नेतरहाट एक ऐसा विद्यालय जहां से IAS और IPS समेत ढेरों अफसर निकलते हैं, कभी ये विद्यालय बिहार का मान बढ़ाया करता था, लेकिन झारखंड राज्य बनने के बाद ये बिहार से छिन गया। लिहाजा, बिहार को ऐसे विद्यालय की कमी महसूस होने लगी। बिहार के बंटवारे के करीब 8 साल बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ‘नेतरहाट’ के विकल्प के रूप में 2010 मे सिमुलतला आवासीय विद्यालय की स्थापना की थी। जिससे लोगों में बिहार की बदहाल शिक्षा व्यवस्था की खोई पहचान मिलने की आस जगी। नीतीश कुमार ने उस दौरान कहा था कि आज उनका एक और सपना साकार हो रहा है जिसमें बिहार के गरीब और मेधावी छात्रों की प्रतिभा निखर सकेगी, लेकिन सीएम का ये सपना शिक्षा विभाग की उपेक्षा और लापरवाही का शिकार हो गया।
सिमुलतला विद्यालय की स्थापना के करीब 8 साल बाद भी खुद मुख्यमंत्री इसकी सुध नहीं ले रहे। बदहाल इंतजामों के बाबजूद जब-जब वहां के शिक्षकों व छात्रों ने जब-जब चमत्कारी परिणाम दिये, तब-तब पूरे गाजे-बाजे के साथ सरकार व शिक्षा विभाग के अफसरों ने अपनी-अपनी पीठ थपथपाने में देरी नहीं की। फिर भी किसी को ये याद नहीं आया कि यहां और बेहतर इंतजाम किये जाएं। सात वर्षों से अनवरत यह सिलसिला जारी है, किंतु कभी उन्होंने वहां की व्यवस्था सुधारने की जहमत नहीं उठाई।
इसकी बदहाली के कई कारण हैं, लेकिन सबसे बड़ी वजह है शिक्षकों के भविष्य की अनिश्चितता। यह कितना बड़ा मजाक है कि बिहार के भविष्य निर्माता शिक्षकों के भविष्य का ही कोई अता-पता नहीं है। सात साल बीत जाने के बाद भी उन्हें अभी तक न तो सरकारी सेवाशर्तों का फायदा मिला, न सरकारी वेतनमान। विद्यालय की लुंज-पुंज प्रशासनिक व्यवस्था, अध्यापकों में गहरी निराशा, चरमराई मेस व्यवस्था, जिसके कारण छात्र भी आंदोलन करने को मजबूर हैं। ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो नीतीश कुमार के सपने को पूरा होने से रोक रहे हैं।
अब तो हालात ये हो गए हैं कि अभिभावकों का रुझान भी इस विद्यालय के प्रति कम होने लगा है। विद्यालय की स्थापना के वक्त साल 2010 में दाखिले के लिए 30 हजार से ज्यादा आवेदन आए थे, लेकिन 7 साल बाद ये आंकड़ा घटकर 5 हजार तक पहुंच गया है। शायद यही कारण है कि नामांकन होने के चंद दिनों के अंदर ही लगभग आधा दर्जन अभिभावकों ने अपने बच्चों को निकाल लिया। विद्यालय प्रशासन इसके लिए जो भी तर्क दे, किंतु इसके मूल में विद्यालय की चरमराई आंतरिक व्यवस्था है जो सरकार की घोर उपेक्षा से उत्पन्न हुई है।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर क्या कारण है कि वहां के शिक्षकों को अभी तक वेतनमान नहीं मिल सका। लगभग आधा दर्जन शिक्षक विद्यालय छोड़ चुके हैं और जो बचे हैं, वे आधे-अधूरे मन से अध्यापन कार्य करते हुए विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, ताकि उनका भविष्य सँवर सके। जिन शिक्षकों को उनके सुनहरे भविष्य का सपना दिखलाकर यहां लाया गया, वे अपने-अपने भाग्य को कोस रहे हैं।
कहते हैं संस्थापक प्राचार्य डा. शंकर कुमार ने इस विद्यालय के प्रति सरकार की उदासीनता के कारण ही प्रथम वर्ष में ही त्यागपत्र दे दिया और चले गए। उनका कार्यकाल इस विद्यालय का स्वर्णकाल कहा जाता है। आधे अधूरे मन से किया गया कोई भी कार्य कितना सार्थक हो सकता है। यह बतलाने की जरूरत नहीं। लगता है कि इस विद्यालय की स्थापना ही आधे अधूरे मन से की गई।
एक विडंबना यह भी है कि अभी तक इस विद्यालय की जमीन का भी संपूर्ण अधिग्रहण नहीं हो पाया और न ही अपना भवन बन पाया। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि एक तरफ तो सरकार ने सामान्य सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को वेतनमान तो दे दिया, लेकिन नेतरहाट की तर्ज पर स्थापित इस विद्यालय के शिक्षक अभी तक वेतनमान की बाट जोह रहे हैं। इन सारी स्थितियों का प्रभाव विद्यालय के पठन-पाठन पर पड़ना लाजिमी है क्योंकि अनिश्चितता के बवंडर में फंसे शिक्षकों से संपूर्ण समर्पण की अपेक्षा रेत से तेल निकालने जैसा है। इन्हीं कारणों से इसकी लोकप्रियता और गुणात्मकता हर दिन गिर रही है। सवाल ये है कि जब नीतीश कुमार अपने ही इस ड्रीम प्रोजेक्ट के प्रति इतने उदासीन हैं तो फिर गरीब और मजदूरों के बच्चे किससे उम्मीद करें?