अखिलेश्वर पांडेय
शाबासी की सीढ़ीयां चढ़ते हुए
पहुंच गया हूं उस मुकाम पर
जहां से सिर्फ भीड़ दिख रही
आंखें पारदर्शी हो गयी हैं
होठ चुप हैं
कानों में ‘स्व’ गूंज रहा
ढोल-नगाड़े, बांसुरी
सबकी धुनें बेसुरी लग रही
लय तलाश रहा हूं
थमी-सहमी
सरगमी फिजाओं में…