क्या मीडिया से गांव गायब हो गए हैं? जवाब है- हां। यदि कोई एक जगह से एक जगह को उल्टा होकर लगातार इक टक देखे जा रहा हो तो।
क्या मीडिया को गांव तभी याद आता है जब कोई बड़ा हादसा हो या फिर भयावह हिंसा? जवाब है- हां। यदि टीवी की लीड लीड होती है और उनका अनुसरण करने वाले अखबारों की हैडलाइन नजीर से कम नहीं मानी जाती है तो।
क्या मीडिया सचमुच आत्महत्या या गांव की गरीबी, विस्थापन और उथल-पुथल को कवर नहीं करता है? जवाब है- हां। यदि इसे राजधानी के अंग्रेजी प्रिंट और वेबसाइट के क्लोन भाषाई संस्करणों तक सीमित समझ लिया गया है तो।
गांव की पत्रकारिता की मुसीबत या चुनौतियां होती तो हैं, लेकिन क्या यह ठीक वैसी ही होती हैं जैसी कोई बड़े शहर के अंग्रेजीदा जर्नलिस्ट या सोशल एक्टिविस्ट निर्धारित करके हमें बता रहे होते हैं? इन्हें ग्रामीण परिवेश में ग्रामीण पत्रकार की नजर से देखे जाने की जरूरत है।
असल में इनकी करीब-करीब हर दलील दिल्ली जैसे शहर के 24X7 चैनल के टाइम शेड्यूल या कुछ दैनिक अख़बारों के अलग-अलग पेजों की हैडलाइन और ख़बरों से तय होती है। इसे राष्ट्रीय मीडिया नाम दिया जाता है और इसे मान भी लिया जाए तो चीजें नहीं बदल जाती हैं।
दूसरी तरफ, इंडियन न्यूज सोसायटी के मुताबिक भारत जैसे विशाल और विविधता सम्पन्न देश में 62,000 समाचार-पत्र हैं। इनमें से 12,000 समाचार-पत्रों की प्रसार संख्या 50,000 से ज्यादा है। वहीं, 50,000 समाचार-पत्रों की प्रसार संख्या 50,000 से कम है। कुल 62,000 समाचार-पत्रों में से 90% स्थानीय भाषाओं में प्रकाशित होते हैं।
अभी तो मीडिया शोधकर्ताओं को सम्भवतः अलग-अलग स्थानीय भाषाओं के न्यूनतम 5,000 चुनिंदा समाचार-पत्रों की सूची को ही बनाने या किसी संग्रहालय में खोजे जाने की जरूरत है। सच तो यह है कि न्यूनतम 50,000 ग्रामीण पत्रकारों को जाने बिना और न्यूनतम 5,0000 खबरों को एक जगह जमा किए बिना सिर्फ धारणा बनाई जा सकती है कि एक शहर की पत्रकारिता की तरह पूरे देश का ठीक यही हाल होगा। 90% स्थानीय भाषाओं के समाचार-पत्रों में ख़बरों की वरीयता, अलग-अलग क्षेत्रों के मुद्दे और सामग्री का नियमित अध्यनन किए बिना दिल्ली की मीडिया के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना और विषय का सामान्यीकरण कर देना एक तरह से उस आंचलिक पत्रकारिता के साथ ज्यादती है जिसे एक इलीट वर्ग द्वारा सिरे से नकारा जाता रहा है।
असल में सत्ता के समानांतर यह मीडिया को केंद्रीकृत तरीके से देखने का वही सिस्टम है जिसमें दूर-दराज की आवाजों को दिल्ली बुलाने और यही सुने जाने की परंपरा है। इसके पहले तक की आवाजों का ठीक वैसे ही कोई मतलब नहीं जैसे कि दिल्ली का पत्रकार गांव से लौटकर कोई स्टोरी फाइल नहीं कर लेता है तब तक स्टोरी का इम्पैक्ट नहीं माना जाता है।
भले ही आंचलिक पत्रकारिता को नजरअंदाज बनाते हुए राष्ट्रीय मीडिया के आधार पर कोई थ्योरी बना ली जाए, लेकिन क्या इस बात को भी नजरअंदाज बनाया जा सकता है कि एक शहर के आधे से अधिक मीडिया संस्थानों पर जब एक कम्पनी का राज स्थापित होने की चर्चा केंद्र में है तब पूरी आंचलिक पत्रकारिता को दो-एक कॉर्पोरेट कम्पनियों द्वारा मैनेज कर पाना कहीं चुनौतीपूर्ण होगा।
शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति राजस्थान पत्रिका के लिए रायपुर से रिपोर्टिंग कर रहे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।