वीरेन नंदा
किस्सागोई के पिछले अंक में आपने पढ़ा कि किस तरह कवि- कहानीकार दोस्तों ने भिक्षा प्रकाशन के लिए एक लाख रुपये का इंतजाम किया और ये बताया कि जिससे कर्ज लिया गया है उसकी शर्त क्या, इसके बाद दोनों दोस्त एक बार फिर रिक्शा लेकर आगे बढ़ चलते हैं ।
रिक्शे पर बैठे-बैठे मंथन मुझे विचलित किये जा जा रहा था। रिक्शा अमर टॉकीज रोड में रुकवाया और उतर कर लेखक से बोला कि काजीब से सिक्योरिटी में पोस्ट डेटेड चेक तो लिया नहीं, आप बढ़े मैं लेकर आता हूँ। इस बात पर वे मुस्कुराएं और अपने शर्ट की ऊपरी जेब से चेक निकाल मुस्कुराते हुए कहा – ‘आप जब बीच में निकले तो उससे ले लिया था। आप भुलक्कड़ ठहरे !इसलिए पहले से तय बातों के तहत उसे चेक काट कर देने को कहा। वो आनाकानी करने लगा तो डपटा…।’ शेखी बघारते अपनी तरफ इशारा कर बात आगे बढ़ाई –
‘आप तो इस राष्ट्रीय लेखक को दो कौड़ी का भी नहीं मानते हैं जबकि मैं आप को मित्र ही नहीं, सदा भाई माना। अब इसी बात पर कुछ होना चाहिए कि नहीं।’ – घिघियाएँ।
‘पूरी बोतल लिए घूम रहे फिर भी मन नहीं भरा ?’ – उनसे चेक ले खुशी से जेब के हवाले करता बोला।
‘यह तो कल भंग करेंगे, आप ही शील तोड़ियेगा कविजी’ – कहते हुए खींसे निपोड़ी। अंततः चेक मिलने की खुशी जाहिर करना हीं था, पुनः रिक्शे पर सवार हो हाथी चौक की ओर चल पड़ा….।
आज सात महीने बीत जाने के बाद जब भिक्षा प्रकाशन के दफ़्तर में हमदोनों दाखिल हुए तो प्रकाशक पति नदारत ! हर शाम जमने वाले अड्डेबाज लेखक-कवियों की सीटें भी खाली ! मेरे उधार लिए रुपयों के तगादों से बच गया आज फिर, धूर्तराज ! वहाँ दिखे तो केवल एक प्रोफेसर कम समीक्षक ! जो आराम से टेबल पर अपनी दोनों टांग पसारे विराजमान थे – बहार विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से च्युत हुए सेवती शरण ! लेखक को देखते हीं वे….’गुरु जी पांए लागू’…कहते हुए न हिले, न अपनी टांग ही हिलायी ! बल्कि उसे टेबल पर उसी मुद्रा में हिलाते रहे ! लेखक बिना उत्तर दिए एक कुर्सी खींच बैठ गए और अपमान का गरल घूंट पीते हुए उसी चिरपरिचित काले बैग से कागज निकाल कलम से झेंप मिटाने की कोशिश करने लगे। सेवती ने उसी मुद्रा में टेबल पर फैलाये टांग को हिलाते हुए कहा -‘मेरी किताब का मूल्यांकन अपनी पत्रिका में नहीं करेंगे गुरुजी ? ‘ इसी बीच बगल वाले टाईपिंग चैंबर से टाईपिस्ट आकर लेखक को प्रूफ दे गया।
‘चलेंगे यहां से’ ? – उसकी बद्तमीजी हरकत से खड़ा-खड़ा गुस्से से मैंने लेखक को कहा तो वे कलम बन्द कर उठे। जब हम बाहर निकल रहे थे तो प्रोफेसर का तंज भरा बाण पीछे से आ चुभा -‘ गुरू जी नमस्कार ‘। उसका, गुरूजी कहने के पीछे का किस्सा याद आ पड़ा ! सेवती शरण कविता में बहुत हाथ पांव चलाये, किन्तु बात न बनी तो समीक्षाएं लिखने का यत्न करने लगे। वैसे तो उनका मूल पेशा प्राध्यापकी था। लेकिन पैसे ख़ातिर विद्यार्थियों को शोध करवाते। रुपये ले शोध लिखते ! एक्सपर्ट मैनेज करते-करवाते ! और इस तरह कितनों को डॉक्टरेट की उपाधि दिलवाई, पता नहीं ! वैसे इस क्षेत्र के वे अकेले महारथी नहीं ! इनसे भी बड़े बड़े सूरमा इस मैदान में माफियाओं की तरह फैले हैं ! कितने सेवानिवृत हिंदी विभागाध्यक्ष अभी भी इस बहुमूल्य काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं ! उन्हीं सब के इ भी चेला हैं। शायद इसी कारण बहार विश्विद्यालय से मिली डॉक्टरेट उपाधि का बिहार से बाहर कोई मूल्य नहीं ! खैर ! इस प्रोफेसर को लेखक बनने से ज्यादा छपने का भूत सवार था। जब कवि न बन पायें तो समीक्षाएं लिख कर पत्रिकाओं में नाम देखने का शौक़ चर्याया। उनकी लिखी समीक्षा दस पृष्ठ की होती तो उसमें साढ़े आठ पृष्ठ उद्धरणों से भरे होते ! जिस कारण ही शायद सम्माननीय पत्रिका घास नहीं डालती थी। दहल पत्रिका में छपने के उद्देश्य से किसी किताब पर एक समीक्षा लिख कर लाए और लेखक को दे गिड़गिड़ाये -‘ इसके लिए एक पत्र ज्ञानी प्रसाद जी के नाम लिख दीजिये तो कृपा होगी ‘। लेखक ने अनसुना कर दिया। घण्टों गिड़गिड़ाने के बाद अंततः लेखक पसीजे -‘रख दीजिए, पहले देखूँगा ! क्या लिखा है ? कैसा है ? दहल जैसी राष्ट्रीय स्तर की ख्यात पत्रिका के योग्य है या नहीं ? और फिर इतना देख दाख करने में जो श्रम लगेगा वो इस लेखनजीवी लेखक क्या छुच्छे करेगा ? न न, आप ही कहें ‘! ……बाद में छुच्छे का मानी मतलब समझा कर विदा किया। ये बात सन्ध्या समय मुझे बताते हुए ठहाका मार टेबल के नीचे से पूरी बोतल निकाल बोलें-‘ तो आज का तर्पण अर्पित कर गए ! चलिये, आज छक कर हलक तर – तार करें ‘…और दो गिलास निकाल शील भंग करने बोतल बढ़ाई। पैग बनाते हुए मन ही मन सोंच रहा था कि सदा पर मुंडे फलाहारी का लेखक ने आज अच्छा मुंडन किया। एक खिल्ली पान भी अपने जेब से खाते किसी ने शायदे देखा होगा। चाय-पान खाने के लिए नित्य इस चोरवा प्रकाशन पहुचता।
इस तरह करीब तीन महीनों तक छक कर अर्पण-तर्पण का खेल चलता रहा। सेवती शरण दौड़ते-दौड़ते थक गए तो उनके साथ सदा चिपकू रहने वाला नटुरवा , सुविघा प्रकाशन वाला नटुरा गुप्ता ने सलाह दी कि लेखक की ही कहानियों पर एगो समीक्षा काहे न लिख मारते हैं ! तब शायद बात बन जाये ! उस नटुरे की बुद्धि काम कर गई और वे झट उनकी कहानियों पर समीक्षा लिख डाली ! और अंततः वह उस पत्रिका में लेखक की चिट्ठी बदौलत छप गई ! दहल पत्रिका के संपादक ज्ञानी प्रसाद ने गर्वोक्ति के साथ छापते हुए लिखा कि ये दहल में पहली बार छप रहे हैं। और फिर हफ़्तों अर्पण-तर्पण का कृतार्थ भाव चलता रहा ! तभी से कृतार्थ हो वे लेखक को गुरूजी कहते आ रहे !
वीरेन नन्दा/ बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति समिति के संयोजक। खड़ी बोली काव्य -भाषा के आंदोलनकर्ता बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री पर बनी फिल्म ‘ खड़ी बोली का चाणक्य ‘ फिल्म के पटकथा लेखक एवं निर्देशक। ‘कब करोगी प्रारम्भ ‘ काव्यसंग्रह प्रकाशित। सम्प्रति स्वतंत्र लेखन। मुजफ्फरपुर ( बिहार ) के निवासी। आपसे मोबाइल नम्बर 7764968701 पर सम्पर्क किया जा सकता है।