देवांशु झा
कवि अज्ञेय ने अपने संस्मरण में लिखा है “निराला के प्रति मेरी धारणा तब तक पूरी तरह बदल चुकी थी। ऐसा ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘सरोज स्मृति’ जैसी बड़ी कविता को पढ़ते हुए नहीं बल्कि ‘तुलसीदास’ को पढ़ते हुए हुआ था। ऐसी कविताएं तो बहुत होती हैं जिनमें भावुक हृदय या रसिक मन बोलता है, पर ऐसी रचनाएं विरली ही होती हैं जिनमें पूरी संस्कृति चलचित्र की तरह चलती है।”
शब्दों में हेर फेर रहा हो, पर अज्ञेय के कथन का मूल भाव यही था। हैरत की बात ये है कि अज्ञेय ने निराला की कम प्रसिद्ध कविता तुलसीदास का चुनाव किया। यह चुनाव अज्ञेय ही कर सकते थे क्योंकि सांस्कृतिक धरातल पर उन्मुक्त विचरण करने के लिए जैसा मन चाहिए वैसा मन हमारे आलोचकों का नहीं है। कम से कम हिन्दू-मुसलमानी सभ्यता के संघर्ष और सेक्यूलरवाद को ध्यान में रखते हुए यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है। इसीलिए निराला की इस विलक्षण कविता पर हमारे गुणी समालोचकों की पवित्र दृष्टि नहीं पड़ी बल्कि यूं कहिये कि इस कविता को छूने से वो भागते रहे। सरोज स्मृति और राम की शक्तिपूजा के बरक्स तो तुलसीदास को पासंग भर भी भाव नहीं दिया गया है। विद्वानों में ऐसा दैन्य ?
दैन्य इसलिए कि निराला ने संस्कृति के विकट सवाल को जितनी निर्दयता से उठाया उतना आत्मपरीक्षण करने की औकात समालोचकों में कहां है? भारतीय संस्कृति में हिन्दू-मुसलमान संघर्ष के सवाल पर वो कहां बोलते हैं और बोलते भी हैं तो निशाने पर भगवा ही होता है। पर कवि निराला में कुछ बुनियादी प्रश्नों को उधेड़ने का अक्खड़पन था। इस कविता के केन्द्र में कविवर तुलसीदास हैं। और कविता की शुरुआत होती है कुछ इस तरह
भारत के नभ का प्रभापूर्य
शीतलच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
अस्तमित आज रे तमस्तूर्य दिगमंडल
उर के आसन पर शिरस्त्राण
शासन करते हैं मुसलमान
है ऊर्मिल जल निश्चलत्प्राण पर शतदल
जरा मुझे बताइये और आधुनिक हिन्दी कविता में सोदाहरण पेश कीजिए कि भला वह कौन सा कवि है जिसने लिखा है.. भारत का सांस्कृतिक सूर्य अस्त हो चुका है.. तम का तूर्य लहराता है। उर के आसन पर शिरस्त्राण हैं और मुसलमानों के राज में बहते हुए जल के बीच सभ्यता का शतदल एक स्थैर्य में हैं, लगभग प्राणहीन, निस्पंद।
अवश्य ही पहले छंद को पढ़ने के बाद अस्सी फीसदी आलोचकों को लग्धी लग गई होगी। और उन्होंने इस विलक्षण कविता पर विचार करने का साहस न किया होगा। यही वो कविता है जो आलोचकों को डराती है। इस कविता के विशाल प्रासाद में प्रवेश करते हुए वे कांपते हैं और अपनी इच्छा, सुविधा से निराला के काव्यलोक का आकलन करते हैं। तुलसीदास कविता में निराला बारंबार मुगलिया आतंक का प्रश्न सूक्ष्मता से उठाते हैं और तब तक उठाते हैं जब तक कि कवि तुलसीदास अपने आत्मसंघर्षो में तप कर जाग नहीं जाते। जरा देखिए शुरुआती छंद..
शत-शत अब्दों का सांध्य काल
यह आकुंचित भ्रू कुटिल-भाल
छाया अंबर पर जलद-जाल ज्यों दुस्तर
आया पहले पंजाब प्रान्त,
कोशल-बिहार तदनन्त क्रांत,
क्रमशः प्रदेश सब हुए भ्रान्त, घिर-घिरकर।मोगल दल बल के जलद यान
दर्पित पद उन्मद नद पठान
हैं बहा रहे दिग्देश ज्ञान शर खरतर
छाया ऊपर घन अंधकार
टूटता वज्र दह दुर्निवार
नीचे प्लावन की प्रलय धार, ध्वनि हर हर
वह कौन सा समय है जब सांध्य काल शत शत वर्षों का प्रतीत होता है। किनकी भवें तनी हुई हैं.. अंबर पर कौन सा जलद जाल छाया हुआ है और क्यों भारत के प्रांत दर प्रांत भ्रांतियों में घिर रहे हैं ? मुगलिया सल्तनत में जब भारतीय संस्कृति का ह्रास हो रहा था और सनातनी सभ्यता एक शून्य में विलोपित हो रही थी तभी भक्ति आंदोलन के स्तंभ, प्रकाशपुंज तुलसी का जन्म हुआ था। यह अनायास नहीं है कि तुलसीदास को निराला सांस्कृतिक नायक के रूप में स्थापित करते हैं। निश्चय ही निराला अपने माध्यम से हिन्दी में कुछ वैसा ही जागरण लाना चाहते थे जैसा कि तुलसी लेकर आए। बल्कि सरोज स्मृति, राम की शक्तिपूजा और तुलसीदास इन तीनों ही काव्यों में अन्तर्गुंफित सिम्फनी को समझते हुए इसे देखना बेहतर होगा। सरोज स्मृति में एक हताश पिता है, युवा पुत्री की अकाल मृत्यु पर विलाप करता हुआ, अमावस के अंध घटाटोप में घिरा हुआ असहाय दरिद्र पिता।
तू गई स्वर्ग क्या यह विचार/ कि जब पिता करेंगे मार्ग पार/यह अक्षम अति तब मैं सक्षम/ तारूंगी कर गह दुस्तर तम
इस कविता में करुणा की नीलिमा है, भावुकता का उच्छवास है, दुख के विस्तृत पाट हैं और उन दोनों ही पाटों पर स्याह अंधकार है। जिसका चरम बिन्दु है-
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म रहे नत सदा माथ…
कन्ये गत कर्मों का अर्पण
कर करता मैं तेरा तर्पण..
राम की शक्तिपूजा में यही संघर्ष राम का है। जो राम कभी रावण को अंक लिये शक्ति की भीमा मूर्ति से घबराते हैं, जो राम बार-बार जानकी के उद्धार न हो पाने की आशंका से घिरे रहते हैं, जो राम देवी की परीक्षा से विकल होकर अपनी आंख ही सौंपने को उद्य़त हो जाते हैं। वहीं राम अंतत: जयी होते हैं।
साधु-साधु साधक धीर धर्म धन धन्य राम
कह लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम
लेकिन अब भी संस्कृति का प्रश्न अनुत्तरित है। वह प्रश्न सरोज स्मृति में भी था। सांस्कृतिक दैन्य का प्रश्न कि हिन्दी का विराट कवि अपनी पुत्री के मरण पर असहाय क्यों है। पर तब कवि अपने कविकर्म को ही कोसते हैं। क्यों देश और समाज को कोसना ! वही प्रश्न राम की शक्तिपूजा में राम के संघर्ष का है, जहां उत्तर स्वयं राम देते हैं, वहां संघर्ष जरा भिन्न है लेकिन इन तीनों ही कविताओं में अन्तर्गुंफित सांस्कृतिक सिंफनी के जटिल प्रश्न का उत्तर तुलसीदास कविता में है और उत्तर राम नहीं बल्कि राम के अनन्य आराधक और भक्त कवि तुलसीदास देते हैं।
कल्मषोत्सार कवि के दुर्दम
चेतनोर्मियों के प्राण प्रथम
वह रुद्ध द्वार का छाया तम तरने को
करने को ज्ञानोद्धत प्रहार
तोड़ने को विषम वज्र द्वार
उमड़े भारत का भ्रम अपार हरने को
जो कवि अशेष छविधर है, जिसका स्वर भर भारती मुखर होने वाली है, वही सभ्यता के उस संकट का वज्रद्वार तोड़ने के लिए उमड़ता है। जो भ्रम इस्लामिक कला के नाम पर फैलाया गया है उसका हरण तुलसीदास करते हैं। इतने विकट प्रश्न को उठाने वाली एक महान कविता को आलोचकों ने सिर्फ इसलिए उतनी महत्ता नहीं दी क्योंकि उन्हें इस कविता में सांप्रदायिकता, जनेऊधारी पंडित निराला की बू आती थी। लेकिन सच तो यह है कि उनकी आत्मा का आयतन इसे झेलने के लायक नहीं था। उनमें इतनी शक्ति, ईमानदारी नहीं थी कि तुलसीदास कविता में उठाए गए सांस्कृतिक सवालों की चिन्गारी से खेल सकें। पर तुलसीदास कविता के बहाने जो सवाल निराला ने अस्सी साल पहले पूछे थे, वही सवाल आज भी प्रासंगिक हैं। और प्रासंगिक यह है कि आज भारत का अपार भ्रम हरने के लिए कौन उमड़ेगा।
देवांशु झा। झारखंड के देवघर के निवासी। इन दिनों दिल्ली में प्रवास। पिछल दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। कलम के धनी देवांशु झा ने इलेक्ट्रानिक मीडिया में भाषा का अपना ही मुहावरा गढ़ने और उसे प्रयोग में लाने की सतत कोशिश की है। आप उनसे 9818442690 पर संपर्क कर सकते हैं।