कोरेगांव की लड़ाई का जश्न मैं कभी पचा नहीं पाया। फिर भी, आधुनिक भारत की जटिल जातीय राजनीति के मद्देनज़र, इस घटना का उत्सव मनाने के लिए दलित कार्यकर्ताओं को दोषी भी नही ठहरा पाया। तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के दौरान, 1 जनवरी 1818 को कोरेगांव में वास्तव में क्या हुआ था, इसको लेकर पढ़ें-लिखे भी अनजान हैं।
असल में ‘दलित Vs ब्राह्मण’, या ‘दलित Vs मराठा’ संघर्ष, महाराष्ट्र के इतिहास का प्रधान पहलू कभी नहीं रहा। कई वामपन्थी ‘मित्र’ इस भ्रम का शिकार हैं कि महाराष्ट्र में अंग्रेज़ी राज से पहले महारों की स्थिति बदतर थी। उनको कमर में झाड़ू बांधकर चलना पड़ता था। इससे बड़ा झूठ कोई हो ही नहीं सकता। इतिहास लिखित साक्ष्य पर चलता है। Oral History भी लिखित साक्ष्य को मज़बूत करने के लिये ही invoke की जाती है। महारों के बारे में उक्त बात, या यह कि उन्होंने पेशवा सेनाओं में लड़ने से मना कर दिया था। इन सब का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद नहीं है। पेशवा दफ्तर से ऐसा कोई कानून जारी नहीं हुआ था।
यह सारी बातें अन्ग्रेज़ों ने अपने Gazetters में लिखना शुरू की, बिना कोई साक्ष्य प्रस्तुत किये। अम्बेडकर ने भी महार-पेशवा रिश्तों पर अपने व्यक्तिगत विचार रखे हैं। अम्बेडकर नेहरु की तरह इतिहासकार नहीं थे (Ambedkar was a theoretician, not a historian)। उनके लेख सम्मानजनक लेकिन polemical हैं। अम्बेडकर का पूरा लेखन महत्वपूर्ण है। लेकिन उसको इतिहास मान लेना, खुद अम्बेडकर के साथ ज़्यादती है।
17th century में शिवाजी महाराज के उत्थान से लेकर, 1750 के बाद 1818 चितपावन ब्राह्मणों के नेतृत्व में पेशवाई काल तक, महाराष्ट्र का सुनहरा काल था। इतिहास के ये लगभग 150 साल, महाराष्ट्र के दलित-महारों के लिये बेहतर दिन लाये। Military Labour Market यानी सेनाओं में अधिक से अधिक योद्धाओं की ज़रूरत ने, महार और दलित जातियों को उनके परम्परागत पेशों से बाहर निकाला। ‘शौर्य के इस नये बाज़ार’ में जातीय भेद गौण हो गये।
शिवाजी और उनके बेटों, सम्भाजी और राजाराम, के शासनकाल में, नागनक महार और रैनक महार की गिनती बड़े शूरवीरों में थी। महानक महार और बिशनक महार उच्च प्रशासनिक पदों पर थे। पेशवा काल में, रानक महार बाजी राव प्रथम के प्रधान कमाण्डर ही नहीं, बल्कि अभिन्न मित्र भी थे। 1795 में हैदराबाद निज़ाम और मराठों के बीच खरदा में निर्णायक युद्ध हुआ था। इस युद्ध में शिदनक महार ने पेशवा माधवराव द्वितीय के प्रमुख सेनापति परुषराम पटवर्धन की जान बचाई थी।
साधुओं और सैनिकों की कोई जाति नहीं होती। मराठा सेनाओं में कार्यरत महार-दलित सैनिक एक नये गौरव के साथ अपने गांव लौटते थे। फौज में सक्रिय रहने की वजह से, महारों और दलितों को खेती करने के लिये पट्टे दिये जाते थे। आर्थिक रूप से भी मज़बूत होने के उपरान्त, दलित-महार योद्धा अपने परिवार को व्यापार तथा अन्य कार्यों में लगाते थे। 1770 में, अन्ग्रेज़ों के आने से दशकों पहले, महाराष्ट्र के गांवो में ‘विथ्थी’ या बेगार प्रथा मरणासन्न अवस्था में थी।
‘हिन्दू पादशाही’ और भरतीय राष्ट्रवाद
सतही तौर पर देखने से लगता है कि मुगल और मराठा एक-दूसरे के दुश्मन थे। पर मुगल-मराठा संघर्ष कोई हिन्दू-मुस्लिम लड़ाई नहीं थी, ये साबित हो चुका है। अब यह भी तय हो जाना चाहिये कि मुगलों के समय से ही प्रोटो-राष्ट्रवाद, यानी भारत के राष्ट्र बनने की प्रक्रिया, शुरू हो चुकी थी। मराठों की मुगलों से लड़ाई, भारतीय राष्ट्रवाद के आरम्भिक काल में, महाराष्ट्र की जातियों को उचित स्थान मिलने की भी लड़ाई थी। यह बात मुगल भी समझते थे। इसीलिए, शिवाजी के बेटे सम्भाजी को युद्ध में परास्त करने और मारने के बाद, औरंगज़ेब ने उनके बेटे शाहू को दिल्ली ले जाकर अपने व्यक्तिगत हरम में रखा। अच्छी तालीम दी और सत्ता के सारे गुण सिखाये। 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद, शाहू महाराज ने फिर से मराठों की गद्दी सम्भाली। और मुगलों के साथ एकता और संघर्ष की राह पर चले। यही वजह थी कि बाजीराव और अन्य मराठा सरदारों के नेतृत्व में दिल्ली कब्ज़ा करने के बाद भी, मराठों ने मुगलों को अपदस्थ नहीं किया बल्कि मुगलों के प्रतिनिधि बतौर राज किया। भारत में मुगलों ने कभी ‘इस्लामिक राज’ स्थापित करने की कोशिश नहीं की। वहीं मराठे भी कोई ‘हिन्दू पादशाही’ बनाने दिल्ली नही पहुंचे थे।
1757 के बाद, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (BEIC) का भारत में वर्चस्व बढ़ा। लोग कहते हैं कि अगर भारतीय राष्ट्रवाद का कॉनसेप्ट उस समय आ गया था, तो फिर महारों ने BEIC की फौज क्यूं ज्वाइन की? यह भी कहा जाता है कि क्यूंकि दलित जातियां उपेक्षित थीं इसलिये उन्होने BEIC फौज चुनी। यहां यह बात बताना ज़रूरी है कि प्रोटो या प्राक-राष्ट्रवाद भारतीय राष्ट्रवाद का आरम्भिक दौर था। आईडेंटीज़ या पहचान को लेकर बहुत सारे सवाल हल नहीं हुए थे। पिछ्ड़ी चेतना की वजह से, बहुत सारे लोग, BEIC को भी एक बाहर से आई, लेकिन भारत में रचने-बसने वाली, ताक़त, समझते थे। BEIC का असली शोषक-औपनिवेशिक चेहरा उजागर नहीं हुआ था। दूसरी बात, महार, मांग और परिधि जैसी अन्य दलित जातियां, BEIC सेनाओं में इसलिये भी शामिल हो सकीं क्यूंकि मराठा समाज में उनका गतिशील विकास पहले से ही चल रहा था।
कोरेगांव की लड़ाई
1 जनवरी 1818 में कोरेगांव की लड़ाई में BEIC की Bombay Native Infantry लड़ाई जीती नहीं थी। अंग्रेजों के पास महार, मांग, राजपूत, मुस्लिम, यहूदी और मराठा थे जो उनके लिए पैसा ले कर लड़ते थे। जबकि पेशवा सेना में मुस्लिम अरब, उत्तर भारतीय ब्राहमण-गोसाईं योद्धा, मराठा, मांग और महार थे। यहां यह बात साफ कर देनी ज़रूरी है कि अरबी सिपाहियों का भारतीय सेनाओं के लिये लड़ने का इतिहास पुराना है। मुगल काल के दौरान भी इसके उदहारण मिलते हैं। पर 1720 के बाद, पोस्ट-औरंगज़ेब पीरियड में, अरब और अफ़ग़ान सिपाही नौकरी और तरक्की के अवसर तलाश करने भारत बड़ी संख्या में आये।
ये गौरतलब है कि अरब और अफ़ग़ान योद्धा BEIC सेना में न के बराबर थे। और मराठों की सेनाओं में सबसे ज़्यादा! ‘मुस्लिम’ निज़ाम के खिलाफ, खरदा की लड़ाई में मराठों को जिताने वाले, अरब और अफगानी सिपाही ही थे। यह बात साबित करती है कि मराठा सेनाओं का धर्म से कोई लेना देना नहीं था। और एक समय था जब चेतन-अचेतन, मुस्लिम, अरब और अफ़ग़ान भी राष्ट्र निर्माण का हिस्सा थे।
कोरेगांव में 800 से अधिक ब्रिटिश-कंपनी के सैनिकों में से 275 लोग मारे गए। एक-आध को छोड़ कर, अधिकांश योरोपियन अफसर एवं सैनिक मारे गये। ब्रिटिश रिकॉर्ड्स में सबसे ज़्यादा प्रशंसा अरब सिपाहियों की हुई है। पेशवा के पास 20,000 घुड़सवार और 8000 पैदल सेना थी। लेकिन कोरेगांव की लड़ाई में 600-600 के दस्तों में, पेशवा ने कुल 1800 सैनिकों को उतारा था। उस समय तोपखाना सबसे महत्वपूर्ण हुआ करता था। और अन्ग्रेज़ों के पास पेशवा से बेहतर तोपें थी। फिर भी, अरब सैनिकों ने बार-बार धावा बोल कर अन्ग्रेज़ों की तोपों पर कब्ज़ा किया, और एक बड़े अन्ग्रेज़ अफसर का सर धड़ से अलग कर दिया। अन्ग्रेज़ इसी कटे सर को दिखा कर अपनी फौज से कहते थे, अगर भागे तो उनका भी यही हाल होगा!
भारतीय मूल के मृत ब्रिटिश-सैनिकों में 22 महार, 16 मराठा, 8 राजपूत, 2 मुस्लिम और 1-2 यहूदी शामिल थे।
यानी लगभग चौथाई हिस्सा ब्रिटिश सेना का साफ हो गया था। ब्रिटिश अनुमानों के अनुसार 1800 भारतीय-पेशवा में से तीन या चार सौ की मौत हुई थी।अन्ततः बॉम्बे प्रेसीडेंसी के उच्च रैंकिंग ब्रिटिश अधिकारी, मौनस्टुआर्ट एल्फिन्स्टन ने कहा- “कोरेगांव-पेशवा के लिए एक छोटी जीत थी”!
कोरेगांव को यथार्थ से बड़ा, एक मिथक के रूप में प्रस्तुत करना, मराठों को विभाजित करने की ब्रिटिश चाल थी।
कोरेगांव में मेमोरियल बनाना बकायदा ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने तय किया। 1818 के बाद, अन्ग्रेज़ों ने महाराष्ट्र में रैयत्वारी व्यवस्था लागू की। इसके अन्तर्गत, महारों से मराठा और पेशवाई काल में मिली ज़मीनें छीन ली गयीं। ब्रिटिश काल में महार फिर से दलित बने। महाराष्ट्र में बेगार और दलित-विरोधी कई कुरीतियां, जो मराठा और पेशवाई काल में खत्म हो गई थीं, पुनर्जीवित हुईं। दलित और महारों को ज़मीन से बेदखल करके अन्ग्रेज़ ‘अछूत’ प्रथा इत्यादी वापस लाये।
लेकिन ब्रिटिश साज़िश सफल नहीं हुई। सन् 1857 में महार व मराठा ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक साथ लड़े। कोल्हापुर में 27 वें बॉम्बे नेटिव इन्फैंट्री का ब्रिटिश-विरोधी विद्रोह, बेल्लगाम और धारवाड़ में 28वें, 29वें बॉम्बे नेटिव इन्फैंट्री की ब्रिटिश-विरोधी हलचल में महार और मांग दलित सिपाहियों ने प्रमुख भूमिका निभाई। 15 अक्टूबर 1857 के दिन, बम्बई के आज़ाद मैदान में सिपाही सैय्यद हुसैन के साथ, दलित स्वतन्त्रता सेनानी सिपाही मंगल गदिया को अन्ग्रेज़ों ने सरे-आम तोप के मुंह में बांध कर उड़ाया था।
कोरेगांव की लड़ाई का दलितों के लिये कोई खास महत्व नहीं था। अम्बेडकर ने 1 जनवरी 1927 को कोरेगांव का दौरा किया। तब से, कुछ स्थानीय तत्वों ने इस ‘घटना’ को जश्न के रूप में मनाना शुरू कर दिया। मैंने 2008 में कोरेगांव में आयोजित एक समारोह में भाग लिया। एक इतिहासकार के रुप में मैंने सच बोला। मैंने पेशवा सैनिकों की तारीफ़ भी की, लेकिन दलित संगठनों ने इस पर कोई आपत्ति नहीं जताई।
वर्तमान में हुए उपद्रव के लिए हिन्दुत्ववादी तत्व जिम्मेदार है। जिन्होंने एक साजिश के तहत दलितों पर हमला किया। ये हिन्दुत्ववादी ब्रिटिश एजेंटो के वंशज हैं। इस हिन्दुत्व प्लान के मुताबिक दलित-विरोधी हिंसा का माहौल बनना चाहिये। ताकि 2019 चुनाव को ध्यान में रखते हुए जाति-द्वन्द्व को सम्प्रदायिक-द्वन्द्व में तब्दील किया जा सके। सही सोच रखने वाले सभी व्यक्तियों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि हिंदुत्ववादियों को पेशवाओं के प्रति कोई हमदर्दी नहीं है। बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहेब ने कानपुर में 1857 का नेतृत्व किया था। मुस्लिम घुड़सवार नाना साहेब के लिये मुख्य रूप से लड़े थे। RSS नहीं चाहती कि एक चितपावन ब्राहमण नेता और मुसलमानो की एकता का पहलू सामने आये।
1875 में ब्रिटिश-विरोधी महाराष्ट्र किसान विद्रोह का नेतृत्व चितपावन ब्राहमण वसुदेव बलवन्त फडके ने किया था। फडके के गुरु और कोई नही बल्कि मांग-दलित नेता लहुजी वस्ताद थे। बीसवीं शताब्दी में, अगर हेडगेवार जैसे चितपावन ब्राहमण RSS के संस्थापक रहे, तो तिलक जैसे चितपावन ब्राहमण कांग्रेस के स्तंभ रहे। वहीं डाँगे और रणदिवे जैसे बड़े चितपावन ब्राहमण, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बन कर उभरे।
पेशवाओं ने मनुस्मृति इत्यादी को कभी बढ़ावा नही दिया। मनुस्मृति कभी ब्राहमण वृतान्त या विमर्श की मुख्यधारा में थी ही नहीं। मनुस्मृति को ‘ब्राहमण दर्शन’ के रूप में पेश करना अन्ग्रेज़ों की चाल थी। अन्ग्रेज़ ‘ब्राहमण-विरोधी’ आन्दोलन भड़काना चाहते थे। अंग्रेज़ी राज का विरोध सबसे अधिक ब्राहमण और मुसलमानों ने किया। अन्ग्रेज़ों के बाद, RSS ने मनुस्मृति को ‘ब्राहमण दर्शन’ के रूप में पेश किया। RSS का भी मक़सद ब्राहमणों को बदनाम करना था।
आज के दौर में कोरेगांव का महिमामण्डन, पेशवाओं को गाली देकर उन्हें दलित-विरोधी कहना, भाजपा के पिट्ठू कुछ फर्जी दलित नेताओं द्वारा मनु स्मृति जलाना, इस तरह की तमाम बातें, RSS को हो मजबूत करेंगीं। RSS-BJP नेताओं को ‘नव-पेशवा’ कहना पेशवाओं का अपमान है। इस तरह की बातें, तमाम हिन्दुत्व-विरोधी, RSS-विरोधी ताक़तों को RSS की तरफ धकेलेंगी। RSS की साज़िश को समझिये। वह 2019 को ध्यान में रखकर दलितों, मराठों और ब्राहमणों को एक दूसरे के खिलाफ लड़ाना चाहती हैं, ताकि हर तरफ से उनको फायदा पहुंचे और भाजपा की नीतियों के खिलाफ बढ़ रहे जन-असन्तोष से ध्यान हटाया जा सके।
अमरेश मिश्र (हिन्दी अनुवाद में सहायता: अफ्फान नोमानी)