ब्रह्मानंद ठाकुर
बात आज से 102 साल पहले की है। राजेन्द्र बाबू 1916 में कलकत्ता ( अब कोलकाता ) से वकालत की पढ़ाई पूरी कर वकालत करने पटना आ चुके थे। उनकी वकालत चलने लगी। समाज सुधार आंदोलन भी उस दौर में चलाया जा रहा था। एक दिन राजेन्द्र बाबू से उनके कुछ स्वजातीय मित्र एक प्रतिज्ञा पत्र के साथ मिलने आए। उस प्रतिज्ञा पत्र में इस बात का उल्लेख था कि लड़के की शादी में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से तिलक-दहेज के रूप में 51 रूपये से अधिक नहीं लिया जाए। राजेन्द्र बाबू तो पहले से ही तिलक-दहेज प्रथा के विरोधी थे। उन्होंने बड़ी खुशी से उस प्रतिज्ञा पत्र पर अपना हस्ताक्षर कर दिया। उनके बड़े भाई साहब तो इस बात के भी पक्षधर थे कि समाज में यदि कोई तिलक-दहेज लेता है या शादी में आडम्बर के नाम पर अधिक खर्च करता है तो उसकी बारात में जाना ही नहीं चाहिए।
राजेन्द्र बाबू की तीन भतीजी, एक भतीजा और खुद उनके दो लड़के थे। तीन में दो भतीजी की शाद हो चुकी थी। उसमें उन्हें काफी तिलक दहेज देना पड़ा था। छोटी भतीजी रमा और तीन लडकों का विवाह होना अभी बाकी था। लडकों की शादी में तिलक-दहेज लेना नहीं था और लड़की का विवाह बिना तिलक-दहेज का सम्भव नहीं था। सभी लड़के वाले उनकी तरह उदार तो थे नहीं। पहले तो लड़की के लायक लड़का खोजने में परेशानी। इसके बाद घर की माली हालत भी ऐसी हो जिसमें लडकी को उस घर में जाने पर कोई कष्ट न हो। राजेन्द्र बाबू कोई खास उपार्जन तो कर नहीं रहे थे और भाई महेन्द्र प्रसाद जी को मास्टरी के वेतन के रूप में जो थोड़ा-बहुत मिलता था, वह वहीं खर्च हो जाता था। घर में जो जमींदारी थी उसी से घर का खर्च किसी तरह चल पाता था। कुछ ऐसी ही परिस्थिति में भतीजी रमा का विवाह लखनऊ के विद्यादत्त जी के साथ और उनके बेटे मृत्युंजय का विवाह ब्रजकिशोर बाबू की पुत्री विद्यावती जी के साथ होना तय हुआ। मृत्युंजय के विवाह में उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा का ख्याल रखते हुए कोई तिलक-दहेज नहीं लिया। रमा की बारात बड़ी तामझाम के साथ आई। लड़के वाले बड़े प्रतिष्ठित घराने के थे लिहाजा उनकी शान बहुत अधिक थी।
राजेन्द्र बाबू नहीं चाहते थे कि किसी को कोई शिकायत हो। बारातियों के ठहरने और उसके खान-पान का इंतजाम काफी नफासत भरा था। राजेन्द्र बाबू अपनी आत्मकथा में लिखते है, ‘हमने अपने घर के तीनों लड़कों के विवाह में तिलक-दहेज नहीं लिया लेकिन तीनों लडकियों की शादी में तिलक-दहेज काफी देना पड़ा था। कहीं-कहीं तो जबर्दस्ती, इच्छा से अधिक देना पड़ा था। इस सम्बंध में हमारे अनुभव हमेशा कटु रहे हैं। भाई की लड़की की शादी जाने हुए घर में होने की बात थी, क्योंकि वर के बड़े भाई हमलोगों के साथ कलकत्ते में पढ़ते थे और लड़का भी वहीं पढता था। उम्मीद थी कि सब बातें आसानी से तय हो जाएंगी, पर पुरानी रुढ़ि जल्दी छूटती नहीं, इसलिए हमलोगों को दिक्कत तो उठानी ही पडी। ईश्वर की दया से सम्बंध अच्छा हो गया और दोनों पक्ष बहुत संतुष्ट हैं। सब कुछ होने पर भी घर में रुपये तो थे नहीं अन्न तो खेतों में पैदा होता था, इसलिए उसकी बहुत चिंता नहीं थी, पर नकद खर्च के लिए हम दोनों भाइयों को कर्ज लेना पडा।’
राजेन्द्र बाबू आगे लिखते हैं, ‘लडकी को रुपये देना पिता का धर्म हो सकता है। पर हमारे समाज में पिता के अपने दिल से और प्रेम से देने की बात नहीं रहती है। शादी से पहले ही बातचीत कर तय कर लिया जाता है कि तिलक में इतना देना होगा और बारात जाने पर इतना दहेज देना होगा। यह प्रथा हजार कोशिश करने पर भी अभी तक जारी है। सभी जातीय सभाओं में प्रस्ताव पारित होते हैं कि इसे उठा देना चाहिए, पर घटने की जगह यह प्रथा बढ़ती ही जा रही है। जिन जातियों में यह प्रथा नहीं थी, उनमें भी प्रचलित होती जा रही है। जिनमें पहले से चल रही थी, उनमें तो अब काफी बढ़ गई है।’ देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की जयंती पर उनकी आत्मकथा से साभार
ब्रह्मानंद ठाकुर। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।