मुसाफिर हूं यारो के तहत बदलाव ने वरिष्ठ पत्रकारों और सृजनशील लोगों से बातचीत का एक सिलसिला शुरू किया है। इस कड़ी में आज आप सभी से रूबरू होंगे वरिष्ठ पत्रकार आलोक श्रीवास्तव। अहा ! जिंदगी के पूर्व संपादक और संवाद प्रकाशन के सूत्रधार वरिष्ठ पत्रकार आलोक श्रीवास्तव एक सहज इंसान हैं। आलोक श्रीवास्तव आईआईएमसी के 1988-89 बैच के पासआउट हैं। वहां से निकलने के बाद उन्होंने लगभग एक वर्ष अमर उजाला के मेरठ संस्करण में काम किया। फिर फरवरी 1990 में बतौर उपसंपादक धर्मयुग गये। धर्मयुग में छह वर्ष तक काम किया। धर्मयुग बंद होने के बाद नवभारत टाइम्स के मुंबई संस्करण में रहे। आपने हिंदी पाठकों को अहा! ज़िंदगी पत्रिका के संपादक के बतौर एक उम्दा पठनीय सामग्री उपलब्ध कराई।
आलोक हिंदी के युवा कवियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। कथादेश में आठ वर्षों तक छपा उनका स्तंभ अखबारनामा एक बहुपठित स्तंभ था, जो बाद में अखबारनामा : पत्रकारिता का साम्राज्यवादी चेहरा (2004) के रूप में पुस्तकाकार छप कर भी काफी पढ़ा और सराहा गया। आपकी इस पुस्तक पर जेएनयू में लघु शोध भी हो चुका है।
1996 में पहला कविता संग्रह – वेरा, उन सपनों की कथा कहो । फिर जब भी वसंत के फूल खिलेंगे (2004), यह धरती हमारा ही स्वप्न है! (2006), दिखना तुम सांझ तारे को (2010), दुख का देश और बुद्ध (2010)।
मुसाफिर हूं यारों कार्यक्रम में इससे पहले वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश और कुमार नरेंद्र सिंह शिरकत कर चुके हैं।