हम ये कैसी पत्रकारिता कर रहे हैं?

दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक।
 दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक

पत्रकारिता में रहते हुए पत्रकारिता धर्म निभाने की ललक पता नहीं कितने पत्रकारों में बची रह गई है? लेकिन ऐसे में जब कोई तल्खी से आईना दिखाता है तो अच्छा लगता है। चेन्नई में तबाही के बीच मीडिया के मूल्यों पर दैनिक भास्कर के 5 दिसंबर के अंक में कल्पेश याग्निक ने ‘असंभव के विरुद्ध’ कॉलम में जिन मुद्दों को छेड़ा है, उसे याद रखा जाना चाहिए। केदारनाथ के बाद कश्मीर, बिहार के बाद चेन्नई की तबाही के इंतज़ार में नहीं, बल्कि सतत सजग रहने के लिए ये बेहद जरूरी है। पेश है कॉलम का कुछ अंश 

 

कल्पेश याग्निक

 ‘जानते हैं अभी तक ‘हिन्दुओं ने मुस्लिम बस्ती में दिया पहरा’, ‘मुसलमान भाइयों ने बहती हिन्दू बच्ची को बचाया’ -जैसी खबरी चेन्नई से क्यों नहीं आईं? क्योंकि न तो बचाने वालों के पास मीडिया को अपना परिचय देेने का समय है, न बचने वालों के पास। बाद में ढूंढ लाएंगे। – एक निरपेक्ष कटाक्ष
महान तमिल महाकाव्य सिलापतिकरम में पानी की प्रचंडता का वर्णन है। ‘रौद्र लहरों की ऊंचाई जैसे पहाड़ों के बराबर थी। धरती पर इकट्‌ठा हो – पानी जैसे गरजकर काले बादलों को छू रहा था।’ ये भयावहता कोई दो हजार वर्ष पहले महाकवि एलांगो अड़िंगल ने उक्त ग्रंथ में लिखी थी – जिसे तमिल साहित्य के सर्वश्रेष्ठ पांच महाकाव्यों में स्थान प्राप्त है। किसे पता था ऐसा ही कुछ दृश्य इस आधुनिक युग में, 21वीं सदी में अाएगा।
साभार- dinakaran daily
साभार- dinakaran daily

किन्तु चेन्नई वासियों ने समूचे संसार को दिखा दिया कि भीषण त्रासदी में डटे कैसे रहना। कैसे जीना। कैसे जीत जाना।
प्रथम भारतीय जो ठहरे- द्रविड़। इसी तरह देश ने भी दिखा दिया। कि कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होना किसे कहते हैं। सेना किसे कहते हैं। किन्तु एक अपराध बोध मुझ में है। पत्रकार के रूप में। और उसे पाठकों के कन्फेशन बॉक्स के सामने स्वीकार करने का साहस जुटा पाने का कारण है। कारण यह है कि मेरा भी दिल चेन्नई वासियों के लिए धड़कता है। मेरी भावनाएं भी उनके लिए उतनी ही अधिक हैं जितनी उन लोगों की जो वहां उनकी सहायता में अपने आप को झोंके हुए हैं। मैं भी इस महाजलप्लावन में समय पूर्व समाधि ले चुके अनेक माता-पिता, भाई-बहनों के दु:ख से हिला हुआ हूं। मैं, सारा मीडिया, सभी पत्रकार आपके लिए कुछ करना चाहतेे हैं।

 किन्तु इतना कुछ चाहने के बावजूद, पत्रकार के रूप में मैंने यह क्या कर डाला? उसी अपराध की स्वीकारोक्ति।
1. मैंने पहले दिन तो इस भीषण अतिवृष्टि को कवर तक नहीं किया।
2. दूसरे दिन भी मैंने भारी वर्षा तो कवर की -किन्तु ‘नेशनल मीडिया’ में इसे अधिकतर ने पहले दिन प्रमुखता नहीं दी- यह कहकर बचता रहा।
3. फिर पत्रकारिता जाग गई। गंभीरता से। गहराई से।
4. इस बीच सोशल मीडिया ने पहले 24 घंटे मीडिया की चुप्पी पर तीखे प्रहार शुरू कर दिए। तब मेरी आंखें और खुलीं। चेन्नई के नागरिक सुजीत कुमार ने गिनाया कि इस दौरान मीडिया के लिए क्या प्राथमिकता रही (अ) कांग्रेस-भाजपा के बीच छापों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप, (ब) संसद में मंत्रियों के भाषण (स) आमिर खान का बयान उस पर बहस और (द) पूरा पिछला सप्ताह असहिष्णुता पर समाचार-विचार।
5. फिर मैंने देखा चेन्नई की त्रासदी पर समूचा राष्ट्र बात कर रहा है। कोने-कोने में महिलाएं फोन पर पारिवारिक बातें करते-करते चेन्नई में ऐसा हो गया, वो एक सड़क पूरी नदी बन गई, बच्ची को कितनी मेहनत से बचाया-ऐसी बातें करने लगीं।
6. ट्विटर पर एक और तरह से अाक्रोश फूटा। लिखा गया:- ”धन्यवाद। हमारे संकट को कवर करने का। छि। शेम ऑन यू।”
किन्तु मेरा अपराध बोध यह नहीं है। मुझे तो अपनी पत्रकारिता के पुरातन बने रहने का दु:ख है। यानी जो किसी युग में मुझे मीडिया का विशेष काम लगता था – अाज भी मैं उसे ही ढो रहा हूं। जबकि पाठक-दर्शक-श्रोता कभी के आगे बढ़ गए हैं।
तो मेरे अपराधों की सूची यह है:
1. खाने के पैकेट पहुंचाए जा रहे हैं – मैं इसके फोटो छाप रहा हूं। इसके फुटेज दिखा रहा हूं। इसके समाचार चला रहा हूं। क्यों? क्यों कर रहा हूं मैं ऐसा?
2.  सरकार ने ये नहीं किया, वो नहीं किया – मैं यह प्रश्न उठा रहा हूं। पुराने पापों का ब्योरा दिखा रहा हूं। क्यों? क्या हो जाएगा आज ऐसा दिखाने से?
3. नदियों की जमीन पर, तालाबों पर, पोखर पर बड़ी-बड़ी अट्‌टालिकाएं तान दी गई हैं। खुली जमीनों पर कल-कारखाने लगा दिए गए हैं। पर्यावरण को भारी हानि पहुंचाई है। इसलिए बाढ़ आई चेन्नई में। ये बता रहा हूं मैं। क्यों?
4. विदेशों में हो – तो मुझे अच्छा लगता है। आदर्श लगता है। मेरे वतन में होते ही, अवसर संवेदना व संवेदनशीलता दिखाने का आते ही -मैं गांभीर्य त्याग कर- खाने के पैकेट ढूंढ़ने लगता हूं। कमियां, आरोप सब ले आता हूं।
चेन्नई त्रासदी से हम सभी ऐसी सीख ले सकेंगे, असंभव है। किन्तु लेनी ही होगी।

(साभार-दैनिक भास्कर)