संस्कृति समाज का निर्माण करती है और कलाएं संस्कृति व समाज का संरक्षण। इसे ताक पर रख कर कोई भी समाज अथवा सरकार अपना समुचित विकास नहीं कर सकती है। सो, इसके लिए दोनों को जवाबदेह बनना ही होगा।
कला-संस्कृति के क्षेत्र में खासकर लोक कलाओं के क्षेत्र में बिहार की अपनी एक खास पहचान रही है। वजह, यहां के प्राय: सभी जिले किसी न किसी खास लोक कलाओं के कारण जाने जाते रहे हैं। यदि मिथिलांचल ‘विदापत नाच’ और मधुबनी पेंटिग के लिए दुनिया में मशहूर है, तो अंग प्रदेश कौआ हंकनी, मंजूषा कला जैसी लोक विधाओं के लिए जाना जाता है। इसी तरह भोजपुर के इलाके भिखारी ठाकुर के बिदेसिया, लौंडा नाच, धोबिया नृत्य के लिए जाने जाते हैं। बिहार के मुसलमानों में प्रचलित झरनी नृत्य के अलावा पवरिया नृत्य, जोगीरा नृत्य, कठघोड़वा नृत्य, झिझिया नृत्य और करिया झूमर नृत्य बिहार की शान ही नहीं पहचान भी रहे हैं।
सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि ये तमाम लोक कलाएं लुप्त होती जा रही हैं। बस लोगों की जुबान पर जिंदा हैं। ऐसा सिर्फ विदेशी संस्कृति के हमले के कारण ही नहीं हो रहा है, बल्कि अपनी सरकार की नादानी, अनदेखी, उपेक्षा और उदासीनता के कारण भी हो रहा है। हमारी राज्य सरकार कला-संस्कृति से जुड़े सवालों को दोयम दर्जे से भी बदतर मानती हैं। राज्य सरकार इसके प्रति तनिक भी चिंतित नहीं है। यहां तक कि हर साल करोड़ों रुपये का बजट खर्च करने वाले कला-संस्कृति एवं युवा विभाग के पास भी कोई ठोस कार्ययोजना नहीं है।
शर्मसार करने वाली बात तो यह भी है कि कला-संस्कृति एवं युवा विभाग के पास बिहार के कलाकारों के लिए कोई सांस्कृतिक नीति तक नहीं है। इसे खुद विभाग ने भी मुजफ्फरपुर में चल रहे लोक कलाकारों के जनसंगठन गांव जवार की ओर से दायर आरटीआई के जवाब में कबूल किया है।
ऐसे में सवाल लाजिमी है कि विभाग किस के लिए काम कर रहा है। बजट के पैसे किन लोगों पर खर्च होते हैं। राज्य सरकार किस आधार पर इस विभाग को बजट मंजूर करती है। क्या इसकी जांच नहीं होनी चाहिए। यह स्थिति सिर्फ़ लोक कलाओं के साथ ही नहीं है। अन्य शास्त्रीय कलाएं भी बदहाल है। एक नमूना देखिए। ध्रुपद के चार घराने हुए। बेतिया घराना। दरभंगा घराना। डुमरांव घराना। तानसेन घराना। इनमें तीन घराने बिहार से और तानसेन घराना दिल्ली से वास्ता रखता है। बिहार के तीनों घराने किसी जमाने में धूम मचा रहे थे। बिहार का नाम रोशन कर रहे थे। लेकिन अब इनका नाम लेने वाला कोई नहीं है। राज्य सरकार ने वर्ष 2004 में संकल्प लिया था कि इन घरानों को पुनर्जीवित करेंगे। लेकिन संकल्प संचिकाओं में ही कैद रहे। इस दिशा में कोई पहल नहीं हुई। अगर ये घराने आज जिंदा होते तो दुनिया में बिहार का नाम रोशन कर रहे होते।
दुख की बात तो यह है कि कहीं कोई प्रतिरोध का स्वर भी नहीं गूंजा। एक और साजिश से पर्दा उठाना जरूरी है। अक्सर सियासी पार्टियां और एक खास तबका कहता है कि कलाकारों को सियासत से क्या लेना देना। उन्हें सिर्फ़ कला पर ध्यान देना चाहिए। दरअसल, यह एक तरह की गहरी साज़िश है। सियासत किसी भी जनतंत्र का एक अहम हिस्सा होता है। सियासत से ही जनसमस्याओं के समाधान संभव हैं। ऐसे में किसी भी इंसान को इससे दूर अथवा अलग नहीं रखा जा सकता। कलाकार भी इंसान होते हैं। औरों की तरह वह भी वोट देकर पांच साल के लिए सरकार चुनते हैं। पंचायतों में अपनी सरकार बनाते हैं। ऐसे में उन्हें सियासत से दूर रखने की वकालत करना क्या ख़तरनाक साज़िश नहीं है?
-मुजफ्फरपुर के दैनिक जागरण में वरिष्ठ पद पर कार्यरत एम अखलाक कला-संस्कृति से गहरा जुड़ाव रखते हैं। वो लोक कलाकारों के साथ गांव-जवार के नाम से बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन चला रहे हैं। उनसे 09835092826 पर संपर्क किया जा सकता है।
फेसबुक पर कुछ प्रतिक्रियाएं-
Shalu Agrawal- Great akhlak bhai
Obaidullah Mubarak- Alakh Jagaye Rakhen Akhlaque Ji.
Chandan Sharma-shandar Akhlaque bhai