राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 71 वीं पुण्यतिथि पर देश उनको नमन कर रहा है। मोहनदास करमचंद गांधी को सबसे पहले बार नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने 24 जून 1944 को सिंगापुर रेडियो स्टेशन से राष्ट्र के नाम अपना संदेश प्रसारित करते हुए उन्हें राष्ट्रपिता कह कर सम्बोधित किया था। 79 वर्ष की अवस्था में देश के इस राष्ट्रपिता की हत्या हो गई। तब से आज तक हम इस महापुरुष को उनकी जन्म तिथि और पुण्यतिथि पर जरूर याद करते हैं। उनकी समाधि राजघाट पर जाकर उनके सपनों के भारत का निर्माण करने का संकल्प लेते हैं, मगर वास्तविकता यही है कि हमने उनके विचारों, उनके सपनों, आदर्शों को कुड़ेदान में डाल दिया है, अपने परिवार के बूढे-बुजुर्ग दादा-परदादाओं की तरह। जिस तरह आधुनिकता के इस दौर में नई पीढ़ी के लिए अपने बड़े-बुजुर्गों की कोई उपयोगिता नहीं रही, ठीक उसी तरह हमारे देश के शासकों के लिए गांधी के विचार और उनके आदर्श भी अप्रासंगिक हो गये हैं। गांधी जीवन पर्यंत सत्य, अहिंस, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के महान सिद्धान्त का पालन करते रहे। उन्होंने अपने जीवन को अछूतोद्धार, सर्व धर्म-समन्वय और हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए समर्पित कर दिया और अंत में उनकी यही विचारधारा उनकी हत्या का कारण बनी। गांधी ने ग्राम स्वराज की कल्पना की थी। उनका मानना था कि भारत गांवों का देश है और गांवों को सशक्त बनाए बिना एक ताकतवर राष्ट्र का निर्माण सम्भव नहीं है। उनके विचार में ग्राम स्वराज की पहली शर्त थी शिक्षा का प्रसार ।
1917 में गांधी जी चम्पारण आए थे, आए नहीं, बुलाए गये थे। पंडित राजकुमार शुक्ल ने चम्पारण में निलहों के आतंक से त्रस्त किसानों की दयनीय हालात का मुआयना करने और उससे मुक्ति दिलाने के लिए बार बार जिद कर गांधी को चम्पारण आने के लिए मजबूर कर दिया था। अपने चम्पारण आगमन के बाद गांधी जी ने वहां के गांवों का भ्रमण शुरू किया। निलहों के शोषण और अत्याचार को नजदीक से देखा और देखी चम्पारण के किसानों जलालत भरी जिंदगी। तब उन्होंने सुना कि गांव की गरीब महिलाएं इसलिए प्रतिदिन नहीं स्नान करती कि उसके पास बदलने के लिए कपड़े नहीं हैं। यह सुन गांधी का हृदय विदीर्ण हो गया था। उन्होंने देखा दो पैसे, चार पैसे की रोजाना मजदूरी पर छोटे-छोटे फटेहाल बच्चों को निलहो और जमींदारो के खेत में मजदूरी करते हुए। कांप उठे थे राष्ट्रपिता वह दृश्म देख कर। बाद में उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में लिखा-‘ जैसे-जैसे मैं अनुभव प्राप्त करता गया, वैसे -वैसे मुझे दिखाई दिया कि चम्पारण में सच्चा काम करना हो तो गांवों में शिक्षा का प्रवेश होना चाहिए। लोगों का ज्ञान दयनीय था। गांवों के बच्चे मारे-मारे फिरते थे या मां-बाप दो-तीन पैसे की आमदनी के लिए उनसे पूरा दिन नील के खेतों में मजदूरी करवाते थे। साथियों से वह विचार-विमर्श करके पहले तो छ: गांवों में पाठशाला खोलने का निश्चय हुआ। शर्त यह थी कि उन गांवों के मुखिया मकान और शिक्षक का भोजन व्यय दें। उनके और खर्च हम चलाएं। उन गांवों में पैसे की अधिकता थी नहीं पर अनाज आदि लोग दे सकते थे। लोग कच्चा अनाज देने को तैयार हो गये। ‘
अब समस्या शिक्षकों की थी। शिक्षक कहां से लाए जाएं ? तब यहां नि:शुल्क या कम वेतन लेकर पढ़ाने वाले शिक्षकों का मिलना मुश्किल था। बापू ने इस पर भी हार नहीं मानी। उन्होंने चम्पारण में शिक्षा का अलख जगाने के लिए सार्वजनिक रूप से स्वयंसेवकों का आह्वान किया । परिणाम भी सार्थक हुआ। गंगाधरराव देशपाण्डे ने अपने यहां से बाबासाहब सोमण और पुण्डलीक को भेजा। बम्बई (अब मुम्बई) से अवन्तिकावाई गोखले आई। सुरेन्द्रनाथ, छोटे लाल और बापू के पुत्र देवदास आ गये। बापू की पत्नी कस्तुरबा गांधी समेत दुर्गा बहन और मणि बहन आ गई ।चम्पारण में शिक्षा का अलख जगाया जाने लगा। कुछ बाधाएं भी आईं जिसका बापू ने अपने सहयोगियों के साथ खूब डट कर मुकाबला किया। यहीं से चम्पारण की धरती पर बुनियादी शिक्षा की नींव पडी। कालांतर में चम्पारण में 43 और पूरे बिहार में 391 बुनियादी विद्यालय स्थापित किए गये। कुछ समय तक सबकुछ ठीक रहा। लेकिन आज ग्राम स्वराज की गाड़ी तो बेपटरी हो ही चुकी है। बापू की बुनियादी शिक्षा की अवधारणा को भी लकवा मार गया है।
जरा आंकड़ों पर गौर करिए, सूबे में 391 बुनियादी विद्यालयों में शिक्षकों के 3920 पद स्वीकृत हैं जिनमें 3 हजार शिक्षकों के पद काफी समय से रिक्त पड़े हुए हैं। बुनियादी शिक्षा की बदहाली पर आज से तीन साल पहले हाईकोर्ट ने सरकार को जब फटकार लगाई तो सरकार की नींद खुली। वह कुनमुनाई। बयान जारी हुआ ‘बुनियादी विद्यालयों में रिक्त पड़े शिक्षकों के तीन हजार पद शीघ्र भरे जाएंगे। बुनियादी विद्यालयों में 12 वीं कक्षा तक की पढाई होगी । आदि आदि। वह तीन साल भी गुजर गये। आज जब देश गांधीजी की 71 वीं पुण्य तिथि मना रहा है। देश के नेता एकबार फिर गांधी को याद कर रहे हैं। उनके नाम की माला जपी गई। राजघाट पर कसमें खाईं गईं होंगी । लेकिन इसमें कहीं गांधी जी के विचारों, मूल्यों, आदर्शों को मूर्तरूप देने का संकल्प और उसके प्रति सत्ताधीशों की प्रतिबद्धता का रंच मात्र भी शामिल होगा इसपर संदेह है । यह सब सोंचते हुए मेरे जेहन में अचानक यह सवाल उत्पन्न हो गया कि क्या गांधी पूरी तरह अप्रासंगिक हो गये ?