धीरेंद्र पुंडीर
“नाम क्या है इसका।” एक वीरान से पड़े बंगले के अंदर खड़े होकर मैंने बंगले में बैठे उस युवा से पूछा। एक शर्माती सी मुस्कुराहट के साथ अशोक ने बताया कि इसको दांडी डाक बंगला बोलते हैं। दांडी तो मिट गया और अब ये सिर्फ डाक बंगला है। इसी का केयर टेकर है या फिर डेली वेजिज मजदूर, जो पूरे देश की तरह ब्यूरोक्रेसी के रहमोकरम पर यहां अपने परिवार के साथ दिन गुजार रहा है।
महात्मा गांधी ने यात्रा प्रारंभ कर दी थी। साबरमती के बाहर लाखों लोग अपने महात्मा को देखने के लिए जमा थे। वही महात्मा जो एक मुट्ठी बारूद नहीं बल्कि नमक बनाने के लिए सैकड़ों मील लंबी यात्रा पर उद्घोष कर निकल पड़ा था। पूरी रात जनता आश्रम के बाहर नारे लगाती रही। आश्रम में चहल-पहल थी। एक उत्तेजना हर आदमी महसूस कर रहा था। लेकिन इस पूरी यात्रा का नायक जैसे आराम से सो रहा था। महात्मा ने आराम से अपनी दिनचर्या के मुताबिक रात बिताई और सुबह चार बजे से कार्यक्रम की शुरूआत कर दी थी। महात्मा गांधी की इस यात्रा को लेकर अंग्रेज और उनके वफादार कुत्तों की तरह भौंक रहे उस वक्त के राष्ट्रीय अंग्रेजी मीडिया के साथ-साथ कांग्रेस के बड़े नेताओं ने भी असहमति जताई थी। सबको लगता था कि 61 साल की उम्र में एक तो ये यात्रा महात्मा गांधी के लिए शारीरिक तौर पर काफी मुश्किल साबित होने जा रही है और दूसरा इसके उद्देश्यों को लेकर भी कोई साफ समझ नहीं थी।
महात्मा गांधी नमक के सहारे कैसे ब्रिटिश साम्राज्य को हिला सकते हैं, ये भी लोगों की समझ में नहीं आ रहा था। लेकिन शायद अभी तक की आजादी की लड़ाई के इतिहास में महात्मा एक मात्र व्यक्ति थे, जो अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा हासिल कर भी देश की आत्मा के साथ लगातार संपर्क में थे। आजादी के नायकों का विश्लेषण इस बात को साफ करता है कि विदेशी शिक्षा ने ज्यादातर नेताओं की वैश्विक समझ शायद बढ़ा दी, लेकिन हिंदुस्तान के आम आदमी की शक्ति पर उनका विश्वास निरंतर कम होता चला गया था। ज्यादातर नेताओं ने आजादी के लिए लोगों से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया था। पूरी लड़ाई में महात्मा अंत तक ऐसे नायक रहे जिसे अपनी भूखी नंगी सेना पर यकीन था। उनको यकीन था कि ये लोग दधीचि के वशंज है और वज्र बना सकती है इन्हीं की सूखी हड्डियां, बस इनको बलिदान देने का माद्दा एक बार फिर से दिखाना होगा। और महात्मा का विश्वास उनको फिर से ब्रिटिश बादशाह के खिलाफ जंग में ले आया।
महात्मा गांधी ने इस आंदोलन को शुरू करने से पहले वायसराय इर्विन के एक खत लिखा था, उसमें भी साफ था कि महात्मा जानते हैं कि उनकी इस लड़ाई का मुख्य आधार क्या है और उनकी लड़ाई किससे है।
“मैं ब्रिटिश शासन को शाप क्यों समझता हूं ? ब्रिटिश शासन ने सैनिक और नागरिक प्रशासन की भयंकर खर्चीली व्यवस्था को हमारे ऊपर लादा है। इसने लगातार हमारा शोषण किया है और लाखों लोगों को गूंगा और कंगाल बना दिया है। इसने हमें राजनैतिक रूप से खरीदे हुए गुलाम बना दिया है औ हमारी संस्कृति की आधार शिला ही हिला दी है। मझे शंका है कि निकट भविष्य में भात को स्वतंत्र उपनिवेश बनाने का आपका कोई ईरादा नहीं है।”- इर्विन को गांधी का खत
दरअसल ये पूरा खत इस पूरी लड़ाई की पृष्टभूमि का साफ करता है और बताता है कि नमक का चुनाव बेहद सोच-विचार के बाद ही किया गया था। महात्मा गांधी एक बदले हुए भारत के लिए लड़ रहे थे और बाकि लोग एक स्वतंत्रता की एक आसान सोच के साथ। सुबह निकलने से पहले पंडित खरे से गांधी जी ने भजन गाने के लिए कहा और भजन था “हरि नो मारग”।
जो देश अपने इतिहास को इस तरह भुला बैठा हो उसके लिए पोथियों में जाने की जरूरत नहीं है, इस यात्रा को करने से ही वो समझ सकता है। साबरमती से आगे की ओर निकल कर मैं बहुत ही शानदार साबरमती फ्रंट से गुजर कर पहुंचा एलिस ब्रिज। ब्रिटिश शासन की एक देन के तौर पर ये आज भी उसी तरह खड़ा है। हालांकि अब इस पर से यातायात बंद हो चुका है और साबरमती पर ही इसके समानांतर दर्जन के करीब पुल बन चुके हैं। हिंदुस्तानी भीड़ को कम दिखाने के माहिर ब्रिटिश समर्थक अंग्रेजी अखबारों ने भी उस दिन की भीड़ को एक लाख माना था। एलिस ब्रिज पार करना आसान नहीं था क्योंकि ब्रिज पर भारी भीड़ जमा थी और नीचे सूखी नदी साबरमती, जिसमें कहीं-कहीं घुटनों तक पानी था। महात्मा गांधी जी के सहयोगियों ने फौरन ये तय किया कि गांधी जी नीचे उतर कर नदी को अंदर से ही पार करेंगे ब्रिज से नहीं। और वो जमालपुर प्रीतमनगर से पारकर चंदोला तालाब पर पहुंच गए। साबरमती से 11 किलोमीटर की दूरी पर। इस जगह पर सेनानियों ने पहला विश्राम किया था। कुछ देर बाद महात्मा गांधी जी ने संबोधित किया। कुछ देर विश्राम के बाद महात्मा गांधी ने आगे की यात्रा शुरू की।
मैं इस जगह को खोज रहा था। डाक बंगला बन चुका था। लोगों के जेहन से दांडी बंगला गायब हो गया। कई जगह से पूछ कर आखिर ये पता चला कि ये जो डाक बंगला है इसी को दांडी बंगला भी कहते हैं। तालाब के किनारे पर इस बंगले में ऐसा कुछ दिख नहीं रहा था जिसके आधार पर इसका रिश्ता दांडी यात्रा से जोड़ा जा सके। साबरमती की भीड़ और साबरमती के बाहर यादगार के तौर पर बने पुल की गंदगी के बाद ये अगला अनुभव था। ये अहमदाबाद है। धीमंत भाई की बात याद आ रही है कि कितने लोगों ने गांधी आश्रम में आकर गांधी को देखा है।
बंगले में कुछ परिवार सामने बने हुए कमरे में हैं। वो मजदूरों के हैं, जो बंगले में मजदूरी करते हैं। इसके अलावा एक आदमी है जिसको आप अपनी सुविधा से केयर टेकर भी कह सकते हो। उसको कुछ मालूम नहीं है। खैर उससे अधिकारी का नंबर लेकर मिलाया तो उन्होंने बताया कि यही वो जगह है जहां महात्मा ने पहला विश्राम किया था। लेकिन कोई प्रतिमा या फिर याद के लिए लिखे हुए दो शब्द कभी किसी ने लिखने की कोशिश ही नहीं की है। और कुछ दिनों बाद शायद ये बताने वाला भी कोई न हो कि इस जगह का ऐतिहासिक दांडी यात्रा से क्या रिश्ता है।
धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंडीर की अपनी विशिष्ट पहचान है। मुजफ्फरनगर के मूल निवासी। दिल्ली यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा हासिल की।