पिछले 6 महीने में देश का अन्नदाता तीसरी बार लोकतंत्र के मंदिर पर मत्था टेकने आ चुका है । कभी उसका स्वागत लाठियों से हुआ तो कभी गालियों से । कोई किसानों को फर्जी करार देता है तो कोई किसानों के गुस्से का सियासी फायदा उठाना चाहता है, लेकिन इन सबके बीच सबसे बड़ी बात ये है कि हमारे देश का मीडिया जिसे निष्पक्ष होना चाहिए वो किसानों के मुद्दे को लेकर काफी सुस्त हो जाता है । मीडिया में किसानों की ख़बरें प्रमुखता से तभी चलती है जब या तो किसान पिटता है या किसान मिटता है । लेकिन जब वो अपनी वाजिब मांगों को लेकर संसद की दहलीज पर आता है तो जाम का कारण बता कर दिखाया जाता है । 30 नवंबर को एक बार फिर जब 200 से ज्यादा किसान संगठन एकजुट होकर दिल्ली आए तो टीवी चैनल्स पर किसानों के मुद्दे की जगह किसान रैली में सियासी दलों के जमावड़े पर बहस होने लगी । हालांकि सोशल मीडिया पर युवा खुलकर किसानों के साथ खड़े नजर आए । ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर किसानों के मुद्दे पर हमारा मीडिया कब संजीदा होगा । अन्नदाता के मसले पर मीडिया रिपोर्टिंग को लेकर कुछ वरिष्ठ पत्रकारों की टिप्पणी बदलाव पर पढ़िए ।
किसानों की रैली में जाकर कल एक और बात देखी! टीवी चैनलों, सोशल मीडिया, खासकर ह्वाट्सएप आदि के एक हिस्से का हाल देखकर कभी-कभी लगता था कि युवाओं के बीच जनविरोधी, कारपोरेट-पक्षी, सांप्रदायिक और मनुवादी तत्वों ने काफी जगह बना ली है। पर दो दिनों के किसान मार्च में छात्र-युवाओं की जैसी शानदार हिस्सेदारी और आम जन के लिए तरफदारी दिखी, वह कई मामलों में बेमिसाल है। मेरा यह यकीन फिर मजबूत हुआ है कि शासक समूह, कारपोरेट और उसके द्वारा प्रचारित-प्रसारित अपसंस्कृति को मौजूदा संचार माध्यम, खासकर टीवी चैनल्स चाहे जितना कवरेज दें, हमारे सर्वाधिक प्रतिभाशाली, समर्थ, आदर्शवादी और स्वप्नदर्शी छात्र-युवा भारत की आम जनता के साथ खड़े हैं। वे जनता के पक्ष में बदलाव की बड़ी लड़ाई में शामिल रहेंगे! वे झुकने वाले नहीं हैं!
सैंया तो खूब ही कमात हैं, महंगाई डायन खाय जात है। पीपली लाइव का यह गाना साल 2010 और 2011 में न्यूज़ चैनलों पर अखंड हरि कीर्तन की तरह चला था। यह गाना अपनी जगह है। महंगाई पर मैंने खुद ना जाने कितने पैरोडी गाने लिखे कंपोज करवाये और अपने चैनल पर चलवाये। इस दौर की कई कहानियों में एक कहानी कॉमनवेल्थ गेम्स की भी है। मेरे संपादक ने मुझे बुलाकर कहा कि जब तक गेम चल रहा है, मैं रोजाना एक कार्यक्रम करना चाहता हूं, बताओ क्या करोगे। मैंने जवाब दिया कि मुझे कॉमनवेल्थ करप्शन के अलावा कुछ और नहीं सूझ रहा है। वे हंसने लगे और बोले–ठीक है, वही करो। मैंने एक सीरीज़ बनाई– बुरा ना मानो कॉमनवेल्थ है। जिस दिन गेम्स की भव्य ओपनिंग सेरेमनी थी, उसी दिन करप्शन के इल्जामों का पिटारा लेकर सरकार को मुंह चिढ़ाता वह कार्यक्रम शुरू हुआ। तब किसी ने यह नहीं कहा कि भारत का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है, तुम लोग देश का नाम खराब क्यों कर रहे हो।
मुख्य धारा की पत्रकारिता से अलग होने के बाद मैंने न्यूज़ चैनल देखने बंद कर दिये हैं। लेकिन सोशल मीडिया से लगातार जो खबरें आती हैं, उनसे काफी दर्द होता है। शनिवार सुबह से लगातार यह सुनता रहा कि दिल्ली में चल रहे किसानों के आंदोलन को ज्यादातर न्यूज़ चैनल कवर नहीं कर रहे हैं।
न्यूज़ रूम अब काफी बदल गये हैं। लेकिन अब भी बहुत से लोग ऐसे होंगे जिन्होने बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे तक रामलीला मैदान में हुई हर हलचल को रात-दिन लाइव कवर होते देखा है। मीडिया संस्थान जब खबर चलाने के बदले रोकने का औजार बन जायें तो बिना किसी शक के यह मान लेना चाहिए कि लोकतंत्र गंभीर खतरे में है। बोफोर्स के दौर में शानदार पत्रकारिता करने वाले धुरंधर संपादक अरुण शौरी ने एक मार्के की बात कही है। उनका कहना है कि मीडिया अगर चुप हो जाये तो उसका कारण या तो भय होता है, या प्रलोभन। मुझे लगता है कि इस समय भय से ज्यादा प्रलोभन काम कर रहा है। अगर संस्थान खबर चलाने पर आमादा हो जायें तो भला कौन और कब तक रोक लेगा? अरुण शौरी की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं।
आज जो लोग ख़बरें दबाये जाने को लेकर नाच रहे हैं, वे भूल जाते हैं कि दुनिया की मजबूत से मजबूत सत्ता स्थायी नहीं होती है। अगर मौजूदा सरकार मीडिया को पालतू बना सकती है तो आनेवाली सरकारें भी बना सकती हैं। नतीजा यह होगा कि इस देश के नागरिकों तक वे बातें कभी नहीं पहुंचेंगी जो कुछ जानना उनका बुनियादी हक है। आजकल सारा फोकस न्यूज़ चैनलों पर है। जब हम मीडिया की बात करते हैं तो इसे संपूर्णता में देखा जाना चाहिए। हिंदी अखबारों की हालत और ज्यादा खराब है। मीडिया के दमन और उसके हथियार डालने की प्रवृति का समर्थन करने का मतलब है, अपने ही शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता की हत्या करना। जब इम्यून सिस्टम ही नहीं रहेगा तो फिर मृत्यु अवश्यंभावी है।