तक किसी आतंकी हमले में सुरक्षा की चूक के जिम्मेदार लोगों को सजा मिलते नहीं देखा। क्या ये लोग इतने पॉवरफुल हैं कि इन्हें सजा नहीं मिलनी चाहिये। क्यों यह पता नहीं लगाया जाना चाहिये कि श्रीनगर से महज 20 किमी दूर कोई कैसे 300 किलो विस्फोटक लेकर घुस गया।
बांकी टीवी की बहसों और सर्जिकल स्ट्राइक की फिल्मों से सिर्फ मनोरंजन होगा। समस्या नहीं सुलझेगी। अगर वाकई सजा देना है तो जैश के मुखिया और मास्टर माइंड को दीजिये। फौजी तो उधर भी वैसे ही हैं, जैसे इधर हैं। जिसकी कहानी मैंने ऊपर लिखी है। गरीब, बेरोजगार और रोजी रोटी के लिये एडवांस में मौत चुनने वाले भोले भाले लोग।
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं