लोकसभा चुनाव 2019 : दो जमा दो हमेशा चार या बाईस नहीं होते है राजनीति में ये दो भी रह जाते है और जीरो भी हो जाते है। गठबंधन को 2019 में साबित करना है कि 1993 ऐसा इतिहास है जो दोहराया जा सकता है।
राष्ट्रीय अधिवेशन में अमित शाह अपने देश भर के कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे थे । रामलीला मैदान पर 2019 की जंग से पहले ये सबसे बड़ा सम्मेलन था । भाषण सुन रहा था तो लग रहा था क्या बीजेपी के लिए ये अच्छा नहीं होता कि अमित शाह अपने आप को बंद कमरे की रणनीति तक ही सीमित रखते और बौंनों ( पत्रकारों ) के चढ़ावे में कि वो चाणक्य है इस पर यकीन न करते ।
खैर एक दम घिसेपिटे हुए रिकॉर्ड की तरह से उनका भाषण रहा और कार्यकर्ताओं तो दूर की बात है उनको खुद ही उस भाषण पर इतबार नहीं रहा होगा। वो जो बोल रहे थे वो हर आदमी को मालूम है क्योंकि प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्री दिन में अलग अलग अलग माध्यमों से कई बार बोलते है । दिल्ली में देश की गद्दी पर दूसरी बार का दावा ठोंक रहे बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को मालूम था कि शनिवार को दिल्ली की गद्दी पर बीजेपी की वापसी की राह में सबसे बड़ा रोड़़ा अब दीवार बन कर खड़ा हो रहा है। और बीजेपी के लिए इस दीवार को गिरा कर ही दिल्ली तक पहुंचना संभव होगा नहीं तो विजय अभियान दिल्ली विजय तक तो दूर है लखनऊ में ही दम तोड़ देगा। बीएसपी और एसपी ने शनिवार को बड़े धूमधाम से गठबंधन का ऐलान कर दिया। ये वो गठबंधन है जिसकी बानगी यूपी में तीन उपचुनाव में बीजेपी को मिली करारी हार से देखने को मिली। बीजेपी की हार ने जीतने वाली पार्टियों से भी ज्यादा बौंनों के गैग्स को राहत पहुंचाई, ( खास तौर से अंग्रेजी भाषा के बौंने जिनकी डिक्शनरी में जनता का मौलिक अधिकार सिर्फ इतना है कि वो इनके बताएं हुए नेताओं को नेता माने और जिसको ये हिटलर की औलाद कहे उसको निशाने पर रखे नहीं तो जनता-जनता कहलाने का हक खो देती है)। बसपा और सपा के गठबंधन को देश की एकता और अखंडता का आधार बताने में जुटे हुए बौंनों के गैंग्स काफी खुश भी है और जनता को सूचना देने से ज्यादा जनता को दिशा देने का कार्य निबाहने में जुटे टके के बिके हुए बौंनों की पूरी उम्मीद इस गठबंधन की जीत पर टिकी हुई है। और ये उम्मींदे ही पत्रकारिता की कहानी सुना सकती है। लेकिन बौंनों की इस खानाजंगी से मैं ( बौंनों में से एक) इस गठबंधन की राजनीति को समझने की कोशिश कर रहा हूं कि आखिर 2019 में क्या इस गठबंधन से मोदी की राह रोकी जा सकती है या नहीं, या इस गठबंधन से राहुल की राह रोकने में जुटे है गठबंधन के साथी। चलिए बौंनों से उलट इस गठबंधन पर नजर डालते है।
गठबंधन मायावती और अखिलेश ने किया है। लखनऊ में अखिलेश जिस तरह से विनम्र दिख रहे थे उससे ये तो साफ पता चल रहा था कि मुलायम सिंह ने अपने बेटे को राजनीति की 16 कलाओं में लगभग निपुण कर दिया है और फायदे के लिए जो भी कदम उठाना है उसमें शर्म या बेशर्म इन दोनों की शब्दों का कोई मतलब नहीं होता है। दरअसल बात पहले अखिलेश की कर सकते है, अखिलेश ने राज्य चुनावों की हार के बाद राजनीति का ककहरा ज्यादा सही पढ़ा, पहले तो पिता के सहारे पार्टी में उठने वाली हर आवाज को बंद कर दिया। और कबीले की राजनीति का पहला सबक यही होता है कि जो भी आवाज घर के अंदर से विरोध में दिखे उसको समूल नष्ट करने से ही राह आसान होती है। अखिलेश ने बहुत सोच विचार कर मौजूदा परिस्थितियों के लिए अपने लिये बेहतर विकल्प का चुनाव किया है। मोदी की जीत अप्रत्याशित थी लिहाजा उसको रोकने के लिए राजनीतिक पहल भी अप्रत्याशित ही होनी चाहिए और इस समझ के सहारे अखिलेश ने पहल कर मायावती को आगे रख कर अपनी किलेबंदी की। अखिलेश के साथ सबसे बड़ी चीज उनकी उम्र है । अखिलेश के लिए दांव अपनी ताकत को संजोंने और विधानसभा चुनावों तक बीजेपी की खिलाफ उठने वाली आवाजों में नायक के तौर उभरने का है। कबीलों की तरह जाति के दम पर राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों की ताकत उनकी जाति के उनके इशारे पर एक दम से ईमान बदलने पर टिकी होती है अगर जातिवादी नेता को लगा कि अ के साथ जाना है तो समर्थक अ को महान साबित करने में जुट जाएंगें और यदि ब के साथ जाना है तो फिर अ को बीच बाजार नंगा कर देंगे और इसके लिए उनको किसी झूठे आवरण की जरूरत नहीं होती है। इसी से अखिलेश ने अपनी ताकत यानि यादव वोटों को दलितों के साथ जोड़ने की पहल की।
बसपा यानि बहिन मायावती। 2014 के चुनावी नतीजों से हिल गई बीएसपी विधानसभा चुनावों के रिजल्ट से सन्नाटे में आ गई थी। पार्टी सुप्रीमों मायावती को एक बारगी सारे समीकरण उलटते दिखे लेकिन सीटों से ज्यादा वोटों की संख्या ने उनका विश्वास वापस लौटा दिया। लेकिन एक सवाल भी खड़ा कर दिया कि आखिर उनका समीकरण दलितों के अलावा तभी काम कर सकता है जब उसमें मुस्लिम अनिवार्य रूप से जुड़े। नहीं तो एक जातिवादी मोहरों की लड़ाई में कुछ सीटों या कुछ नंबर तक सीमित रह जाता है और उसको भी चुनौती मिलने लगी है जो उनसे ज्यादा सवर्णों को गाली देने वाले उन्ही के सजातीय उनके सामने आ खड़े हो रहे है। ऐसे में दलित आंदोलन को राजनीति में ठोस रूप देने में सफल रही मायावती को अपनी उम्र का ख्याल रखते हुए इस राजनीतिक ताकत को बरकरार रखने के लिए सत्ता का साथ जरूरी है। इसी ख्याल से उन्होंने गेस्ट हाऊस कांड की कड़वी यादों को भुलाने में देर नहीं लगाई। वैसे भी राजनीति इस कांड को काफी दिन पहले भुला चुकी थी, मायावती ने उस कांड में शामिल काफी राजनेताओं को बीएसपी के टिकट पर चुनाव लड़वा कर विधानसभा और संसद तक भेजा। मुनव्वर हसन के समर्थकों का बडबोला वाक्य सुनता था कि उनके सांसद ने उस वक्त गेस्ट हाउस में क्या किया था और गेस्ट हाउस में फंसे लोग कितने कांप रहे थे लेकिन राजनीतिक समीकरण में व्यक्तिगत गर्व तभी तक रहता है जब तक सत्ता रहती है नहीं तो जमीन चाटने को रणनीति कहना बहुत पुराना शगल है।
मायावती ने अखिलेश के आमंत्रण को इसीलिए हाथोहाथ लिया क्योंकि इस बार अगर मोदी सरकार नहीं तो फिर तीसरे मोर्चे में ऐसे बहुत से नायक होगे जिनकी निगाह में रायसीना हिल्स बहुत ऊंची नहीं दिखती है। देवेगौड़ा और गुजराल को आदर्श मानने वालों को मालूम है छींका किसी के लिए भी टूट सकता है बस किसी तरह अपने को उसके आसपास बनाएँ रखों। ये आसान है कि यूपी से सीटों के सहारे एक दलित महिला जिसके एडमिनिस्ट्रेशन की उसके विरोधी भी तारीफ करते हो अगर वो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ सकती है तो ये समीकरण किसी को भी लुभा सकता है और राहुल गांधी के किसी भी समीकरण को बिगाड़ सकता है और अखिलेश को मालूम है कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता लखनऊ से ही जाता है तो उसको मजबूत बनाएं रखों आगे के लिए सोचना अच्छी बात है । वैसे भी कल के मोर से आज का कबूतर अच्छा है ये कहावत उनको पिता से सीख में मिली है। लेकिन सवाल कई सारे है । लुटियंस दिल्ली में बैठ कर देश को आंवला समझ कर बांचते हुए बौंनों की दलील की तरह ये समीकरण सब कुछ साफ नहीं कर देंगा। मुझे इसमें कई सवाल दिखते है जिनका जवाब सिर्फ मतपेटियों के खुलने से मिलेगा।
1993 की दलील दे रहे राजनेताओं के लिए फूलपुर, गोरखपुर और कैराना की जीत उनके समीकरण के अजेय होने की गवाही है। लेकिन क्या ये इतना आसान है। सबसे पहले समीकरण समझते है गठबंधन का। हालांकि अभी अजीतसिंह और उनका बेटा जाटों के ( जाट काफी वोकल राजनीतिक कौम है लिहाजा उनका कोई भी प्रदर्शन या धऱना किसानों का बन जाता है) के नेता है। लेकिन जाटों के साथ लंबे समय से दूसरी किसी जाति का गठबंधन सटीक नहीं बैठा। उनकी राजनीतिक उग्रता और उससे हासिल लाभ को वो किसी के साथ शेयर नहीं करते थे लिहाजा जैसे ही चुनावों में वोट डालने की सुविधा सभी जातियों को हुई ये एक दम से साफ हो गए। ऐसी बहुत सी कहानियां मैंने अखबारों में पढी़ की युवा जाट ने अजीत सिंह को भुला दिया या फिर जाट पॉलिटिक्स में भारी बदलाव आ गया । ऐसा फील्ड में नहीं है जाट आज भी अजीत सिंह और उनके बेटे को नेता मानता है बल्कि जातिवादी राजनीति में सवर्णों के खेल को समझने वाली और उसका खेल बिगाड़ने वाली रणनीति की शुरूआत चरणसिंह ने ही की थी और जाटों ने प्राणपण से उनका साथ दिया था। लिहाजा आज भी जाट वोट देते हुए वक्त पहले जाति को देखता है और फिर फैसला करता है।
अब अजीत सिंह बहुत कमजोर है और दोनों बाप बेटों की राजनीतिक हैसियत अब आखिरी मुकाम पर है। ऐसे में उनको किसी भी समझौते से ऐतराज नहीं जो उनको राजनीतिक रूप से जिंदा कर दे। राजघाट आ रहे किसानों से मिलने गाजीपुर मोड पहुंचे अजीत सिंह का उत्साह उस भीड़ में देखने लायक था और वो इतने उत्साह में आ गए थे कि कुछ ही देर में थोड़ी देर तबीयत भी खराब हो गई थी। उम्र उनके साथ भी नहीं है और वो अपने पिता की तरह परिवारवाद का विरोध करते हुए अपनी राजनैतिक सत्ता अपने बेटे को देना चाहते है। लिहाजा इस वक्त दांव पर जयंत का राजनीतिक भविष्य है और वो भी लोकसभा पहुंचना चाहते है बाकि तमाम गरीब जनता के लिए लड़नेवाले नेताओं के बेटों की तरह उनकी शिक्षा दीक्षा मंहंगे और विदेशी भाषा में हुई है। अभी वो चार सीट मांग रहे है हालांकि उनकी बात तय हो चुकी है और कैराना की जगह मुजफ्फरनगर , मथुरा और बागपत के अलावा हाथरस या फिर बुलंदशहर उनकी मांग है। हो सकता है ये पूरी हो जाएं जैसा की अभी संकेत है तब ये समीकरण मायावती , मुसलमान और अजीत सिंह का गठबंधन हो जाएंगा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इन जिलों , यहां यादव नहीं है। लिहाजा पूरा गणित इसी पर सिमट जाएंगा। ….जारी
धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंढीर की अपनी विशिष्ट पहचान है।