हिक्की, हरीश चंद्र मुखर्जी और कोलकाता की पत्रकारिता

हिक्की, हरीश चंद्र मुखर्जी और कोलकाता की पत्रकारिता

पुष्यमित्र

इस साल पत्रकार और मित्र विनय तरुण की याद में आयोजित समारोह में भाग लेने के लिए हमलोग 24 जून को कोलकाता में जुट रहे हैं। विषय है, ‘अतिवाद के दौर में पत्रकारिता और गांधीवाद’। मगर जब कोलकाता और पत्रकारिता की बात होती है तो मुझे दो लोग याद आते हैं। पहले जेम्स अगस्टस हिक्की और दूसरे हरीश चंद्र मुखर्जी। हिक्की वे सज्जन हैं, जिन्होंने इसी कोलकाता शहर से इस देश में पत्रकारिता की शुरुआत की थी और देश के पहले अखबार हिक्कीज बंगाल गजट का प्रकाशन किया था। हममें से ज्यादातर लोग इस नाम से परिचित हैं, हालांकि यह बात बहुत कम लोगों को मालूम है कि हिक्की की पत्रकारिता किसी टिपिकल जुनूनी स्टार रिपोर्टर से कम नहीं थी और उस जमाने में, देश के पहले अखबार का प्रकाशन करते हुए ही वे देश के सबसे बड़े शासक वारेन हेस्टिंग्स से टकराये और जेल गये। वे जेल से भी पत्रकारिता करते रहे। बाद में कानूनी पचड़े में फंसा कर उनका अखबार ही बंद करा दिया गया।

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हरीश चंद्र मुखर्जी के बारे में तो हममें से ज्यादातर लोगों को कुछ भी नहीं मालूम होगा। अधिकांश लोगों ने तो उनका नाम भी पहली दफा सुना होगा। मगर बंगाल के नील बिप्लव और वहां से नील की खेती को उखाड़ फेंकने में उनकी जो भूमिका है वह अविस्मरणीय है। जिस तरह हिंदी पत्रकारिता में गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम अमर है, बंगाल में एक जमाने में हरीश चंद्र मुखर्जी की पत्रकारिता की उससे भी अधिक ख्याति थी। उनके नाम से गीत बने थे और गाये जाते थे। उनके अखबार को भी बंद करने की अंगरेजों ने कोशिश की थी और आखिरकार अंगरेजों के अत्याचार की वजह से उनका असमय निधन भी हो गया।

दोनों पत्रकारों का जिक्र मैं इसलिए भी करना चाहता हूं, ताकि यह बता सकूं कि पत्रकार हर दौर में सत्ता से टकराते रहे हैं और सत्ता उन्हें खारिज और खत्म करने की इसी तरह की कोशिशें करती रही है, जैसी आज कर रही है। ऐसा नहीं था कि इन दोनों को इसलिए परेशान किया गया कि उस वक्त अंगरेजों का शासन था। वजह सिर्फ इतनी थी कि ये दोनों सत्ता के खिलाफ आवाम की आवाज बन कर खड़े हो गये थे। यह माना जा सकता है कि हरीश चंद्र मुखर्जी अंगरेज नहीं थे, मगर हिक्की, जो इंग्लैंड के ही रहने वाले थे, उन्हें भी खत्म करने के लिए वारेन हेस्टिंग्स ने वह सब किया जो एक सत्ताधारी व्यक्ति किसी स्वतंत्र आवाज को बंद करने के लिए करता है।

पहले हिक्की की कहानी

इतिहास के पन्नों में जेम्स अगस्ट्स हिक्की का नाम पापा ऑफ इंडियन जर्नलिज्म के रूप में दर्ज है। हिक्की ने 1780 में इस देश के पहले अखबार हिक्कीज बंगाल गजट का प्रकाशन शुरू किया था। हिक्की आयरलैंड के रहने वाले थे, इन्होंने डॉक्टरी सीखी थी, मगर व्यवसाय शुरू किया शिपिंग का। इस शिपिंग के व्यवसाय में इनका नुकसान हो गया और इन्हें जेल जाना पड़ा। जेल से बाहर आये तो इन्हें याद आया कि इन्होंने लंदन में प्रिंटिग में एप्रेंटिस किया है तो इन्होंने प्रेस खोल लिया और ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए स्टेशनरी और दस्तावेज छापने लगे। मगर कंपनी इनके काम का पेमेंट करने में लेटलतीफी करती और एक वक्त आया जब कंपनी पर इनका 43 हजार से अधिक का बकाया हो गया, जो उस जमाने में काफी बड़ी रकम थी। इन्हीं परिस्थितियों में हिक्की ने तय किया कि उन्हें अपना अखबार शुरू करना चाहिए, क्योंकि सरकारी काम में हमेशा पैसा फंस जाता है।

बंगाल गजट की शुरुआत उन्होंने पूर्णतः व्यावसायिक अखबार के रूप में किया था। यह वीकली था। इसका टैग लाइन था- ओपन टू ऑल बट इंन्फ्लुएंश बाई नन। यानी यह सबके लिए खुला है, मगर किसी से प्रभावित नहीं है। अब सोचिए कि देश के पहले अखबार ने ही तय कर लिया था कि यह किसी से प्रभावित नहीं होगा। जैसा कि पहले ही लिख चुका हूं कि यह कोई मिशनरी अखबार नहीं था, पूर्णतः व्यावसायिक लाभ के लिए शुरू किया गया था। इसमें शहर की सूचनाएं होती थीं, पावर सर्किल के गॉशिप होते थे, स्कैंडल तक की रिपोर्ट रहती थी। मगर अगर कोलकाता के आस-पास कहीं भारतीयों की बस्ती में आग लग जाती थी तो उसकी रिपोर्ट भी पूरी मानवता के साथ प्रकाशित करते थे। ग्वालियर में किसी अंगरेज अधिकारी के साथ कोई स्वाभिमानी भारतीय टकरा जाता था तो वे उसके अनुभवों को भी जगह देते थे। एक जगह तो मैंने पढ़ा है कि वे उस वक्त चल रहे पहाड़िया विद्रोह के कवरेज के लिए झारखंड के साहिबगंज भी आया करते थे और ग्राउंड डिस्पैच प्रकाशित करते थे, पूरी तटस्थता के साथ।

वारेन हेस्टिंग्स को, जो उस वक्त ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन तंत्र के प्रमुख थे। इस तरह के एक स्वतंत्र आवाज का होना अखरने लगा। उन्होंने इंडिया गजट के नाम से एक दूसरे अखबार का प्रकाशन शुरू कराया जो एक तरह से सत्ता का माउथ पीस था। हेस्टिंग्स ने हिक्की गजट को पोस्ट के जरिये बाहर भेजे जाने का लाइसेंस नहीं दिया तो हिक्की ने एक तरकीब निकाली और साइकिल वाले दस लड़के रख लिये जो घर-घर अखबार पहुंचाने लगे। तो इस तरह पहले अखबार के साथ हॉकर की व्यवस्था शुरू कराने का श्रेय भी हिक्की को ही जाता है। वैसे भी हिक्की का गजट कोलकाता के समाज में इतना लोकप्रिय हो गया था कि लोग अपने परिचितों और संबंधियों को पत्र लिखते तो साथ में हिक्की गजट की एक प्रति भी भेज देते ताकि उन्हें कोलकाता की खबरें मिल जायें।

असली मुसीबत तब शुरू हुई जब हिक्की ने वारेन हेस्टिंग्स और उनकी दूसरी पत्नी के स्कैंडल्स का प्रकाशन शुरू किया। साथ ही उन्होंने प्रिंस नंद कुमार के मामले को भी प्रकाशित किया, जो कोलकाता के दीवान थे और जिनकी संपत्ति को हड़पने के लिए वारेन हेस्टिंग्स ने उन्हें झूठे मुकदमे में फंसा कर फांसी दे दी। बाद में इस मामले को लेकर इंग्लैंड में हेस्टिंग्स पर लंबा मुकदमा भी चला। बहरहाल इस तरह की खबरों से हेस्टिंग्स तिलमिला गया और उसने अपने मित्र चीफ जस्टिस की मदद से हिक्की को मानहानि के जुर्म में जेल भिजवा दिया। वे उनका प्रेस बंद नहीं करा पाये।तब भी हिक्की जेल से ही अपने अखबार के लिए लिखते रहे। जब हिक्की को सजा हुई तो उन पर जुर्माना भी हुआ। हिक्की जुर्माने की रकम चुका नहीं पाये। कोर्ट द्वारा जुर्माने की वसूली के एवज में उनके प्रेस की कुर्की जब्ती की गयी और इस तरह 29 जनवरी, 1780 को शुरू हुआ यह पहला और हंगामेदार अखबार महज दो साल बाद 23 मार्च, 1782 को छपना बंद हो गया।

हिक्की 1784 में जेल से रिहा हुए और फिर भारत छोड़कर चले गये। अत्यंत गरीबी की स्थिति में 1802 ईस्वी में उनकी मौत हुई। कहते हैं, इससे पहले एक बार उन्होंने हेस्टिंग्स से माफी मांग कर नये सिरे से जीवन जीने की कोशिश भी की मगर सफल नहीं हो पाये और इस तरह भारत के पहले अखबार, पहले पत्रकार और पहले संपादक का दुःखद अंत हुआ।

हिंदू पेट्रियाट अखबार के पत्रकार, संपादक और मालिक की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। यह कहानी हरीश चंद्र मुखर्जी की है। उनकी कहानी बंगाल के नील बिप्लव से जुड़ती है, जो 1858 में हुआ था। जब बंगाल के किसानों ने वहां से नील की खेती को हमेशा के लिए खत्म करा लिया था। हम चंपारण के नील किसानों की दास्तान तो जानते हैं मगर बंगाल के नील बिप्लव के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है। दरअसल अंग्रेजों द्वारा संगठित रूप से नील की खेती की शुरुआत सबसे पहले बंगाल के नदिया और आसपास के जिलों में की गयी थी। अठारहवीं सदी के आखिर में धीरे-धीरे वहां के किसानों को समझ आने लगा कि नील की खेती से बरबादी के सिवा कुछ हासिल नहीं होने वाला।

बंगाल के नील किसानों की समस्याओं और उनके दुःख-दर्द को सामने लाने में पत्रकार हरीश चंद्र मुखर्जी की बड़ी भूमिका रही है। उन्होंने यह काम अपने अखबार द हिंदू पेट्रियाट अखबार के जरिये किया। उन्होंने लगातार बंगाल के नील किसानों की व्यथा और शोषण की कहानियां प्रकाशित कीं। उनके रिपोर्ट्स से नील प्लांटर्स इतने परेशान हुए कि उन्होंने हिंदू पेट्रियाट अखबार को मुकदमे में फंसाने की कोशिश शुरू कर दी। मगर अच्छी बात यह थी कि हिंदू पेट्रियाट अखबार ब्रिटिश टेरिटरी से बाहर भवानीपुर के इलाके से प्रकाशित होता था, इसलिए वे अखबार का प्रकाशन बंद नहीं कर पाये। मगर उन्होंने हरीशचंद्र मुखोपाध्याय को कई तरह से प्रताड़ित किया। नतीजा यह हुआ कि महज 37 साल की उम्र में उनकी मौत हो गयी। इतना ही नहीं उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी को भी मुकदमें में उलझाये रखा गया। मगर हरीशचंद्र मुखोपाध्याय के प्रयास इतने कारगर रहे कि ब्रिटिश सरकार को नील आयोग का गठन करना ही पड़ा।

जिस तरह हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम अमर है, उसी तरह बंगाल की पत्रकारिता में हरीशचंद्र मुखोपाध्याय की कीर्ति आज भी है। उस जमाने में बंगाल में उनके नाम के गीत गाये जाते थे. हिंदू पेट्रियाट की पत्रकारिता के जरिये उन्होंने जो बदलाव की बुनियाद रखी, वह अविस्मरणीय है। एक संवाददाता के रूप में 1953 में उन्होंने इस अखबार में नौकरी की थी, मगर महज दो साल में वे अखबार के प्रधान संपादक बन गये और फिर मालिक भी।उसी दौर में 1857 का विद्रोह हुआ, उन्होंने अपने अखबार में इसकी रिपोर्टिंग भी की और 1858 के नील बिप्लव की रिपोर्टिंग के लिए तो उनका नाम अमर ही हो गया।

जब हम कोलकाता के इन दो पत्रकारों के बारे में पढ़ते हैं और इनके संघर्ष को समझते हैं तो आज के संघर्ष बौने लगते हैं। हालांकि यह दौर थोड़ा अलग है। आज पत्रकार और पत्रकारिता सिर्फ सत्ता के हमलों को नहीं झेल रही, बल्कि सत्ता समर्थकों की हूटिंग-ट्रोलिंग और गाली-गलौज का भी सामना कर रही है। मगर फिर भी जब ऐसे पत्रकारों की कहानी आप पढ़ेंगे तो इस विपरीत परिस्थितियों से जूझने की ताकत मिलेगी।


PUSHYA PROFILE-1पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।

2 thoughts on “हिक्की, हरीश चंद्र मुखर्जी और कोलकाता की पत्रकारिता

  1. पूरा आर्टिकल पढ़ा मैंने बेहद महत्वपूर्ण लगा | आपसे एक गुजारिश है की कोई पुस्तक हिंदी या अंग्रेजी में हरीश चन्द्र मुखोपाध्य पर हो तो जरूर बताएं, आपकी शुक्रगुजार रहूंगी | पत्रकारिता से सम्बंधित किताबों की जानकारी थोड़ी कम है मेरी | पुष्यमित्र जी की किताब ‘जब नील का दाग मिटा चम्पारण १९१७’ मैंने पढ़ी किताब बहुत रोचक तरीके से लिखी गयी है एक बार फिर से याद दिलाना चाहूंगी की हरीश चन्द्र मुखोपाध्य पर कोई किताब हो तो जरुर सुझाएँ | शुक्रिया

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