मयंक सक्सेना
कुंदन शाह से दिल्ली में एक पत्रकार के तौर पर मिलना हुआ। पहली बार जब मिला था, तो छात्र था। दूसरी बार पत्रकार।ऑफ द रिकॉर्ड चाय पीते हुए, उनसे मेरा पहला ही सवाल था, जाने भी दो यारों जैसी फिल्म फिर क्यों नहीं बन सकी। उन्होंने कहा, “पहली बार भी नहीं बन सकती थी अगर बजट बिना सोचे, कलाकारों के स्टारडम को बिना सोचे, सिर्फ कहानी दिखाने और सच कहने के लिए फिल्म न बनाई जाती”। चाय का घूंट ले कर फिर शांत हुए और बोले- “शायद मैं भी नहीं बना सकता अब, देखो न उसके बाद मैं वैसा कुछ नहीं रच सका। अब शायद हम सबकी दुनिया इस लायक ही नहीं कि वैसी फिल्म बने या लोग देखना चाहें। हम सब गई दुनिया के लोग हैं या फिर.. ख़ैर जाने भी दो यारों…” और हंसने लगे।
कई बातें उन्होंने कहीं, एक बात जो और मैं नहीं भूल पाता, वो ये थी कि एनएफडीसी अब किसी ऐसी कहानी में पैसा नहीं लगाएगा। अब लोगों की कहानियों को कुचलने का और खास लोगों की कहानियों को सबकी कहानी के तौर पर कहने का दौर है। अब फिल्म में नायक अमीर होता है और ये जताया जाता है कि कहीं कोई गरीब नहीं है। वह मरता नहीं है, फंसता नहीं है। नसीरुद्दीन शाह की तरह सच की विडम्बना का शिकार हीरो नहीं है। जिसे हर जगह मात मिले, वह व्यंग्य का हिस्सा नहीं है। वह जीतेगा और हर सही ग़लत तरीके से जीतेगा। जिससे कि फिल्में बनाने वाले जो बेईमान लोग हैं, वो अपनी निजी सारी बेईमानी और तरीकों को अप्रोप्रिएट कर पाएं। अब राजनीति से समाज तक यही होता है, होगा। अभी चीज़ें और बिगड़ेंगी।
जाने भी दो यारों की कहानी, इसी विकास की गप की असल कथा ही तो है। ‘ आज जब आप देश को कुछ लोगों की ज़ायदाद बनते देखते हैं, तो आपको अनायास ही महाभारत वाले सीन का संवाद याद आ जाता है, ‘द्रौपदी अकेले तेरी नहीं है, हम सब शेयर होल्डर हैं।’ उसके बाद और मुलाक़ातें हुई। दिन पर दिन वो कमज़ोर होते जाते दिखते थे, लेकिन हां, चेहरे पर एक भाव था…कि बस मैंने वो कर लिया एक बार, जो मैं करना चाहता था। तुम लोगों ने कितनी बार किया?
जाने भी दो यारों सिर्फ फिल्म नहीं है। वह हमारे आपके अंदर का सच है, जिससे डर कर हम कोई लड़ाई नहीं लड़ते हैं, क्योंकि हमको हमारे देश और समाज में उन लड़ाईयों का अंजाम पता है। मुंबई आने के बाद राजीव शंकर गोहिल सर ने कई बार कहा कि कुंदन मेरे दोस्त हैं, उनसे मिल आओ। मैं नहीं जा पाया। तमाम बहाने जो न जा पाने के हैं, वो जाने के भी हो सकते थे लेकिन आज लगा कि जाऊंगा। आज जब न जा पाने का कोई बहाना नहीं है। मैं नहीं गया। आज मेरे पास कारण है, न जाने का। मैं नहीं जाऊंगा। कुंदन शाह लग रहा है कि मेरे कान में कह रहे हैं, ‘जाने भी दो न यारों…’।
ये दुनिया उनके लिए अब है भी नहीं। मैं आज दोपहर से सोच कर हार गया लेकिन कुंदन शाह के घर जाने की हिम्मत नहीं कर पाया। जहां मैं शायद सिर्फ आधे घंटे में पहुंच जाता। मैं नहीं देख सकता कुंदन शाह को बिना सांस लेते। मैं नहीं देख सकता, जाने भी दो यारों को गली-घर में बैठते जाते। मैं नहीं गया और शायद अब मैं रिज़वी क़ॉम्प्लेक्स तब जाऊंगा, जब वो जा चुके होंगे। और कार्टर रोड के पास की उस सड़क से गुज़रने की हिम्मत लाना भी हिम्मत की ही बात होगी।
एक बात और जो कुंदन शाह ने कही थी, 2010 में- “देखो, लिखने से हो सकता है कुछ न बदले, तुम इसलिए लिखना कि तुम अच्छा लिखते हो और पता नहीं कितने और काम होंगे जो इतना अच्छा कर सकते होगे। अगर क्रिकेट ज़्यादा अच्छा खेलते हो, तो इसीलिए क्रिकेट खेलना मत छोड़ना कि और कुछ वैसे नहीं कर सकोगे। हां, ये संभावना हमेशा रहेगी कि तुम्हारा लिखा पढ़ के कोई एक आदमी भी बदले। वो भी एक अच्छी उपलब्धि है, क्योंकि लिख कर और क्या कमा लोगे?” आज मैं देखता हूं अपने अंदर नुक्कड़ के वो तमाम किरदार, जिनके होने से मैं आज यहां तक आ सका हूं। वो मेरे शहर में थे…मुंबई में मेरी ज़िंदगी का हिस्सा हैं, जिनको कभी आमिर खान कभी मिथुन कुमार, कभी इला जोशी, कभी अनवर हुसैन, कभी अनुज श्रीवास्तव, कभी राकेश कायस्थ, कभी बाजीराव, कभी पिंकी, कभी रुक्मिनी सेन में देखता हूं… और नुक्कड़ पर खड़ा रह जाता हूं कि कुंदन शाह क्या हम सबकी कहानी कह रहे थे।
बस आज इतना ही। श्रद्धांजलि देकर कुछ होता नहीं है। उनके घर जाकर मन बहुत उदास हो जाएगा और मैं इतनी उदासी नहीं झेल सकता। अभी कुछ दिन और लड़ना चाहता हूं। जाऊंगा उनके घर, जब न वो होंगे, न ही किसी की कोई पार्थिव देह। हो सकता है उनके फ्लैट तक न जाऊं, उनके पड़ोसी और सबसे करीबी दोस्त सईद मिर्जा- द लेफ्टिस्ट सूफी से मिल कर लौट आऊं शायद। वो भी सिर्फ उन्हें सलाम कह कर। कुंदन शाह, देखिए मैंने दिल्ली में कहा था कि मुंबई आया तो मिलूंगा, मैं मुंबई आकर नहीं मिला आपसे। आज भी नहीं।
अलविदा…स्वच्छ भारत अभियान की पंचलाइन रख लीजिएगा मोदी जी, JANE BHI Do YARO से…’देश की उन्नति की पहचान अगर किसी चीज़ से होती है, तो वो है गटर…’ सलाम कुंदन शाह, हम तो आपको श्रद्धांजलि भी नहीं दे सकते!
मयंक सक्सेना। मीडियाकर्मी। स्वतंत्र लेखन। दिल्ली और मुंबई रहा कार्यक्षेत्र।