तब ये ट्रेन कहां थी गांव जाने के लिए। रामेश्वर घाट पर मिनी बसें छोड़ जातीं और फिर वहां से नाव के सहारे नदी पार करनी पड़ती। उस पार जाकर कोई ट्रैकर या पूरी लदी हुई जीप मिलती। हाइवे पर उतरना पड़ता फिर पांच कोस की यात्रा। रिक्शा मिला तो ठीक नहीं तो पैदल ही, लेकिन कितना उत्साह होता था गांव पहुंचने का। बौराए गांव में जो अपनापन मिलता वो सलीकेदार शहरों में कहां। सूखे बंजर ज़मीन जैसा शहर कि संवेदनाओं के कितने भी बीज डालो पनपने का नाम ही न लेते। अभी ट्रेन को स्टेशन पहुंचने में कोई दो-सवा दो घंटे बचे थे, लेकिन भावनाओं का पंख लगा मन कब वहां जा पहुंचा पता ही नहीं चला।
लघुकथा
दुर्गा दादी, हलधर बाबा, सुशीला चाची, कमला फुआ, दुनिया लाल काका, निम्मो, पप्पू, शालू और भी न जाने कितने चेहरे आंखों के सामने तैर गए। फिर याद आया पगला नथुनिया। तब वो बीस-बाइस साल का रहा होगा। गेंहुआं रंग, साधारण कद-काठी, फड़फड़ाते मोटे-मोटे ओठ और फूले हुए नथुने। शायद इन्हीं नथुनों की वजह से उसका नाम नथुनिया पड़ा होगा और उसकी अजीबोग़रीब हरकतों ने उसे ‘पगला’ की उपमा से अलंकृत कर रखा था। वो वाकई मंद-बुद्धि था ये पता नहीं लेकिन लोग-बाग उसे पगला कह कर ही पुकारते। हां, इतना ज़रूर था कि उसके हाव-भाव साधारण नहीं थे। कभी वो एक पांव मोड़ केवल एक टांग पर घंटों बैलेंस बनाए खड़ा रहता, तो कभी हम बच्चों की टोली के पास आकर खूब ज़ोर-ज़ोर से हंसता। फिर एकदम से शांत हो अपने पांव के अंगूठे से ज़मीन कुरेदने लगता। बच्चे उसे देख वहां से भाग खड़े होते। वो थोड़ी दूर तक पीछा करता फिर शांत हो किन्हीं विचारों में डूब जाता।
बच्चों में उसका ख़ासा ख़ौफ़ था- “ये पगला हमारी तिल्ली (दिल) निकालने आता है। मौक़ा मिलते ही नाख़ून से चीर हमारी निकालेगा और उसे खा जाएगा।” नथुनिया का डर ऐसा कि पीठ पीछे भी हम उसे याद करते- “पगला नथुनिया, खा जाएगा तिल्ली, भाग जाएगा दिल्ली”।
खैर! ट्रेन रूकी तो हम भी हांफते हुए उतरे और रिक्शे पर बैठ गांव के लिए चल पड़े, लेकिन ये क्या? शंभु शाह की चाय दुकान पर लाइन होटल खुल चुका था। मुरलीधर के इंडे (गांव में कुंए को इंडा कहते थे) पर अब सुस्ताने वालों की जमघट न थी और गांव की पगडंडियों की जगह अलकतरे ने ले ली थी। हैरानी तब हुई जब लोगों के दिलों से भी शहरीकरण की गंध आने लगी। ना मिट्टी की वो सोंधी खुशबू रही और ना ही दिलों में वो मुलायमियत। आपसी संबंध भी बिखरे-बिखरे से नज़र आए।
मैंने भी औपचारिकताएं निभाईं और किसी तरह दो दिन गुजार वापस शहर के लिए निकल पड़ा। ट्रेन आने ही वाली थी कि किसी ने पीछे से पुकारा- बऊआ। मुड़कर देखा- अरे ! पगला नथुनिया। पहचानते देर न लगी। इन पंद्रह सालों में कोई बदलाव नहीं। बिल्कुल वैसे का वैसा। लेकिन मैं तो बदल गया। फिर इसने कैसे पहचान लिया। तिल्ली निकालने वाला ख़ौफ़ मुझे अब भी विचलित कर गया। लेकिन नथुनिया ने अपनी दुर्बल हथेली मेरे माथे पर आशीर्वाद के लिए डाल दी। आह, कितने स्नेहसिक्त, संवेदना और सौहार्द से ओतप्रोत थे वो हाथ। लगा जैसे गांव की सूखी ताल-तलैया प्रेमजल से फिर आप्लावित होने लगी हो। मैं भी उसमें डुबकियां लगाने लगा। उसकी आंखें देखीं-स्नेह और प्यार से भरी हुईं। मेरे भी नेत्रों से गंगा-जमुना प्रवाहित हो चली। उसके हाथ पकड़ मैं फूट-फूट कर रो पड़ा था।
इति माधवी। मनोविज्ञान की अध्येता रहीं इति माधवी ने साहित्य की सभी विधाओं में अपनी संवेदनशील उपस्थिति दर्ज की है। आपकी कविताएं, लघुकथा, कहानी, संस्मरण और निबंध कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। आपका काव्य संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
Anil Kumar Jha – Sundar Abhivyakti ! Padhkar apne gaon ke kai kirdar yaad aa gaye aur yaad aa gaye bachpan ke woh kabhi na wapas aanewale din! Bahut kuchh badal gaya aur sabse badi aur buri baat ki log badal gaye, unki soch badal gayi. Hum sabke bachpan mein koi na koi nathuniya pagla zaroor mauzood hai. Pehchanne aur mehsoos karne ki zaroorat hai!!!!! (फेसबुक से)
Bahut hi jeevant chitran hai. Bhasa aur bhav dono hi paimane per utkrisht. Wakai bhawnatamak roop se hum kitne kripan aur kangal hote jaa rahen hain. Katha ka ant hriday ko chhu gaya. Kathakar aur badlav dono ko sadhuvaad.