धीरेंद्र पुंढीर
लोकगीतों का सिलसिला अनंत है। देश के हर हिस्से में अंग्रेजों को मार भगाने की ललक उनके लोकगीतों में दिखती है। लोकाचार में दिखाई देती है। लेकिन जिन गीतों ने इस देश को आज़ादी दिलाई, आज वो कहीं गुम हो गए। इतिहास की किताबों से भी गुम। इतिहास लिखने वाले जाने क्या इतिहास लिख रहे हैं, जिसको पढ़ कर लोग ‘साहेब’ तो बन रहे हैं लेकिन हिंदुस्तानी नहीं।
क्रांति के लोकगीत-दो
हरियाणा के लोकगीत
लंदन तक छाप्पै छपग्ये राजा राव तुलाराम
रोट्टी सूदकै छावड़ी घीव कटोरा माहीं
( राव तुलाराम के वीरों ने अपने साहस का परचम फहराया और गोरों को छठी का दूध याद दिला दिया था)
सुणो फौज, अहीरवाल आज मेरे भाई।
माता जन्मे एक बार दुबारा नाहीं।
यो छत्री की नाक डरो रण माहि
तम सिंह की सांग्य बणाल्यो छाती ढाल।
हिया करल्यो बज्जर का देह करो दिवाल।
आज झगड़ा मंडग्या दी पै चौदा की साल
कर देस की रकसा चाल, लाल मेरे सज धज के
सुन दसमन ने सीमा तेरी
चारां चरफ से घेरी
क्या इसका नहीं ख्याल, लाल मेरे सज धज के।
( अहीरवाल के वीर सैनिक सुनो। माता वीर पुत्रों को एक बार ही जन्म देती है। तुम छाती निकाल कर सिंह की तरह बन जाओ। अपने ह्दय को वज्र व शरीर को मजबूत बना लो। आज संवत 2014 में अपने दीन ईमान यानि देश की स्वतंत्रता और धर्म की रक्षा के लिए युद्ध हो रहा है। मेरे लाल सज धज के जाओ और देश की रक्षा करो)
पर्वतीय क्षेत्र के लोक गीत
कंपनी का भारत में देख अत्याचार
बारत का लोग उठा हैगे मारामार
(कंपनी का अत्याचार देखकर भारत की जनता क्रांत्रि कर रही है।)
बलि म्यारा गाड़ि दे, सुआ दो नाई बंदूक
सुआ मुरली समाव, म्यारा चांदी का सिंदूक
(यह समय मुरली की धुन में खोने का नहीं है, मेरी मुरली को चांदी की संदूक में बंद करके मेरे हाथ में बंदूक दे दो)
बण गांधी सिपाई रहटा कातुला,
देश का लिजिया हम मरि मिटुला।
मेरा मुल्कीया यारो जै गांधी की बोल
झन चूकिया मौका छ जुगति अमोल।
(हम गांधी के सिपाही बनकर रहट कातेंगे और अपने देश के लिए मर मिटेंगे। यह अवसक हाथ से नहीं जाना चाहिए। इसीलिए गांधी जी की जय बोलो)
चला भुलों भर्ती है जौला,
जवाहिर दादा की पलटन मा।
भला-सुजला खद्दर पैरो,
और रंगीला जवाहिर कोट मा।
मर-मिटुला देश का बना,
घडर-छोडला दादा जवारी का साथ मा।
(चलो भूलौ ( छोटे भाईयों ) जवाहर दादा ( बडे भाई ) की फौज में भर्ती हो जाएं। जवाहर की फौज की वर्दी खद्दर की है। उनके जवाहर कोट को पहनकर हम भी बन-ठनकर और सज-धजकर रहेंगे। भाईयों कितना अच्छा त्यौहार है देश पर मर मिटने का, आओ हम भी दादा के साथ घर छोड़़कर देश पर मर मिटें)
आदिवासी लोक गीत
हम भारत के गोंड-बैगा, आजादी ख्यार।
अंग्रेजन ला मार भगाओ, भारत ले रे।
हम भैय्या छाती अड़ायो, हम तो खून बहाओ भारत ख्यार।
अंग्रेजन ला मार भगाओ, भारत ले रे।
हम भारत के भाई-बहने, मिलके करवो रक्षा,
अंग्रेजन को मार भगाओ, करवो अपना रक्षा, भैया भारत ख्यार।
अंग्रेजन ला मार भगाओ भारत ले रे।
हम भारत के गोंड-बैंगा, कर देवो जान निछावर,
भैया भारत ख्यार।
अंग्रेजन ला मार भगाओ, भारत ले रे।
(हम भारत के रहने वाले आदिवासी गोंड और बैंगा हैं। हममें भी स्वतंत्र रहने की लालसा है, इसीलिए हमें अपनी छाती पर चाहे गोलियां झेलनी पड़े और खून बहाना पड़े लेकिन हम भारत की रक्षा करेंगे। हम सभी गोंड-बैगा भाईयों से अनुरोध करते हैं कि वे यह महसूस करें कि देश पर प्राण न्यौछावर करने का अवसर आ गया है।)
भरत भैया अंग्रेज से करो रे लड़ाई
कुन धरे टंगिया, कुन धरे नलुआ, कुन धरे तील गुलेला।
मर्द तो धरे तोरे अंगिया रे टंगिया,
नारी धरेन तो फरसा जंगल के रहने वाले बैगा रे भैया, वा धरे तीर गुलेला।
गोंड भैया धरे म भहे जेहर की गोलियां।
(भाईयों अंग्रेंजों से लड़ाई में कौन टंगिया, बल्लम, तीर -गुलेल चलाएगा, हमें इसका निर्णय पहले ही कर लेना चाहिए। इस स्वतंत्रता संग्राम में पुरूष अपने कंधों पर टंगियां रखेंगे और महिलाएं हाथ में फरसा लेकर चलेंगी। जंगल में रहने वाले बैगा भाई भी इस लड़ाई में तीर गुलेल चलाकर हमारा साथ देंगे। गोंड लोग अपनी बंदूकें चलाएंगे और उनमें ज़हर से भरी गोलियां रखेंगे।)
उत्तर भारत के लोकगीत
अरे तेरी बहन भगत सिंह, रोवे नदी के तीर
बहन तेरी नदी डोलै, वीर अपने की लाश टटोलै
वीर मुख से ना बोलै, मैया का जाया मेरा वीर
तेरी बहन भगत सिंह, रौवे नदी के तीर
( ये भगत सिंह की फांसी के बाद गांव गांव में गीत गाते हुए जोगियों का लोकगीत है)
लबालब कटोरा भरा खून से, फिरंगी को मारा बड़ी धूम से।
लबालब कटोरे में हल्दी पड़ी, फिरंगी के लश्कर में भग्गी पड़ी।
रिसाले से बोले सुनो जनरैल, नए कारतूसो से मारा करो।
वो गोरे फिरंगी जो थे उनके, सिपाहियों ने उनके लगाई थी लात।
2.
फिरंगी लुट गयो रे, हाथुस के बाज़ार में
गोरा लुट गये हाथुस के बाज़ार में
टोप लुट गयो, घोड़ा लुट गयो
तमंचा लुट गयो रे, जाकौ चलते बाजार में।
धीरेंद्र पुंढीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंढीर की अपनी विशिष्ट पहचान है।
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