पुष्यमित्र
कैमूर जिले के रामगढ़ प्रखंड का एक सुदूरवर्ती गांव है बनका बहुआरा। इस गांव में हर रोज सुबह आठ बज कर पच्चीस मिनट पर एक कॉलेज बस आती है। सुधा कुमारी और उनके जैसी 15 और लड़कियों के लिए। यह बस उन्हें यहां से 21 किमी दूर रामगढ़ स्थित ग्राम भारती बालिका विद्यापीठ ले जाती है और फिर शाम चार बजे तक घर छोड़ देती है। बीएससी की पढ़ाई कर रही सुधा कुमारी कहती हैं कि अगर यह बस नहीं होती तो वे शायद ही साइंस की पढ़ाई कर पातीं, क्योंकि इसके लिए रेगुलर क्लॉसेस की जरूरत होती है। उन्होंने पिछले तीन साल से इस बस से सफर करते हुए पहले आइएससी किया, फिर बीएससी में दाखिला लिया। आइएससी में अपने बेहतर रिजल्ट का श्रेय भी वे इसी बस सेवा को देती हैं।
सुधा कुमारी जैसी 450 ग्रामीण लड़कियों को यह सुविधा उन चार कॉलेज बसों की वजह से हासिल हुई है, जो 2005 में यहां के स्थानीय सांसद ने अपनी सांसद निधि से इस कॉलेज को दी थी। सांसद का अपनी निधि से महिला कॉलेज को बस देना नयी तरह का फ़ैसला था। कॉलेज प्रशासन ने जिस तरह से पिछले 11 सालों से इन बसों को मेंटेन रखा है और बिना किसी अतिरिक्त फंड के इन बसों का संचालन कर रही हैं, यह अपने आप में बेमिसाल है।
इन बसों की वजह से 25 किमी दूर से भी लड़कियां बहुत कम फीस देकर रोज कॉलेज आती हैं। बनका बहुआरा जैसे दूर-दराज के गांवों से आने वाली लड़कियों को इस सुविधा के एवज में सिर्फ 400 रुपये मासिक फीस का भुगतान करना पड़ता है। कुछ लड़कियां 200 और 250 रुपये की फीस देकर इन कॉलेज बसों की सेवा ले रही हैं। यह सब उस जमाने में हो रहा है, जब शहरों में स्कूल बसों की फीस 1500 से 2000 रुपये प्रति माह तक पहुंच गयी हैं।
इन साढ़े चार सौ लड़कियों की कहानी बिहार के ग्रामीण इलाकों की उन लड़कियों के लिए ख्वाब जैसा ही है, जहां कॉलेज ही नहीं हैं। जहां है भी वहां दूरी की वजह से कई लड़कियां रेगुलर क्लॉस नहीं कर पातीं। सुधा बताती हैं कि दूसरे इलाकों में रहने वालीं उनकी रिश्तेदार युवतियां कॉलेज में आर्ट्स विषय लेकर ही पढ़ती हैं। पढ़ती क्या हैं, एडमिशन लेती हैं और परीक्षा देती हैं। रेगुलर कॉलेज जाना-आना क्या होता है, यह अनुभव उन्होंने कभी लिया ही नहीं।
इसी कॉलेज में आइए फर्स्ट इयर में पढ़ने वाली आरती वर्मा कहती हैं कि उनके गांव चंदेश और गांव से सटे एक अन्य गांव मुखरांव से 35 से अधिक लड़कियां रोज कॉलेज आती हैं। ये गांव कॉलेज से 18 से 25 किमी दूर हैं। वे कहती हैं, इन गांवों की कोई लड़की अभी घर में नहीं रहतीं। रोज कॉलेज करने आती हैं।
रामगढ़ स्थित इस महिला कॉलेज में पढ़ने वाली लड़कियों की तादाद किसी भी शैक्षणिक संस्थान के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकती है। यहां साढ़े तीन हज़ार लड़कियां पढ़ती हैं। ये लड़कियां रेगुलर कॉलेज आती हैं। ज्यादातर साइकिल से आती हैं, मगर दूर-दराज से आने वाली साढ़े चार सौ लड़कियों के लिए ये बसें किसी परिकथा सरीखी हैं। कॉलेज की प्राचार्य डॉ. सीतामणि त्रिपाठी बताती हैं कि शिक्षा विभाग के अधिकारियों को भी भरोसा नहीं होता। मैं कहती हूं, आकर देखिये। बस सेवा के बारे में पूछे जाने पर वे कहती हैं, सांसद निधि से दी गयी ये चार बसें पिछले दस सालों से लड़कियों को रोज कॉलेज लाती और छोड़ती हैं। अभी भी इनकी हालत बहुत अच्छी है, आप देख सकते हैं।
वे बताती हैं कि इन बसों के मेंटेनेंस में हर माह 70-72 हजार रुपयों का खर्च आता है। लड़कियों जो फीस देती हैं, वह इस राशि से अधिक ही होती है। हमें इन बसों के संचालन के लिए किसी से कुछ मांगना नहीं पड़ता। इन्हीं पैसों में बसों का संचालन भी हो जाता है और मेंटेनेंस भी। आप बसों को देख सकते हैं, किसी सूरत में ये आपको दस साल पुरानी नहीं लगेंगी।
इस कॉलेज का भवन भी काफी बेहतर है। रोचक यह है कि जहां राजधानी के कई कॉलेजों के पास कंप्यूटर लैब नहीं है, इस कॉलेज का अपना कंप्यूटर लैब है। इस लैब में दर्जन भर कंप्यूटर लगे हैं, हालांकि कंप्यूटर शिक्षिका के अभाव में कंप्यूटर की पढ़ाई फिलहाल नहीं हो पा रही है। कॉलेज में विज्ञान के तीनों संकायों की प्रयोगशालाएं भी हैं। पूर्व सांसद जगदानंद सिंह कहते हैं, जब उन्होंने बसें कॉलेज की दीं तो यह भी कहा जाने लगा था कि इन बसों को डीजल कौन देगा… मगर आज दस साल से अधिक समय होने पर भी ये सेवाएं चल रही हैं। सच तो यह है कि कोई योजना सिर्फ पैसों से सफल नहीं होती, उसके बेहतर संचालन से सफल होती हैं।
(साभार-प्रभात ख़बर)
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।
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