मुजफ्फरपुर जिले में औराई प्रखंड का बेनीपुर गांव। आज से 119 साल पहले 23 दिसम्बर 1899 को इसी गांव में पैदा हुआ एक कलम का जादूगर जो रामवृक्ष बेनीपुरी के नाम प्रसिद्ध हुआ। बागमती की कलकल धारा की गोद में बसा ये गांव बाढ़ से जूझते, लडते-भिड़ते एक सदी काट दी । मुश्किल हालात में भी गांव के लोगों का अदम्य साहस देख बेनीपुरी जी ने एक कहानी लिखी थी- जिसका नाम था ‘बाढ़ का बेटा।‘ यह बाढ़ का बेटा, बाढ के अभिशाप को वरदान बना कर जीना सीख चुका था। बाढ़ के दिनों मे बेघर होने का दुख था तो वहां की माटी से सोना पैदा करने का सुख भी कम नहीं था। बाढ़ का पानी उतरते ही बागमती की गाद से धान की फसल झूमने लगती थी। आज अब गाद नहीं रहा, सर्वत्र बालू ही बालू बिखरा है। धान, गेहूं की जगह कास और गुरहन के जंगल नजर आने लगे हैं। बेनीपुरी जी अब नहीं रहे। उनका विपुल साहित्य भंडार भी धीरे-धीरे पाठकों की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। फिर उनके पुत्र डाक्टर महेन्द्र बेनीपुरी ने उनकी तमाम कृतियों का पुनर्प्रकाशन करा कर उसे पाठकों के लिए सुलभ कराया। पिछले साल उनका भी देहांत हो गया। लिहाजा अब गांव की सूरत और दयनीय हो गई है । बागमती परियोजना से विस्थापित बेनीपुर के लोगों को सरकार ने कठ्ठा, दो कठ्ठा जमीन देकर बसाया है। बेनीपुरी जी के स्मारक के नाम पर बिहार सरकार ने एक एकड़ 14 डिसमिल जमीन दी है। अबतक जमीन खाली है। उसमें खेती होती है। इसी स्थल पर एक छोटा पंडाल बनाकर कार्यक्रम आयोजित था क्योंकि बागमती नदी को पार कर बेनीपुरी जी के आवास पर जाने की सुविधा नहीं है।
सरहंचिया गांव से ही बागमती परियोजना का ऊंचा तटबंध दिखाई देता है। तटबंध पर कुछ जेसीबी और ट्रैक्टर से मिट्टी भरने का काम चल रहा है। गांव वाले इसे योजना बांध कहते हैं। जिसका मतलब है बागमती परियोजना तटबंध। इसी तटबंध के कारण यहां एक दर्जन से ज्यादा गांवों पर सामत आई। तटबंध बनने के साथ ही बागमती ने अपनी धारा बदल ली। आज उसका बहाव तटबंध के ठीक बगल से हो रहा है। बेनीपुर से धनौर गांव तक नदी तटबंध से सटती हुई प्रवहमान है। पुरानी धारा में बालू भर गया है। फिर भी जब बाढ आती है तो जनाढ से कटरा के बीच का चहुंटा, महुआरा, फत्तेपुर, बेनीपुर, बेरौना, सिमरी भरथुआ आदि गांव चारों तरफ से पानी से घिर जाते हैं। इस इलाके के करीब 50 हजार हेक्टेयर उपजाऊ भूमि बंजर हो गई है। सर्वत्र कास, गुरहन और अन्य मौसमी जंगल ही जंगल दिखाई देते हैं।
बेनीपुर गांव का कुल रकवा 750 एकड़ है। कभी यहां सौ से ज्यादा घर आवाद थे। आज इस गाव में कुल 20-22 घर बचे हैं। आनन्द दास , शिव बालक सहनी ,शुकेश्वर दास, राजेन्द्र सिंह, अवधेश सिंह, रणजीत सिंह शिवजी मंडल जैसे कुछ परिवारो को आज भी इस उजडे गांव से मोह नहीं टूटा है। अधिकांश परिवार गांव से विस्थापित होकर वसंत चौर मे बस गये है। ठीक तटबंध की बगल में। यहां घर के अलावे इनके पास कोई जमीन नहीं है। इस जगह का नाम दिया है – नया बेनीपुर। खेती-बाड़ी पुराने बेनीपुर में बागमती की धारा के उत्तरी किनारे है। जहां प्रतिदिन इनका नाव से आना- जाना होता है। आवागमन का दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। इसका दुष्प्रभाव खेती – किसानी पर पडता है। किसान कृषि उपकरण वहां नहीं ले जा सकते। कुछ उत्साही किसान किसी तरह जब खेती करते हैं तो नील गाय और बनैला सूअर उसे नष्ट कर देता है। राजेन्द्र सिंह बताते हैं कि फसलों को तो ये जंगली जानवर नष्ट करते ही है, ग्रामीणों पर भी अक्सर बनैला सूअर हमला कर देता है। कल ही गांव का एक युवक अजित कुमार बनैला सूअर के हमले मे गम्भीर रूप से घायल हो गया जिसे इलाज के लिएअस्पताल ले जाया गया है।वसंत के जियालाल सहनी के पुत्र भी बनैला सूअर के हमले में घायल हुआ है। पुराने बेनीपुर में शाम ढलते ही लोग घरों में बंद हो जाते हैं।
इस गांव में दस सालों से कोई बारात नहीं आई है। बेटियों की शादी का रस्म नया बेनीपुर मे किसी पडोसी के मकान में या शहर मे निभाया जाता है। नया बेनीपुर की एक बुजुर्ग महिला रामरतन देवी बताती है कि विस्थापन के बाद 60-65 परिवार यहां आकर बस गये हैं। माल – मवेशियों के लिए चारा लाने के लिए वे लोग समूह में नाव से नदी पार कर अपने खेतों मे जब जाती है तो उन्हें बनैले जंतुओं के हमलेका डर सताता रहता हैः। मैने देखा कि नदी के दोनो किनारे पर आठ – दस छोटी – छोटी नौकाएं बंधी थीं जो यह बता रही थी कि उन्हें अपने पैतृक गांव मे आने- जाने का एक मात्र यही साधन है। आखिर उनकी जीवन – जीविका तो अपनी ही माटी से जुडी हुई है।सेवानिवृत अध्यापक शिवकुमार सिंह कहते हैं कि तटबंध निर्माण के कारण ही नदी की धारा बदली है। पुरानी धारा मृत हो गई ।बेनीपुर गांव के पश्चिम में यदि इस धारा का बहाव बंद कर पुरानी धारा को चालू कर दिया जाए तो न केवल बेनीपुर बल्कि नई धारा के किनारे बसे दर्जनों गांवों की रौनक फिर से लौट सकती है। जरूरत है बागमती की पुरानी धारा की उडाही कर इसे फिर से चालू करने की।
ब्रह्मानंद ठाकुर। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।