शिरीष खरे/ हर कक्षा में ‘मूल्यवर्धन’ की गतिविधियों को संचालित करने के लिए दो प्रकार की गतिविधि पुस्तिकाएं होती हैं। पहली पुस्तिका कक्षा के शिक्षक के लिए होती है। इसकी मदद से वह जानता है कि पूरे सत्र मूल्यवर्धन की गतिविधियां कैसे करानी हैं। पहली से चौथी तक अलग—अलग कक्षा को ध्यान में रखकर गतिविधियों का स्तर बदलता जाता है। दूसरी पुस्तिका बच्चों के लिए होती है। इसमें शिक्षक गतिविधि पुस्तिका के आधार पर कुछ गतिविधियां शामिल की गई हैं। इस तरह, पहली से चौथी तक चार शिक्षक गतिविधि और चार विद्यार्थी गतिविधि पुस्तिकाएं हैं। साथ ही शिक्षकों के लिए एक मार्गदर्शिका है। यह शिक्षक गतिविधि पुस्तिकाएं गतिविधियों की मदद से बच्चों में उनकी क्षमता, जिम्मेदारी, आपसी संबंध और दुनिया के बारे में पहचान कराती हैं।
बच्चों की क्षमता से जुड़ी गतिविधियां कराते समय ‘स्वतंत्रता’ जैसे संवैधानिक मूल्य को शामिल किया है। इस तरह की गतिविधियां बच्चों में बगैर पढ़ाई के ‘स्वायत्ता’ और ‘समालोचनात्मक व रचनात्मक विचार’ जैसे मूल्य आत्मसात होते हैं। बच्चों के लिए जिम्मेदारी से जुड़ी गतिविधियां कराते समय ‘न्याय’ जैसे संवैधानिक मूल्य को केंद्र में रखा गया है। इसमें इस तरह की गतिविधियां हैं कि बच्चे अच्छी ‘सोच से निर्णय’ और ‘दूसरे के कल्याण’ के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं। बच्चों के लिए आपसी संबंधों से जुड़ी गतिविधियां कराते समय ‘बंधुता’ और ‘समानता’ जैसे संवैधानिक मूल्यों को रखा गया है। इसमें शामिल गतिविधियों से बच्चों में ‘सौहार्दपूर्ण जीवन—यापन’ और ‘मानवीय गरिमा का सम्मान’ जैसी भावनाओं को बढ़ावा मिलता है। इसी तरह, बच्चों के लिए दुनिया से जुड़ी गतिविधियां कराते समय ‘बंधुता’ जैसे संवैधानिक मूल्य को प्राथमिकता दी गई है। गतिविधियों को बनाने के दौरान ‘विविधता के महत्त्व’ और ‘सक्रिय योगदान’ जैसी दक्षताओं पर ध्यान दिया गया है।
महाराष्ट्र से शुरू हुआ यह मूल्यवर्धन कार्यक्रम पिछले नौ वर्षो के गहन प्रयासों से विकसित होता हुआ इस समय गोवा के सरकारी स्कूलों में चलाया जा रहा है। इसका केंद्र—बिंदु है- मूल्य आधारित गुणवत्तापूर्ण शिक्षण। मूल्यवर्धन को इस प्रकार से तैयार किया गया है कि इसमें मूल्य पढ़ाए नहीं जाते, बल्कि आत्मसात कराए जाते हैं। ये मूल्य हैं— ‘स्वतंत्रता’, ‘समानता’, ‘न्याय’ और ‘बंधुत्व’। इन संवैधानिक मूल्यों से बच्चे लोकतांत्रिक नागरिक बनने के गुण सीखते हैं। वे स्वतंत्र तरीके से विचार करना और प्रश्न पूछना सीखते हैं। वे अपनी जिम्मेदारी निभाना और दूसरे की देखभाल करना सीखते हैं। इसमें मूल्यों की शिक्षा देते समय बच्चों को पढ़ाकर उपदेश देने की बजाय तरह—तरह की गतिविधियां कराई जाती हैं। इन गतिविधियों के बहाने वे अपने बारे में सोचते हैं, एक—दूसरे से चर्चा करते हैं, चुनौतियों को पहचानते हैं और मिलकर निर्णय लेते हैं। इसके लिए उन्हें न तो कोई परीक्षा देनी पड़ती है और न ही किसी स्पर्धा में भाग लेना पड़ता है। इसमें बच्चों के मन पर थोपने जैसी भावना से बचा जाता है। दरअसल, यह शिक्षण की ‘विद्यार्थी केंद्रित’ प्रणाली है। इसमें कक्षा खुली जगह बन जाती है। इसमें शिक्षक सहयोगी की भूमिका निभाता है, जो बच्चों को अपनेआप सीखने के लिए प्रोत्साहित करता दिखता है।
शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।