पशुपति शर्मा
‘समय वाचाल है’ इसी शीर्षक से आजतक में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार साथी देवांशुजी का काव्य संग्रह हाथ में आ गया है। इस बार ‘साहित्य आजतक’ में सम्मिलित होने की वजह भी देवांशुजी की कविताओं का सत्र ही रहा। जब मैं पहुंचा तो वो मंच पर काबिज थे और सत्र शुरू हो चुका था। दूर से ही उनकी आवाज़ में प्रद्युम्न का दर्द घुल रहा था। मैं दरवाजे पर स्वागत की अद्भुत परंपरा का साक्षात्कार कर रहा था। 10-12 युवक -युवतियों का एक समूह लोगों के पहचान पत्र देखकर आयोजन की सुरक्षा पुख्ता कर रहा था। साहित्य के आयोजनों में जिस तरह की संवेदनशीलता की जरूरत होती है, उससे परे वो अपनी शर्तों पर लोगों को एंट्री दे रहे थे। हाथ पर ठप्पा लगाना अनिवार्य कर रखा था। मैंने इंकार किया लेकिन उनके लिए इस तरह के इंकार का कोई मतलब नहीं था। 5000 लोगों ने जब ठप्पा लगवाया तो आप क्यों नहीं? आपके शरीर की निजता के अधिकार ऐसी थोथी दलीलों के आगे क्या मायने रखते हैं। खैर! मन को थोड़ा संयमित कर मैंने ठप्पा लगवाया और सीधा उस मंच की ओर अग्रसर हो गया, जहां देवांशुजी का सत्र चल रहा था।
‘घर की मुर्गी…’ के इस सत्र में मंच पर तीन कवि विराजे थे- देवांशु झा, पंकज शर्मा और सत्येंद्र श्रीवास्तव। तीन कवि, अपने अल्प समय में तीन अलग-अलग मिजाज से रूबरू करा रहे थे। सत्येंद्र श्रीवास्तव मजदूरों की भूख और संघर्ष के बिम्ब उभार रहे थे, बच्चों के जरिए चांद में रोटी तलाश रहे थे। पंकज शर्मा अपने सुरों से प्रेम के तीन रूपों की व्याख्या कर रहे थे। देवांशुझा अपनी बेचैनी को समेटे कश्मीर तक ‘इंसाफ़’ की बेबसी को बयां कर रहे थे। कार्यक्रम का संचालन मीनाक्षी कंडपाल कर रहीं थीं। ‘साहित्य आजतक’ साहित्य प्रेमियों के लिए एक सालाना जलसा बनता जा रहा है, इसलिए युवाओं की अच्छी खासी तादाद इस कार्यक्रम का गवाह बन रही थी। क्षेपक के तौर पर पंकज शर्मा की मिमिक्री का दौर भी चला। शम्स ताहिर खान और पुण्य प्रसून वाजपेयी की मिमिक्री हुई। ये डेविएशन यूं तो रोचक था, कईयों के लिए लेकिन कुछ लोगों को नागवार भी गुजर रहा था। बिजली की आंख-मिचौली से ये संदेश खुद-ब-खुद आयोजकों तक पहुंचा और कविताई पर बातचीत का सिलसिला पटरी पर लौटा।
कार्यक्रम खत्म हुआ तो सेल्फी का दौर भी चला। कुछ युवा पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे बड़े एंकरों के साथ सेल्फी खिंचाने लगे तो कुछ ने मंच पर विराजमान प्रोड्यूसरनुमा कवियों को भी ये इज्ज़त बख़्शी। इस दौरान पुण्य प्रसून वाजपेयी बड़ी तेजी से आयोजन स्थल से निकले तो उनके साथ-साथ दो निजी गार्ड भी बड़ी तेजी से लपके। वो एक सुरक्षा घेरा बनाने की कोशिश में थे शायद। पर शायद वो न तो पुण्य प्रसून वाजपेयी की चाल से चाल मिला पा रहे थे और न ही ये तस्वीर पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे जनपक्षीय एंकर के मुफीद ही नज़र आती है।
इस दरम्यान ‘ग़ज़ल और नज़्म’ का अगला सत्र स्टेज-2 पर ही शुरू हुआ। रेडियो जॉकी सायमा और मंच संचालक नेहा बाथम की गुफ़्तगू में कई बड़े शायरों की नज़्में घुल-मिल कर हम तक पहुंचती रही। सायमा ने पुरानी जींस से नए बदलाव तक अपने मन की बात खुल कर रखी। उन्होंने बताया कि ‘न हिंदू बनेगा, न मुसलमान…’ की संस्कृति वाले परिवार में परवरिश हुई। हाल की कुछ टिप्पणियों के बावजूद बार-बार ‘पाकिस्तान भेजे जाने’ वाले जुमलों पर भी उन्होंने तंज कसा। आवाज़ की खूबसूरती के लिए सायमा ने दिल को खूबसूरत बनाने का मंत्र दिया। सायमा अपने साथ शायरों की किताबें लेकर आईं थीं। एक-एक कर उनमें से कुछ सुनाती रहीं, बतियाती रहीं और सत्र का समय ख़त्म हो गया। वहां मौजूद लोगों तक माइक पहुंचा तो एक ही खुशनसीब बंदा अपनी बात सायमा से रख सका और वो भी बस इतना ही- आप वाकई बेहद ‘ख़ूबसूरत’ हैं। सायमा ने ख़ूबसूरती का जो पैमाना गढ़ा था, उसी पैमाने पर ये खिताब उन्हें फौरन हासिल हो गया।
निर्वासित पिता
मेरे पिता रद्दी जमा करते थे
एक कमरा रद्दियों से भरा था
उसमें सन पचास के अखबार थे
उसी समय की पत्र-पत्रिकाएं भी
मां उन रद्दियों से चिढ़ती थीं
और पिता रद्दियों में भविष्य देखते थे
वे मानते थे कि किसी दिन
उस ढेर में से कुछ
ऐतिहासिक खबरों वाले पन्नों का पुनर्पाठ होगा
दिलचस्प तो यह कि कई बार मां ने
उन रद्दियों के टाल से
बीस-बीस किलो अखबार बेच डाले
और पिताजी को खबर तक न लगी
फिर एक दिन समय ने अचानक
पिछला-अगला सब रद्द कर दिया
पिता उन रद्दियों को घर समेत बंद कर
दिल्ली आ गए हमारे पास
रद्दियों में दबी न जाने कितनी ही ख़बरें
खामोश होकर दीमक के दांव लग गई
और एक खबर अखबारों में छपकर
रद्दी बन जान को अब तक भटक रही है कि
मेरे पिता न उन रद्दियों को छोड़ना चाहते थे
न कभी अपना घर।देवांशु झा (‘समय वाचाल है’ संकलन से)
इसके बाद कुछ देर तक साहित्य आजतक के प्रांगण में घूमता रहा, अकेला ही। इस दौरान पीयूष पांडेजी से थोड़ी गुफ़्तगू हुई। कई परिचित चेहरे दिखे। दूर से ही निहारा। कभी-कभी अपने आप में होना भी अच्छा लगता है न। प्रभात प्रकाशन के स्टॉल तक पहुंचा। पहले से तय टास्क- देवांशुजी का काव्य संकलन खरीदा। मेट्रो में चंद कविताएं पढ़ीं, घर-परिवार की संवेदनाओं ने थोड़ा भावुक सा कर दिया।
पशुपति शर्मा ।बिहार के पूर्णिया जिले के निवासी। नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से संचार की पढ़ाई। जेएनयू दिल्ली से हिंदी में एमए और एमफिल। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। उनसे 8826972867 पर संपर्क किया जा सकता है।