ब्रह्मानंद ठाकुर
साल तो ठीक याद नहीं, शायद 1964-65 रहा होगा। मैं अपने गांव के बेसिक स्कूल में छठी कक्षा का विद्यार्थी था। नवम्बर का महीना था। मौसम भी खुशगवार। न ज्यादा गर्मी और न ज्यादा ठंडक । सुबह से ही जीप से सकरा में कर्पूरी ठाकुर के आगमन और उनके भाषण का प्रचार हो रहा था। तब आज वाली स्थिति नहीं थी। किसी बड़े नेता के प्रति लोगों में काफी आस्था थी और कर्पूरी जी का अपना प्रभाव भी हर तबके के लोगों, खास कर किसान-मजदूरों पर काफी अच्छी थी। हमलोग अपने बड़े बुजुर्गों से अक्सर कर्पूरी जी की चर्चा सुनते रहते थे। उस दिन हमलोग जब स्कूल पहुंचे और सफाई, प्रार्थना के बाद कक्षा लगी तो कक्षा के हम चार साथियों ने भी कर्पूरी ठाकुर का भाषण सुनने 5 किमी दूर जाने का फैसला किया ।
बूढीगंडक के देदौल घाट पर हमारे गांव के लोगों को खेबा नहुं लगता था। हमलोग नाव से नदी पार कर पैदल करीब साढ़े तीन बजे सकरा पहुंच गये। थाना के निकट एक आरा मशीन था। उसके सामने एक बड़ा मैदान हुआ करता था। उस मैदान में चौकी जोड़ कर मंच बनाया गया था। मंच पर कुछ लोग बैठे हुए थे। उसमें से एक आदमी बार-बार घोषणा कर रहा था कि जन जन के चहेते कर्पूरी ठाकुर कुछ ही देर में सभास्थल पर पहुंचने वाले हैं। कई बर्षों बाद में जान पाया कि यह उद्घोषणा करने वाले इस क्षेत्र के समाजवादी कार्यकर्ता रामबलिहारी सिंह थे। सकरा में उनकी और रामललित बाबू की दबा की दुकान थी। दोनों कर्पूरी जी के साथी थे। हमलोग भी मंच के सामने थोड़ी दूर हटकर एक कोने में बैठ गये।
करीब चार बजे एक जीप सभास्थल पर पहुंची तो सभा में उपस्थित भीड’ कर्पूरी ठाकुर जिंदावाद ‘के नारे लगाने लगी। नारा लग ही रहा था कि जीप से एक मध्यम कद-काठी और साधारण धोती-कुर्ता पहने हुए एक सख्श नीचे उतरे। बलिहारी बाबू, रामललित सिंह समेत कुछ लोग आदर से उन्हें मंच तक ले गये। मंच पर एक भी कुर्सी नहीं रखी गई थी। लिहाजा सभी नेता चौकी पर ही बैठ गये। कर्पूरी ठाकुर ने खड़े होकर माईक संभाला और बोलने लगे। उनका भाषण तो अक्षरश अब याद नहीं रहा, लेकिन इतना तो अब भी याद है कि उन्होंने अपने भाषण में किसानों,मजदूरों को हरतरह के शोषण-उत्पीडन से लड़ने के लिए एक जुट होने का आह्वान किया था। तब बिहार में कांग्रेस की सरकार थी। कांग्रेसी मुख्यमंत्री केबी सहाय के कार्यकाल में मुजफ्फरपुर गोलीकांड में विद्यार्थी महेश शाही और प्रोफेसर निगमानन्द कुंवर शहीद हो चुके थे। इस घटना के विरोध में छात्रों का आंदोलन भी हुआ था। उनके भाषण का मुख्य विषर कांग्रेसी कुशासन और गांव के गरीब किसान-मजदूरों की बदहाली से मुक्ति के लिए समाजवादी व्यवस्था कायम करना था।
आज जब कर्पूरी जी के राजनीतिक उत्तराधिकारियों की शान-शौकत, उनके ऐसो आराम की जिंदगी, कथनी करनी में जमीन-आसमान का फर्क देखता हूं,दौलत के शीर्ष पर आसीन होने की जुगत भिड़ाते हुए उनके मुंह से समाजवाद की बात सुनता हूं तो मुझे कर्पूरी जी बरबस याद आ जाते हैं। इसलिए कि उनका समाजवाद लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण जैसों का समाजवाद था। कर्पूरी जी जिस समाजवाद की बात करते थे, उसे अपने दैनिक जीवन में जीते भी थे। भाई-भतीजवाद तो दूर, उन्होंने अपने पुत्र को भी राजनीति में प्रश्रय नहीं दिया। कर्पूरी जी का वह भाषण इसलिए भी स्मरणीय हो गया कि मैं जेनरल कोटि से आने के बाद भी निम्न वर्गीय किसान परिवार से था। गरीबी और बदही मैंने देखी और भोगी थी। तब कर्पूरी जी के भाषण में हमारे जैसे असंख्य छात्रों को इस जलालत भरी जिंदगी से निकलने का मार्ग दिखाई दिया था। बाद में समझा कि वह समाजवादी व्यवस्था ही देश के शोषित-पीडित आवाम को पूंजीवादी शोषण से मुक्ति दिला सकती है। करीब साढे़ पांच बजे सभा समाप्त हुई। हमलोग पैदल ही घर के लिए चल पड़े। लगभग तीन किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद अंधेरा हो गया था । अभी दूर तक जाना था। अंधेरा घिरने के कारण कुछ भय भी लगने लगा। तबतक नरसिंहपुर खादीभंडार आ चुका था। यहां हमारे गांव के कुछ लोग रहते थे। हमलोग खादीभंडार में पहुंचे तो सूर्यनारायण चाचा से मुलाकात हो गई। उन्होंने हमसे आने का कारण पूछा। मैंने उन्हें सबकुछ बता दिया। उन्होंने हम सबों को रात में वहीं रोक लिया। तब भंडार का अपना मेस चलता था। करीब 30-40, कार्यकर्ता उस मेस में नियमित भोजन खरते थे। सूर्यनारायण चाचा ने खादीभंडार के एक अन्य कार्यकर्ता रामफल महतो जी से हम चार साथियों के लिए भी भोजन बनवाने को कह दिया। हमलोग रात में वहीं भोजन कर सो गये। कल सुबह घर वापस आए। घर पर तो खबर हो ही गई थी। हमें कोई कैफियत नहीं देनी पडी।
समय बीता। पत्रकारिता से जुड़ीव हुआ तो क्षेत्र के स्वतंत्रता सैनानियों से मिलकर उनके संघर्षों पर केन्द्रित रिपोर्ट लिखने का सिलसिला शुरू हुआ। इसी सिलसिले में मुजफ्फरपुर जिले के तेपरी के प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी गोपालजी मिश्र से जब मुलाकात हुई तो उन्होंने कर्पूरी जी का जेल से लिखा हुआ दो पोस्टकार्ड मुझे दिया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में गिरफ्तार होकर कर्पूरी ठाकुर भागलपुर कैम्प जेल में थे। गोपाल जी मिश्र से उनका आंदोलनात्मक गतिविधियों पर अक्सर पत्रव्यवहार होता रहता था। यह पत्र उसी सिलसिले में लिखा गया था। दुर्भाग्यवश वह पत्र आब मेरे पास नहीं रहा। उस पत्र को पढ़कर कालीदास का मेघदूत याद आ गया। वह भी आषाढ़ का महीना था और कर्पूरी जी का वह दोनों पत्र आषाढ़ मास में दो तिथियों में लिखे गये थे। कैम्पजेल से बाहर दूर क्षितिज में तिरते रोमल-श्यामल, भूरे, मटमैले बादल। विशाल हरा-भरा मैदान। हरे-भरे खेत सब का जिक्र था उस पत्र में और थी मुल्क को आजाद करने की एक स्वतंत्रता सेनानी की बेचैनी। अद्भुत था कर्पूरी जी का वह प्रकृति प्रेम और उसका मनोहारी वर्णन । कौन कहता है कि सच्चा समाजवादी प्रकृति का उपासक नहीं होता ।