शिरीष खरे
भारतीय प्रशासन का वर्तमान ढांचा ब्रिटिश शासकों से विरासत में मिला है। इसी ढांचे के नीचे गांव का विकास कार्य और जवाबदेही तय की जाती है। हालांकि, समय-समय पर इसमें संशोधन भी हुए हैं। वर्ष 1952 में अधिकतम उत्पादन जांच समिति ने पहली बार राष्ट्रीय-राज-जिला-विकासखंड-गांव आधारित व्यवस्था का प्रारूप बनाया। इसी समिति ने तहसील बनाने की सिफारिश की थी। इसी ने जिला स्तर पर विकास की गतिविधियों को कलेक्टर के अधीन एकत्रित करने की सिफारिश भी की थी। इस प्रारूप को आकार देने के लिए ही सामुदायिक विकास कार्यक्रम शुरू किया गया था।
वर्ष 1969 में ग्राम पुनर्निर्माण मंत्रालय बना और वर्ष 1982 में इसका नाम बदलकर ग्राम विकास मंत्रालय किया गया। वर्ष 1985 में इसका नाम बदलकर कृषि मंत्रालय किया गया। फिर वर्ष 1995 में अलग से ग्राम विकास विभाग बनाया गया। साल 1995 में इसे ग्रामीण क्षेत्र एवं रोजगार मंत्रालय कर दिया गया। इसके बाद 1999 में इसे फिर ग्राम विकास मंत्रालय नाम दे दिया गया । इस मंत्रालय के तहत दो विभाग हैं- ग्राम विकास और पेयजल आपूर्ति विभाग। ग्राम विकास कार्यक्रमों को कराने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है। 60 के दशक में राज्यों में राज्य स्तरीय समन्वय समीक्षा समितियों का गठन हुआ था। इसका उद्देश्य विभिन्न विभागों के बीच तालमेल बैठाना था । किंतु, भारत में जिला प्रशासन गांव के विकास की बुनियादी धुरी है। इसी कड़ी में चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान भारतीय रिजर्व बैंक ने छोटे किसानों को ऋण सहायता व तकनीकी मार्गदर्शन देने के लिए क्रेडिट की समीक्षा समिति बनाई थी।
जिला प्रशासन के नीचे विकास खंड ग्राम स्तर पर एक प्रशासनिक ढांचा काम करता है। इसमें कृषि के अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण आदि क्षेत्र शामिल हैं। इसके तहत स्व-सहायता समूह और जन भागीदारी पर विशेष जोर दिया गया। छठी पंचवर्षीय योजना में जिलों में कार्यक्रम के नियोजन, क्रियान्वयन निगरानी और मूल्यांकन के लिए जिला ग्राम विकास एजेंसी बनाई गई । कलेक्टर को इसका अध्यक्ष बनाया गया।साल 1992 के बाद संविधान में संशोधन किया गया और जिला खंड ग्राम तीन स्तरों पर पंचायत को सशक्त बनाने पर जोर दिया गया। इसके तहत पंचायती राज्य संस्थाओं को वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार दिए गए। इसके बाद विकेंद्रीकरण की योजना को सुगम बनाने के लिए जिला योजना समितियों का गठन हुआ। इसका मुख्य काम ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पंचायती राज संस्थाओं और शहरी वर्गों के लिए विभिन्न इकाइयों के बीच समन्वय करना और मिली-जुली योजनाएं बनाना है। हाल के वर्षों में गैर-सरकारी संगठनों ने भी ग्रामीण क्षेत्र में विकास कार्यक्रमों को लागू करने की पहल की है। इसके लिए उन्हें सरकारी अनुदान भी मिलता है।
साल 1986 में कपाट का गठन इसी उद्देश्य किया गया। वर्तमान में प्रशासनिक व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी विकास कार्यों में भागीदारी का अभाव दिखता है। हालांकि पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से सत्ता का विकेंद्रीकरण किया गया फिर भी प्रशासन सीधे तौर पर केंद्र व राज्य सरकारों के हाथों में ही है। नौकरशाही ने निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों की भूमिका को महत्त्वहीन बनाने का प्रयास किया। इसमें वह काफी हद तक सफल भी रहा। वहीं, जिला ग्राम विकास एजेंसिया अपेक्षा के अनुरूप जनता की भागीदारी बढ़ाने में असफल साबित हुई।
शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।