पशुपति शर्मा
संपादक का कक्ष और एक युवक। किसी मुद्दे पर बातचीत के दौरान तनातनी। युवक अपनी बात पर अड़ गया और संपादक महोदय को खरी-खरी सुना घर लौट आया- तथ्यों को परखने के बाद ही बात करने का चैलेंज देकर। 24 घंटों के भीतर उसी संपादक महोदय ने फोन किया और नौकरी का ऑफर दे डाला। बेरोजगार युवक के लिए भला इससे बेहतर और क्या हो सकता था? कुछ ऐसे ही हादसे के साथ पत्रकारिता में एंट्री की कुमार नरेंद्र सिंह ने। राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय पेज की जिम्मेदारी मिलने का ये किस्सा उन्होंने बदलाव के कार्यक्रम मुसाफिर हूं यारों के दौरान साझा किया।
बदलाव ने वरिष्ठ पत्रकारों के साथ अनौपचारिक बातचीत का एक सिलसिला शुरू किया है। उर्मिलेश के बाद दूसरे मेहमान थे कुमार नरेंद्र सिंह। उन्होंने बताया कि छपे हुए शब्दों की गरिमा मन में काफी पहले से ही थी। जेएनयू में पढ़ाई के दौरान एक साथी ने कहा कि जो कहते हैं, कभी लिख भी दिया करें। बात जंची और आप ने यूगोस्लोवाकिया के सामाजिक ताने-बाने और संघर्षों पर एक लेख लिखा- सर उठाती अस्मिताएं। नवभारत टाइम्स में बिना किसी परिचय के एक पत्र भेजा और पहला ही आलेख संपादकीय पेज पर आ गया। लेख छपा तो कुमार नरेंद्र सिंह को लगा उस दिन के राजा तो वहीं हैं।
‘बदलेगा गांव बदलेगा देश’ इस थीम के साथ बदलाव पिछले तीन सालों से छोटे-छोटे प्रयास कर रहा है। इन प्रयासों में पहला मकसद संवाद का ही है। विचार के स्तर पर बीजारोपण का ही है। इस मूल भाव को समझते हुए कुमार नरेंद्र सिंह ने ग्रामीण भारत और पत्रकारिता को लेकर चंद टिप्पणियां कीं। उन्होंने कहा कि देश में 5 लाख गांव हैं और बमुश्किल हज़ार, 2 हज़ार शहर। हम लाख कोशिशें कर लें, जब तक गांव नहीं सुधरेंगे, शहर नहीं सुधर सकते।
कुमार नरेंद्र सिंह ने मीडिया संस्थानों से कृषि कॉरेसपोंडेंट के गायब हो जाने को लेकर अपनी चिंता जाहिर की। उन्होंने बताया कि एक वक्त वो भी था जब हर अखबार में कृषि कॉरेसपोंडेंट हुआ करते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। पी साईंनाथ जैसे इक्का-दुक्का पत्रकारों के दम पर गांव, किसानों की कवरेज नहीं हो सकती। मीडिया में गांव तब नजर आता है, जब वहां कोई अनर्थ हो जाए। हत्या, बलात्कार और हंगामे जैसी नकारात्मक खबरों पर ही मीडिया की नज़रें गांवों की ओर मुड़ती हैं। पत्रकार गांव की गलियों और पगडंडियों से बचने लगे हैं, जो बेहद दुखद है। अफसोस इस बात का भी है कि कृषि मंत्रालय जिन्हें बीट के तौर पर मिलता है, उनमें से ज्यादातर पत्रकार रोते रहते हैं। धान, जौ और गेहूं की बालियों में फर्क न करने वाले पत्रकार कृषि पर रिपोर्टिंग करते हैं। इन टिप्पणियों के बीच आत्म-निरीक्षण में मानो वहां मौजूद पत्रकार साथी भी पासिंग मार्क्स जुटा पाने की हालत में नहीं थे। कम से कम मैं तो नहीं ही था।
कुमार नरेंद्र सिंह की नज़रों में गांवों से पलायन एक बड़ी चिंता का सबब होना चाहिए, लेकिन इस पर बात नहीं हो रही। उन्होंने बताया कि गांवों के 80 फ़ीसदी घरों में ताले लग गए हैं। गांवों में स्त्रियां, छोटे बच्चे और बुजुर्ग ही मिलते हैं। उधर, महानगरों के बाशिंदों गांवों से आने वाले इन लोगों को समस्या के तौर पर देखते हैं। जब तक ग्रामीण भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के संतोषप्रद इंतजाम नहीं होंगे, पलायन के दर्द की ये तस्वीर भी नहीं बदल पाएगी। 5 लाख गांवों को बर्बाद कर शहर आबाद नहीं हो सकेंगे।
इस छोटी सी गोष्ठी का संचालन जूली जयश्री ने किया। गौतम मयंक, सुनील यादव, सत्येंद्र, अनिल, अरुण, भूपेंद्र चौधरी और कुबेर नाथ ने अपने सवालों से कुमार नरेंद्र सिंह को कुरेदा और कई बातें सामने आईं।
पशुपति शर्मा ।बिहार के पूर्णिया जिले के निवासी हैं। नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से संचार की पढ़ाई। जेएनयू दिल्ली से हिंदी में एमए और एमफिल। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। उनसे 8826972867 पर संपर्क किया जा सकता है।