मोहन जोशी
अमूमन ये देखने में आता है कि रचनाकार अपने लेखक होने के गुमान को ओढ़े रहता है और अपनी किताब की बौद्धिकता को सर पर ढोए चलता है. परिणामस्वरूप, इन दोनों के बोझ से लेखक कभी सरल और स्वाभाविक नहीं रह पाता. लेकिन कुछ लेखक और किताबें ऐसी होती हैं जो ये भार उतार कर फेंक देती है और पाठक के कंधे पर हाथ डाले उनसे सीधे संवाद करती हैं . युवा पत्रकार दयाशंकर मिश्र की किताब ‘जीवन संवाद –डिप्रेशन और आत्महत्या के विरुद्ध ‘ एक दोस्त की तरह पाठक के कंधे पर रखा वही हाथ है , जिसमें श्रेष्ठता का बोझ नहीं है .
गैर-साहित्यिक पुस्तकों को देखने के दो नज़रिए होते हैं , एक सैद्धान्तिक और दूसरा व्यावहारिक। ‘जीवन संवाद’ को परखने के लिए दोनों रास्तों का चुनाव करने की आजादी है. इस किताब में लेखन की वेबसीरीज के कई लेखों को शामिल किया गया है। अपने ही लेखन को किताब की शक्ल देते समय दयाशंकर की दुविधा कहीं ज्यादा बड़ी थीं, लेकिन उन्होंने सख्त संपादक की तरह अपने ही कई लेखों को फिलहाल इस पुस्तक में शामिल नहीं किया। पुस्तक पढ़ते वक्त ऐसा एहसास जरूर होता है कि ‘सतसईया के दोहे’ की तरह कम में बड़ा प्रभाव पैदा करने की छटपटाहट लेखक ने बरकरार रखी है। सिद्धांत का संयोजन कर इसे खास वर्ग तक महदूद करने की बजाय वृहत्तर संवाद की संभावनाएं तलाशी गई हैं।
दयाशंकर मिश्र अपनी इस किताब का पूरा श्रेय गाँव देहात से उनके जुड़ाव और जीवन यात्रा को देते हैं . उनके ये अनुभव और जीवन यात्रा- पथिक और पथ के रूपक की तरह उभरते हैं . इसलिए वो अपनी किताब की शुरुआत में लिखते हैं “मैंने अपने जीवन में जो भी सीखा, समझा सब इन्ही यात्राओं के कारण संभव हुआ. मन, मनुष्य, मनुष्यता से प्रेम की पाठशाला का पाठ्यक्रम यहीं से तय हुआ. अपरिचित पर विश्वास, उसकी परख , समाज के मनोविज्ञान की झलक यहीं से मिली”.
किताब ने जीवन के दुःख और तनाव की जटिलता को छोटे-छोटे और आसान शब्दों में परोसा है .बिना आडम्बरी शब्दों के दुष्चक्र में फंसे दयाशंकर ने सीधी, सरल और साफगोई से अपनी बात कही है , जिससे उनकी पुस्तक और पठनीय बन गई है . उदाहरण के लिए इस किताब में अपने एक लेख ‘रिश्तों में स्नेह का निवेश’ में वो लिखते हैं “सबकुछ ठीक है, सब कुछ ठीक होगा. इन शब्दों के लिए ज़िन्दगी में कोई जगह नहीं है . बिना कुछ किए कुछ भी ठीक नहीं रहता, न कोई रिश्ते, न ही दोस्ती.”
दयाशंकर की लेखनी में किस्सागोई का अंदाज़ हैं. जिसमें उनके विचार, किस्सों पर सवार होकर चलते हैं . जो पाठकों को किताब से बांधे रखते है . पर ये कहानियां हैं जिन्हें पढने से ज्यादा सुनने में आनंद आता है . इसलिए कभी जीवन संवाद पर दयाशंकर को सुनने का मौका मिले तो ज़रूर सुनें. उनकी ये कहानियाँ सुनी-सुनाई कम और भोगी हुई ज्यादा हैं . ऐसे ही एक दिलचस्प किस्से का ज़िक्र वो अपने लेख में करते हैं – “मैं तट पर यूं ही टहल रहा था. मैंने देखा कि थोड़ी दूरी पर एक लड़का जल्दी-जल्दी नीचे झुकता और कुछ उठाकर उसे समंदर में फेंक देता. पास जाकर देखा कि वह मछलियों को उठाकर समंदर में फेंक रहा है. मैंने पूछा आप बहुत देर से इस काम में जुटे हैं . उसने कहा दरअसल समुद्र का पानी अचानक उतरने के कारण मछलियां किनारे की रेत में फंस जाती हैं, अगर मैं इन्हें वापस नहीं भेजूंगा तो यह मर जाएंगी. मैंने कहा, लेकिन यह तो बहुत सारी मछलियां है! आप सभी को तो बचा नहीं सकते. आपके अकेले से कितना फर्क पड़ेगा… उसने मुस्कुराते हुए, एक मछली को उठाया और समंदर में फेंकते हुए कहा, इसे तो फर्क पड़ेगा. मैं जिसे बचा सकता हूं उसे तो फर्क पड़ा न. मैं जो कर सकता हूं, वही कर रहा हूं. और फिर से वह अपने काम में जुट गया.”
दयाशंकर ऑनलाइन पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं लेकिन फिर भी अपनी किताब में आभासी दुनिया के दुष्प्रभावों की आलोचना करने से नहीं चूकते. स्मार्ट फ़ोन और अनगिनत ऐप के बीच वे वास्तविक जीवन के अनुभवों को परखने के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं. अपने लेख ‘अकेले हम अकेले तुम’ में वो बताते हैं “हमारे पास एक से बढ़कर एक स्मार्ट फोन और इंटरनेट प्लान है .सोशल मीडिया है. रिश्ते बनाने वाले विशाल ‘ऐप’ हैं, जितने तरह के रिश्ते हो सकते हैं, उतनी ही तरह के ऐप और वेबसाइट हैं. उसके बाद भी हमारी खोज कहां अटकी है. थकी हारी, अधजगी सी आंखों में हम क्या खोजते जा रहे हैं? ऐसा क्या है जो स्मार्टफोन में है, बाकी दुनिया में नहीं. स्मार्टफोन में दिमाग को खूबसूरती को पढ़ लिया है. वह हमारी दिखावे की चाहत, मन के रहस्य को समझ गया है. उसे पता चल गया कि हम हर पल एक ‘सेल्फी’ चाहते हैं, आत्मा तक पहुंचने का जरिया नहीं !”
ये किताब डिप्रेशन से जूझते लोगों के लिए सांत्वना का हाथ है या फिर अवसाद से भीगी आँखों के लिए किसी अजनबी का एक रुमाल है. कभी ये लगता है कि ये किताब कुछ कहती नहीं है बल्कि ये आपके दुखों को सिर्फ सुनना चाहती है जो जीवन और संवाद के बीच बिना अपनी मौजूदगी महसूस कराये ‘जीवन सूत्र’ की तरह उपस्थित है। मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल की ये बात दयाशंकर की किताब पर काफी हद तक लागू होती है ‘आप ऐसे अभिव्यक्त कर सकते हैं जो सिंपल हो, पर इस सिम्प्लिसिटी का आना आसान नहीं है. अगर आप किसी रचनात्मक कार्य से जुड़े हुए हैं, तो यह बहुत मुश्किल है क्योंकि सिम्प्लिसिटी पा लेने का अर्थ है कि आप चीज़ों के तह तक पहुँच चुके हैं.’
किताब ज़िन्दगी को जिंदादिली से जीने को कहती है . ये डिप्रेशन और आत्महत्या के लिए न तो कोई ‘रेडीमेड इलाज़’ देती है न ही कोई नवीन थेरेपी रखती है। इस किताब में छोटे –छोटे लेख हैं जो सिर्फ सलाह या सूत्र की तरह सामने आते हैं। इस पुस्तक में कुल 64 लेख शामिल किए गए हैं। ये वही लेख हैं, जिसे दयाशंकर ‘डिअर ज़िन्दगी-जीवन संवाद’ शीर्षक से लिखते रहे हैं। इन 64 लेखों को उन्होंने 5 भागों में बांटा है –जीने की राह , स्नेह , रिश्ते, बच्चे और मन की गाँठ। विभाजन के लिहाज से ये खंड बांटे जरूर गए हैं लेकिन हर लेख दायरों को तोड़ता है। जीने की राह दिखाने के दौरान स्नेह-रिश्ते दरकते हैं, बनते हैं और लेखक हदें तोड़ कर मन की कई गांठें खोलने की कोशिश करता है।
मोहन जोशी। स्वतंत्र मीडियाकर्मी। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। डॉक्यूमेंट्री मेकर। रंंगकर्मी और नाटककार।