ये ग़ुस्सा उन्हीं को मुबारक… हम तो ‘कूल-कूल’ रहेंगे

विकास मिश्रा

india tv inside-4एक नौजवान, जोशीला और अच्छे चैनल का पत्रकार एक रोज घर आया। बोला-सर, मैं इस्तीफा देना चाहता हूं। मैं चौंका, क्योंकि अपने चैनल में उसकी अच्छी मौजूदगी है, संपादक उससे खुश हैं, फिर इस्तीफा क्यों? उसने बताया कि बॉस ने कहा है इस्तीफा दे दो। ये वही बॉस थे, जो उसकी खबरों पर दर्जनों बार शाबाशी और पांच बार सर्टिफिकेट दे चुके थे। मैंने समझाया-गुस्से में होंगे, बोल दिए होंगे। गुस्से की बात के कोई मायने नहीं होते, लेकिन वो मानने को तैयार नहीं, इस्तीफे पर आमादा। बोला- कुछ भी करूंगा, वहां नौकरी नहीं करूंगा, हर नया काम आपको बताकर करता हूं, इसी नाते बताने आया हूं। इसके बाद वो इस्तीफे का मजमून लिखवाने पर जोर देने लगा, क्योंकि इस्तीफे का उसका ये पहला अनुभव था। मैंने लिखवा दिया। मेरा आकलन था कि इसका इस्तीफा मंजूर नहीं होगा। उसने इस्तीफा मेल किया, अगले दिन दफ्तर गया, बॉस से मिला, उन्होंने फिर डांट लगाई, बोले-जाओ काम करो, साहबजादे बड़े ताव में इस्तीफा देने चले हैं…।

संस्मरण

हर ग़ुस्से की काट है- 'गमछाधारी मुस्कान'
हर ग़ुस्से की काट है- ‘गमछाधारी मुस्कान’

दरअसल कोई भी इंसान जब गुस्से में होता है तो दूसरे को ऐसी बात बोलता है, जिससे सामने वाले को पीड़ा पहुंचे, चोट पहुंचे। ये बहुत स्वाभाविक है। सारी गालियां इसी वजह से बनी हैं। भाई-बाप-बेटा के लिए कोई गाली नहीं बनी। मां, बहन और बेटी के लिए गालियां बनीं, क्योंकि इंसान एक बार अपने भाई और बेटे के लिए भले कुछ सुन ले, लेकिन जहां मां-बहन-बेटी की इज्जत की बात आई तो उसका खून खौल उठता है।

एक बड़े चैनल के मैनेजिंग एडिटर का गुस्सा बहुत मशहूर है। (हालांकि सुना है कि अब वो उतना गुस्सा नहीं करते) दरअसल, उनमें काम का जुनून है, कई बार उनके ‘जुनून’ की राह में किसी की ‘काहिली’ आ जाती है तो गुस्सा फट पड़ता है। मैंने पूछा इतना गुस्सा आप क्यों करते हैं, पता नहीं क्या-क्या बोल जाते हैं। वो बोले-क्या करूं, जब गुस्सा आता है, कुछ बोलता हूं, तभी अपने ऊपर भी गुस्सा आ जाता है कि आखिर क्यों इतना गुस्सा आ गया, क्यों इतना बोल रहा हूं, इसके बाद गुस्सा दोगुना हो जाता है..। और हां, इनके बारे में ये भी बता दूं कि जिस तरह इनका गुस्सा सार्वजनिक तौर पर जाहिर होता रहा, वैसे ही सार्वजनिक रूप से तारीफ करने के लिए भी वो मशहूर हैं।

अजीत अंजुम का कबूलनामा

वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम।
वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम।

विकास ने मेरे बारे में लिखा है…ये सच है कि मुझे पहले जितना गुस्सा आता था ,उससे कहीं ज्यादा उस गुस्से पर अफसोस ..लेकिन गुस्सा आगे आगे चलता था और अफसोस पीछे पीछे ..गुस्से की बड़ी वजह होती थी ,वो सामान्य गलती या लापरवाही ,जो होनी ही नहीं चाहिए ..मैं झल्लाता था कि ये कैसे हो सकता है या फलां को ये दिखा क्यों नहीं …लेकिन अब काफी बदल गया हूँ

कोई इंसान लगातार क्रोध में नहीं रह सकता। उतना ही सच ये भी है कि कोई इंसान लगातार खुश भी नहीं रह सकता। क्रोध उतरता है तो पछतावा भी होता है, कुछ बिरले हैं जो इस पछतावे को पश्चाताप में तब्दील कर देते हैं। गुस्से के लिए खेद व्यक्त करते हैं। मैं भी ऐसा करता हूं, जिसे गुस्से में कुछ कह दिया, उसे मनाने भी पहुंच जाता हूं। हम लोगों का बचपन तो भरपूर प्यार, भरपूर डांट-फटकार और भरपूर मार से भरा पूरा रहा है। वही पिता, मां, भइया कभी प्यार का सागर लुटाते, तो कभी गुस्से में पीट देते या फिर बुरी तरह डांट पड़ती। तो फिर याद क्या रखें, उनकी डांट फटकार या फिर उनका प्यार?

मेरे भीतर जब भी किसी के बारे में बुरे ख्याल आते हैं, फौरन मैं उस इंसान की अच्छी बातें सोचना शुरू कर देता हूं। बैलेंसिंग का काम भीतर होता है, क्योंकि ये भी सच है कि कोई इंसान एकदम अच्छा नहीं हो सकता और न ही कोई इंसान एकदम से बुरा। हर अच्छे में बुराई हो सकती है। हर बुरे में कोई अच्छाई छिपी हो सकती है। तो क्या चांद में दाग देखना जरूरी है?

एक बार मेरा बनारस का एक दोस्त इलाहाबाद पहुंचा था। मैं एमए में था, किराए के कमरे में रहता था। वो दोस्त रात में जोर जोर से ठहाके लगाकर हंसने लगा। चिल्लाने भी लगा। मैंने उसे टोका। बताया कि आस-पास फैमिली रहती है और हम लोग उनकी नजर में बहुत शरीफ बच्चे हैं। फिर क्या था, दोस्त गुस्से में आ गया। अटैची उठाई, बोला-दोस्ती खत्म, मैं अभी बनारस जाऊंगा। इतना अच्छा दोस्त…यूं खोना नहीं चाहता था। मैं जानता था कि अगर इसे मनाने की कोशिश की तो गुस्सा और भड़केगा। मैंने कहा-चले जाना, मैं तुम्हें स्टेशन पहुंचाकर आऊंगा। बस, खाना खा लो। वो बोला-नहीं खाऊंगा। मैंने कहा-आखिरी बार मेरे हाथ का बना खाना तो खा लो। खैर राजी हुआ, खाना बना हुआ था।

खाना परोसा, खाने के बाद वही जाने की जिद। मैंने कहा-सात साल पुरानी हमारी दोस्ती है और सात सेकेंड का मेरा टोकना। चलो रास्ते में बस में बैठकर सोचना, सात सालों में कितने अच्छे पल हम लोगों के गुजरे हैं। अगर सात साल की दोस्ती पर ये सात सेकेंड भारी पड़ रहे हैं, तो इस दोस्ती के कोई मायने नहीं। दो मिनट के भीतर ही वो दोस्त रोने लगा, फिर मैं भी..। खैर, दोस्ती आज भी उतनी ही पक्की और मजबूत है।

पूर्णेन्दु शुक्ल का हस्तक्षेप

purnendu shuklaदोस्त वाली बात आपने खूब कही। मेरा एक मित्र है अंशु। 1996 से मित्र है। 2004 की बात है, ये भाई साहब मेरे रूम मेट थे। किसी छोटी बात पर इसे कुछ ज्यादा गुस्सा आ गया। और इन्होंने अपना बोरिया बिस्तर बाँध लिया। खैर जब तक बोरिया बिस्तर बाँधा जाता रहा मैं शान्त रहा।

जब मित्र चलने लगा तो मैंने कहा – ” तुम तो बेईमानी पे उतर गये।” बोला – कैसे ? मैंने कहा, कमरे के किराये वगैर का हिसाब तो किया नहीं। उसने कहा आप बता दीजिएगा\, मैं भेज दूँगा।(गुस्से का एक मजा ये है कि तुम कहने वाला गुस्से में आप कहने लगता है) मैने कहा, ना बिना हिसाब हुए मैं नहीं जाने दे सकता। अब उसके पास पैसे थे नहीं, तो बोला ठीक है पर हिसाब होने के बाद एक मिनट नहीं रहूंगा। 12 वर्ष हो गये, हिसाब अब तक नहीं हो सका है।

मेरा मानना है कि गुस्सा, प्यार की अति है।

नई पीढ़ी से भी मैं कहना चाहता हूं कि अतिप्रतिक्रियावादी होना जायज नहीं है। अगर कोई अपना, कोई बड़ा किसी बात पर गुस्सा होकर कुछ कह दे तो फौरी प्रतिक्रिया की बजाय, पहले की उसकी कोई अच्छी बात याद करो, सही फैसला भीतर से आ जाएगा। अपने से बड़े लोग अपने प्रियजनों पर गुस्सा होने के बाद पछताते हैं, लेकिन अपने पद और गरिमा के चलते वो ये पछतावा व्यक्त नहीं कर पाते। लिहाजा, उनके बोल पर मत जाइए, दिल से वो कैसे हैं? इस पर ध्यान दीजिए। और हां, जिसने आपके लिए कुछ भी अच्छा न किया हो, फिर भी आपको कोपभाजन बनाए तो ईंट का जवाब पत्थर से दीजिए।



vikash mishra profileविकास मिश्रा। आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ संपादकीय पद पर कार्यरत। इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन के पूर्व छात्र। गोरखपुर के निवासी। फिलहाल, दिल्ली में बस गए हैं। अपने मन की बात को लेखनी के जरिए पाठकों तक पहुंचाने का हुनर बखूबी जानते हैं। व्यावसायिक भागमभाग के बीच अपने मन की बात फेसबुक पर साझा करने में जरा भी संकोच नहीं करते। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना के बगैर ऐसी बेबाकी कहां मुमकिन है?


अपने मोटापे को कैसे याद करते हैं विकास मिश्रा… पढ़ने के लिए क्लिक करें