पशुपति शर्मा
आर्ट सर राजेंद्र प्रसाद गुप्ता के साथ पहली सीटिंग 4 जून 2017 को हुई थी। उसकी दो कड़ियां आपके साथ मैं साझा कर चुका हूं। दूसरी सीटिंग तीन माह बाद 4 सितंबर को हुई। इस दौरान सर की सेहत में काफी बदलाव आया है। ट्रीटमेंट का सेंटर भी बीएल कपूर से बदलकर मैक्स अस्पताल, पटपड़गंज हो गया है। दिल्ली का पूर्वी छोर। गाजियाबाद, मैं जहां रहता हूं, वहां से करीब। इस दौरान कई मुलाकातें हुईं। शिक्षक दिवस भी आया। पूर्णिया नवोदय के कई साथियों के साथ अस्पताल में ही लंबी बातें भी हुईं, लेकिन बातचीत को समेटकर आपसे साझा करने का मौका नहीं निकाल सका। दीपावली और छठ की शुभकामनाओं के साथ बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाता हूं।
शादीपुर मेट्रो स्टेशन के करीब का वो मकान अब भी आर्ट सर राजेंद्र प्रसाद गुप्ता का अस्थायी ठिकाना बना हुआ है। चूंकि वक्त पहले से ले रखा था, 4 सितंबर की दोपहर पहुंचा तो आर्ट सर बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए तैयार थे। कला महाविद्यालय के जिन गलियारों में हमने पिछली बातचीत को विराम दिया था, फिर से उन्हीं गलियारों में तांका-झांकी शुरू हो गई।
राजेंद्र प्रसाद गुप्ताजी ने बताया, कला महाविद्यालय के बाद आगे की यात्रा आसान नहीं थी। सबसे बड़ी दिक्कत आर्थिक थी। घर से बहुत अधिक सहयोग मुश्किल था। कला महाविद्यालय में पढ़ाई जारी रखने के लिए कम से कम 2000 रुपये प्रति माह चाहिए थे। चिंता थी कि रहा कहां जाए? खाना कैसे खाया जाए ? और सबसे बड़ी चिंता ये कि कला सामग्री की व्यवस्था कैसे हो? इन सारी चिंताओं से मुक्त करने में गुरु और कला महाविद्यालय के प्राचार्य जेके महासेठ ने बड़ी अहम भूमिका निभाई। उन्होंने अपने गैरेज के बगल में जो स्टोर था, वहां मुझे रहने की इजाजत दे दी। इतना ही नहीं उन्होंने शुरुआती दिनों में मेरे खान-पान के लिए आर्थिक मदद भी दी। एक शिक्षक की इस ममता और अपनत्व के बावजूद मेरी इच्छा होती कि अपनी इस कला-यात्रा को आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक इंतजाम भी स्वयं करूं, स्वावलंबी बनूं।
उन दिनों को याद कर राजेंद्र प्रसाद गुप्ता के चेहरे पर एक मुस्कान आ जाती है, जिसमें संघर्ष के दिनों को लेकर खुशी, संतोष, सम्मान और गर्व का मिला-जुला भाव दिखता है। तब तक उन्होंने मंडलजी की चाय की दुकान ढूंढ ली थी। यहां वो अपना बचा हुआ वक्त दिया करते और बदले में उन्हें कुछ पैसे मिल जाया करते। कॉलेज के बाद स्टेशन और बस स्टैंड पर चाय बेचा करते। आज चाय की दुकान का जिक्र करते ही जिस तरह के बिम्ब हमारे जेहन में उठा करते हैं, उससे कहीं अलग बिम्ब राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की यादों में कैद हैं।
बात आगे बढ़ाते हुए राजेंद्र प्रसाद गुप्ता कहते हैं- आर्थिक इंतजाम हो जाने के बाद कला सीखने का जुनून हावी हो गया। रात आठ बजे के करीब मंडलजी की चाय की दुकान बंद हो जाया करती। रात 8 बजे से 12 बजे तक स्टेशन पर ही स्केच किया करता। जिंदगी का एक नया तजुर्बा हो रहा था। जिंदगी के छोटे-छोटे ऑब्जर्बेशन भी जेहन में कैद हो रहे थे। प्लेटफॉर्म पर अलग-अलग मुद्राओं में लोग दिखते। अलग-अलग भाव लिए चेहरे। कोई अकेला तो कोई परिवार के साथ। कोई दौड़ता-भागता तो कोई स्थिर होकर आती-जाती ट्रेनों को निहारता रहता। कोई दो-चार पैसों के लिए सामान लिए आवाज लगाता रहता।
राजेंद्र प्रसाद गुप्ता जब सेकंड ईयर में आए तो आर्थिक स्थिति थोड़ी सुधरी। उन्हें एक दवा दुकान पर नौकरी मिल गई। शाम का वक्त अब इसी दुकान पर गुजरता। तब 200 रुपये हर महीने इस नौकरी से मिलने लगे थे। कहने की जरूरत नहीं कि दवा की दुकान पर रहते हुए आदमी दुख और पीड़ा के कितने शेड्स हर दिन देखता है। खास कर दरभंगा जैसे इलाके, जहां लोगों के पास इलाज के लिए पैसे न हों। इसी दौरान डॉक्टर आर सत्यवती ने अपने दोनों बेटों को पेंटिंग सिखाने के लिए आमंत्रित किया। अर्थतंत्र पर आपकी पकड़ मजबूत होती गई और साथ ही मजबूत होता गया इरादा, पक्का होता गया एक कलाकार। जो कमाई हुई उसका बड़ा हिस्सा आर्ट मैटेरियल खरीदने में लगा, और ढेर सारे स्टडी चित्र बनाने का सिलसिला जारी रहा।
राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की कला यात्रा-तीन
एक बार फिर चेहरे पर खुशी के भाव तैर गए। उन्होंने इसे लफ़्ज़ों में कुछ यूं बयां किया-मेरी खुशी का तब ठिकाना न रहा, जब पहली बार बिहार राज्य युवा महोत्सव, शिल्प कला परिषद के पटना के वार्षिक चित्रकला प्रदर्शनी के लिए चयनित और पुरस्कृत हुआ। ये वो वक्त था जब थर्ड ईयर में कुछ अलग प्रयोग मैं शुरू कर चुका था। वास्तविक आकृतियों को विकृत कर भाव स्थापित करने की कोशिश मैंने शुरू की। इसके लिए ‘सूरियलिज़्म’ (अतियथार्थवाद) का सहारा लिया। एक तरफ जहां अभिव्यंजनावाद, अतियथार्थवाद, घनवाद इत्यादि शैलियों के चित्रों का अध्ययन पूरे मनोयोग से चलता रहा, वहीं दूसरी तरफ वास्तविक चित्रण और भारतीय कला परंपरा के चित्रों का अध्ययन भी जारी रखा।
चित्रकला के क्षेत्र में लगन और मेहनत की वजह से पहचान बनने लगी। राजेंद्र प्रसाद गुप्ता के लिए सबसे अच्छी बात ये रही कि उनकी कलाकृतियों को अलग-अलग कला प्रदर्शनियों से न्योता मिलने लगा, चित्र प्रदर्शित होने लगे। पुरस्कार मिलने लगे और यही आय का साधन बन गया। चार से पांच हजार रूपये तक की आमदनी इन कला प्रदर्शनियों के जरिए होने लगी। राजेंद्र प्रसाद गुप्ता के भारतीय कला परंपरा के चित्र, वाश टेक्नीक को नया आयाम दे रहे थे।
इसी दौरान 1984 में एक दुखद घटना हुई, जिस पिता से लड़-झगड़ कर लाल बाबू ने कला की दुनिया का रूख किया था। वो पिता लाल बाबू के बतौर कलाकार मुकम्मल होने के शुरुआती दौर में ही आंखों से ओझल हो गए, हमेशा के लिए। पिता की जिद ही थी कि कला के इस संघर्ष के बीच ही राजेद्र प्रसाद गुप्ता को शादी के लिए हामी भरनी पड़ी थी। 1982 में पिता ने अपने मित्र की पुत्री अनीता गुप्ता के साथ राजेंद्र प्रसाद गुप्ता का पाणिग्रहण संस्कार संपन्न किया। लाल बाबू पिता ठाकुर प्रसाद गुप्ता को सबसे ज्यादा प्यार करते थे। शायद ख्वाहिश भी यही थी कि पिता के कई अधूरे अरमान अपनी कामयाबी की उड़ान के जरिए पूरा करेंगे। लेकिन पंछी तो उससे पहले ही उड़ चला अनंत की ओर।
बीएफए के फाइनल इयर का ये साल एक बड़े भावनात्मक झटके के बीच गुजरा। इस घटना से उद्वेलित राजेंद्र प्रसाद गुप्ता पूरी तरह से कला रचना में डूब गए। इसी दौरान दुर्गा सप्तशती में वर्णित देवी दुर्गा के 10 रूपों का चित्रण वॉश पेंटिंग तकनीक के जरिए किया। चित्र रचना में विभिन्न तरह के प्रयोग चलते रहे। छापा चित्र, मिथिला शैली को लेकर भी अपनी रचनात्मकता का प्रदर्शन किया।
1984 में बीएफए की डिग्री हाथ में आने के बाद सबसे बड़ा सवाल था- आगे क्या? ट्यूशन, पोट्रेट, पंपलेट, पोस्टर, बुक कवर डिजाइन और शो-कार्ड को आय का स्रोत बनाया। इससे बात नहीं बनी तो राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ने काम की खोज में 1985 में दिल्ली का रुख किया। दिल्ली में कुछ सीनियर्स की मदद से 600 रुपये प्रति माह की नौकरी मिली। पब्लिकेशन हाउस में इलस्ट्रेशन बनाने का काम था। गढ़ी स्टूडियो में काम के दौरान ख्याति प्राप्त और नवोदित चित्रकारों-मूर्तिकारों से संपर्क हुआ। हालांकि जिन उम्मीदों के साथ राजेंद्र प्रसाद गुप्ता दिल्ली आए थे, वो पूरी नहीं हो पा रही थीं। कला क्षेत्र में अपना स्थान बनाने की छटपटाहट बरकरार थी। इलस्ट्रेशन का काम उबाऊ और समय की बर्बादी लगने लगा। इसी उधेड़बुन में 1986 में आप दरभंगा लौट गए। हंसते हुए कहते हैं- मानो लौट के बुद्धू घर को आ गया।
राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ने अब कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा में चित्रकला के मास्टर डिग्री में नामांकन ले लिया। अब वर्क प्रोफाइल में शादी-विवाह का डेकोरेशन भी जुड़ गया। जितने ज्यादा विकल्प बढ़े, आर्थिक संघर्ष उतना ही कम होता गया। पुनः कला प्रदर्शनियों में कृतियां भेजने का सिलसिला शुरू हो गया। 1986 में मिथिला यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर ने आपकी प्रतिभा को देखते हुए एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी। यहां गांधी सदन में गांधी से जुड़े चित्रों की एक बड़ी प्रदर्शनी लगनी थी और राजेंद्र प्रसाद गुप्ता को उन्होंने इसके लिए उपयुक्त माना। गांधी के जन्म से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन में उनके संघर्ष तक, अहिंसा के इस पुजारी को गांधी सदन में आपने साकार किया। राजेंद्र प्रसाद गुप्ता के बनाए गए विशालकाय चित्र आज भी इस प्रदर्शनी की शोभा बढ़ा रहे हैं।
1988 में एक तरफ एमएफए की डिग्री हासिल हुई तो दूसरी तरफ ज़िंदगी में भी एक पायदान आगे बढ़ गये– अब आप ‘पापा’ बन गये एक नन्ही जान के। बिटिया का नाम श्रुतिस्मिता रखा, आज की तारीख में वो काफी बड़ी हो चुकी है। इतनी बड़ी कि पिता राजेंद्र प्रसाद गुप्ता श्रुतिस्मिता की शादी की तैयारियों में जुट गए हैं। नवंबर महीने में बतौर पिता राजेंद्र प्रसाद गुप्ता एक बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन करने जा रहे हैं।
(नवोदय विद्यालय परिवार के साथ कैसे जुड़ा नाता, अगली कड़ी में इस पर होगी बात)
पशुपति शर्मा ।बिहार के पूर्णिया जिले के निवासी। नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से संचार की पढ़ाई। जेएनयू दिल्ली से हिंदी में एमए और एमफिल। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। उनसे 8826972867 पर संपर्क किया जा सकता है।
प्रभात रंजन- मैं नवोदय बेगूसराय से राजेन्द्र सर को जानता हूं ,बहुत वक्त सर के साथ गुजरा है,पर आपने जो बातें सर पर लिखी है पढ़ कर मालूम होता है कि मेरी सर से पहचान मात्र थी,जाना तो अब हूँ।आपको,सर के जीवन की इन खूबसूरत यादों जो प्रेरणाओं से भरी है और संघर्ष के लिए ऊर्जा देने वाली है,को इतनी खूबसूरती से पिरोने एवं हम सब तक पहुंचाने के लिए धन्यवाद।