ब्रह्मानंद ठाकुर
उस चुनाव में रामवृक्ष बेनीपुरी कटरा दक्षिणी विधानसभा क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे। उनका मुकाबला कांग्रेस के नीतीश्वर प्रसाद सिंह से था। चुनाव क्षेत्र में 190 गांव थे। तब लोकसभा और विधानसभा का चुनाव एक साथ कराए जाते थे। वोटिंग एक दिन नहीं कई-कई दिनों तक होती थी। लिहाजा चुनाव प्रचार भी काफी लंबा चलता और उस दौरान खूब गहमा-गहमी रहती । तब आज की तरह चुनाव प्रचार हाइटेक नहीं हुआ करता था। बेनीपुरी जी का मानना था कि चुनाव में व्यक्तिगत जनसम्पर्क से बढ़ कर प्रचार का दूसरा कोई कारगर तरीका नहीं हो सकता। लिहाजा उन्होंने यही तरीका अपनाया।
बाढ़ग्रस्त इलाके की बदहाल और टूटी-फूटी सडकें, कीचड़ और गड्ढों वाला रास्ता। उससे होकर गांव-गांव, गली -गली सघन जनसम्पर्क। कोई गांव-मुहल्ला जनसम्पर्क से छूटे नहीं। बड़ा चुनौती भरा होता था वह चुनावी जनसम्पर्क अभियान। अक्सर बैलगाड़ी और कभी-कभी जीप से बेनीपुरी जी चुनाव प्रचार के लिए अपने क्षेत्र में भ्रमण करते रहते थे। अपनी ‘डायरी के पन्ने ‘ पुस्तक में बेनीपुरी जी ने इस बात का उल्लेख इन शब्दों में किया है ‘जानीपुर के सत्कार ने खड़िका की सभा को बर्बाद किया और खड़िका की सत्कार दिन भर परेशान किए रहा। देर से चले, बैलगाडी की सवारी ढकचों , ढकचों फिर धूल और भर दिन चले ढाई कोस। रास्ते में बैल बदले, फिर पैदल दौड़े, अंत में 14 वर्षों के बाद साइकिल पर चढ़ना पड़ा। खैर, अंत में जीप मिली और समय पर सभा में पहुंच सका। ‘ उनके एक मित्र महेश्वर बाबू ने चुनाव प्रचार के लिए ड्राइवर सहित एक जीप उपलब्ध करा दिया था। तब के चुनावी मुद्दे और नारे आज जैसे नहीं थे। अब तो चुनावी नारे ऊपर से थोपे जाते हैं किसी दल या व्यक्ति विशेष को महिमामंडित करने के लिए। लेकिन उस चुनाव में शोषित-पीडित जनता ने अपने जीवन स्तर में बदलाव लाने वाले नारे खुद गढे थे ‘ मांग रहा है हिंदुस्तान, रोटी, कपड़ा और मकान, कमाने वाला खाएगा। बच्चे-बच्चे की ललकार; बदलो, बदलो यह सरकार, जमीन को फिर से बाटेंगे; सब मिल करके जोतेंगे, नया बनेगा खतियान और नक्शा; सोशलिस्ट पार्टी का पेड वाला बक्सा। ‘ बेनीपुरी को देखते ही इन नारों के साथ फिजां में बेनीपुरी जिंदावाद के नारे भी गूंजने लगते थे।
अपनी ‘डायरी के पन्ने’ किताब में वे लिखते हैं ‘ जब-जब यह जिन्दाबाद का नारा सुनता हूं, सिहर उठता हूं। यह जिन्दाबाद बेनीपुरी नामक व्यक्ति का नहीं है , इतना तो समझता ही हूं। यह जिन्दाबाद है उन सपनों का, जिन्हें आजकल मैं बिखेरते फिर रहा हूं। मैंने कई मित्रों से कहा है; मैं वोट नहीं मांगता, मैं सपने बो रहा हूं। सपने, नये जीवन के सपने, सुन्दर, स्वस्थ और सम्पन्न जीवन के सपने। जब लोगों से कहता हूं, हमें एक ऐसा देश बनाना है जिसमें बच्चों के बदन पर पूरे गोश्त हों, उनके गालों पर लाली हो, उनकी आंखों में कीचड़ और बालों में जूएं नहीं हों, वे रंग-विरंगे वस्त्रों से आच्छादित हों, वे किलकारियां मारते हों, उछलते हों ,कूदते हों।हमें एक ऐसा देश बनाना है, जहां जवानों की आंखें धंसी न हों, गाल पिचके न हों , छाती सिंकुडी न हों, जो सबल हों, चौड़ी छाती वाले, बलिष्ठ भुजाओं वाले, दृढ धारणा वाले; जो झूमते चलें तो धरती थंसके, जो ठठाकर हंसे तो आसमान गुंजित हो उठे। हमें एक ऐसा देश बनाना है, जहां बुढापा अभिशाप नहीं हो, सूखी टांग, झुकी कमर , हाथ में लाठी लिए, कंकाल ऐसे लोग जहां घूमते-फिरते दिखाई नहीं पडें। जहां की बच्चियां तितलियां हों, जहां की युवतियां मधुमक्खियां हों, जहां की वृद्धाएं आशीर्वाद बिखेरतीं हों। ‘
‘ हां, हमें एक ऐसा देश बनाना है, जहां गांवों में गंदगी नहीं हों, जहां खेतों में अन्न की बालियां और फलियां लहराएं ! जहां किसान आसमान का गुलाम न हों; जहां नदियां बाढ़ से कहर न ढाएं जहां सभी सुखी हों, सानंद हों, सुंदर हों, सम्पन्न हों— जब ऐसी बातें कहता हूं तो लोग हैरत से मेरे मुंह की ओर देखते हैं। आंखें सबकी चमक उठती है, किसी की आश्चर्य से, किसी की आनंद से। ‘ ऐसा था नये भारत के निर्माण का उनका सपना। उस चुनाव में पैसे का अभाव बेनीपुरी जो को हमेशा खटकता रहा। जब चुनाव खत्म हुआ तब उन्होंने खर्च का हिसाब लगाया । ‘पांच हजार नगद और 25-30 मन चावल।’ आज पाठकों को यह खर्च भले ही काफी कम लगे लेकिन तब बेनीपुरी जी के लिए इतने का भी जुगार कर पाना बड़ा मुश्किल था। जब चुनाव परिणाम घोषित हुआ तो बेनीपुरी जी को करीब चार हजार मतों से पराजित घोषित कर दिया गया। उनके प्रतिद्वन्द्वी कांग्रेस प्रत्याशी नीतीश्वर प्रसाद सिंह चुनाव जीत गये थे। इस बारे में 9 फरवरी 1952 को अपनी पुस्तक ‘ डायरी के पन्ने ‘ में बेनीपुरी जी लिखते हैं ‘ परसों मेरे चुनाव का नतीजा निकला और मैं हार गया !
मैं हार जाऊंगा, इसकी कल्पना भी नहीं थी। उस दिन अवधेश्वर ने भी कहा था , तुम तीन हजार वोटों से जीत रहे हो। खुद भी हिसाब जोड़ कर देखता था, कहीं भी कोई बात ऐसी नहीं थी कि समझूं, मैं हार जाऊंगा। किंतु, कैसा तमाशा, जब मैं पटना से मुजफ्फरपुर आया, मतगणना के लिए, उसके पहले ही शहर में शोर था कि मैं चार हजार वोटों से हार रहा हूं और वही हुआ।यह कैसा जादू ? मेरे साथी कहा करते थे कि बेईमानियां हुईं तो मुझे विश्वास नहीं होता था। मै सोंचता था, इतनी और ऐसी-ऐसी बेईमानियां कैसे होगी? किंतु, यह अपने ही ऊपर आ पड़ी, तो सोंचने को लाचार होना पड़ता है। यदि ऐसी हालत रही तो जनतंत्र कैसे चलेगा ? जहां के अफसर बेईमान हों, जिनके हाथ में चुनाव का संचालन है, वे ही बेईमानियां करने पर तुले हों तो फिर जनतंत्र का सफल संचालन कैसे सम्भव है ? ‘ वे फिर आगे लिखते हैं ‘उस दिन मैं मुजफ्फरपुर खादीभंडार में एक काम से गया । चुनाव के लिए गये एक क्लर्क ने बताया कि किस प्रकार वह प्रतिदिन पचास वोट अवधेश्वर और पचास वोट नीतीश्वर के बक्से में डाल देता था। वह मुझे नहीं पहचानता था। उसकी बात सुनकर ही मेरा माथा ठनका। किंतु मैंने मान लिया कि मेरे साथ ऐसा नहीं किया गया होगा।
किंतु, उस दिन नीतीश्वर से भेंट हुई, तो उसने जो रुख लिया और मेरी हार पर उसने जैसा जश्न मनाया, उससे प्रकट हो गया कि मेरे हराने की साजिश में उसका भी हाथ था और उसके दो प्रधान पात्र तो हैं ही महेश बाबू और सुलेमान एसडीओ। इस एसडीओ ने शुरू से ही ऐसा रुख लिया कि मालूम होता था किसी और गैर कांग्रेसी आदमी को यह जीतने नहीं देगा। ओह, यही हुआ। सदर सबडिवीजन में एक भी सोशलिस्ट विजयी नहीं हुआ। इसके विपरीत सीतामढी के एसडीओ ने ईमानदारी से काम किया तो वहां 5 कांग्रेसी हारे। नतीजा उस बेचारे की बदली कर दी गई है। महेश बाबू ने ठीक ही किया मैंने कहला दिया था या तो वह मुझे हरा दें या मैं उन्हें हरा दूं। मैं उन्हें नहीं हरा सका। उन्होंने सारे प्रपंच रचकर मुझे हराया। इसके लिए उन्हें बधाई।’
( आलेख की तीसरी कड़ी में 1957 का विधानसभा चुनाव जब तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच बेनीपुरी जी ने कांग्रेस के मुकाबले आखिर चुनाव जीत ही लिया।)