संजीव कुमार सिंह
दिल्ली पुस्तक मेले से खट्टा मीठा अनुभव लेकर लौटा। खट्टा इसलिए कि इस बार पुस्तक मेले का स्वरूप बदला नज़र आया। मशहूर प्रकाशनों के स्टॉल कम नज़र आए। उनकी जगह पर ऐसे स्टॉलों की संख्या बढ़ गई थी, जहां विदेशी से लेकर देसी अंग्रेज़ी उपन्यासों की सेल लगी थी। नजारा पुस्तक मेला से अधिक दिल्ली के दरियागंज में लगने वाले साप्ताहिक मेले जैसा लग रहा था। अख़बारों से पता चला कि आयोजकों ने स्टॉल इतना महंगा कर दिया है कई प्रकाशकों ने पुस्तक मेले में आने से तौबा कर ली।
किताबों के स्टॉल में घूमते-घूमते पुस्तक मेले में आ रहे बदलाव महसूस कर रहा था कि अचानक मन ‘गुलजार’ हो गया। गुलजार की वो किताब हाथ लग गई, जिसके प्रकाशित हो जाने के बारे में मुझे पता भी नहीं था, लेकिन उनके संस्मरणों को पढ़ने के लिए बेकरार था। दरअसल, रविंद्र कालिया के भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक रहते गुलजार ने उसमें कई यादगार संस्मरण लिखे थे। फिल्म निर्देशक विमल रॉय, गीतकर शैलेश, जावेद अख्तर और कवि गोरख पांडे से जुड़ी यादें, उन्होंने उसी संवेदनशीलता के साथ पन्नों पर उतारीं थीं, जिस तरह वे किसी कहानी को पर्दे पर उतारते रहे हैं। जिस संस्मरण ने मन को सबसे ज्यादा छुआ, वो मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर से जुड़ा लेख था।
नया ज्ञानोदय घर आने के बाद कबाड़ में चले गए, लेकिन गुलजार के ये संस्मरण कहीं जाने का नाम नहीं ले रहे थे। गूगल पर जब इन संस्मरणों को सर्च मारना शुरू किया तो ये देखकर निराशा हुई कि सर्च इंजन पर गुलजार की कविताएं हैं, एक दो कहानियां भी मिल गईं लेकिन नया ज्ञानोदय में छपे संस्मरण कहीं नजर नहीं आ रहे थे। ऐसे में पुस्तक मेले में गुलजार की पुस्तक ‘पिछले पन्ने’ क्या मिल गई, लगा बरसों पहले बिछड़ा पुराना यार मिल गया।
घर पहुंचते ही कुलदीप नैयर का संस्मरण चाटना शुरू करना दिया। संस्मरण विभाजन से जुड़ा है। कुलदीप नैयर का परिवार विभाजन से पहले स्यालकोट में रहता था, जहां उनकी मां पर ह एक पीर की मजार का इतना प्रभाव था कि घर का कोई भी अच्छा बुरा काम पीर बाबा का आशीर्वाद लिए बगैर नहीं होता था। पहले वो पीर कुलदीप नैयर की मां के सपने में आते थे। वही पीर इमरजेंसी में जेल में बंद रहने के कारण कुलदीप नैयर के सपने में आए और कहा- फलां दिन तुम्हारी रिहाई होगी, जो इत्तिफाक से बिलकुल सही साबित हुई। पीर ने सपने में कहा-मुझे ठंड लग रही है। कुलदीप नैयर स्यालकोट पहुंचते हैं तो पाते हैं कि पीर की मजार गायब कर दी गई है। नैयर साहब मां की पीर की मजार पर चादर चढ़ाने की इच्छा पूरी नहीं कर पाए कि पीर को ठंड न लगे।
अब इस संस्मरण में कितनी हकीकत है और कितना फसाना, ये तो गुलजार साहब बता सकते हैं लेकिन इस संस्मरण ने विभाजन की त्रासदी से जुड़ी मोहन राकेश की कहानी ‘मलबे का मालिक’ की याद ताजा कर दी। उस कहानी में 1947 में पाकिस्तान चला गया एक बुढ़ा अभागा बाप गनी मियां, अमृतसर में अपने उस पुराने घर को देखने लौटता है लेकिन मालिक बन चुका पहलवान उस अभागे बाप के बेटे चिरागदीन और उसके परिवार को जलाकर मकान को मलबे में तब्दील कर चुका है।
ऐसे समय में जब हम पाकिस्तान के साथ 1965 की जंग की पचासवीं वर्षगांठ मना रहे हैं और तमाम टीवी चैनलों को युद्ध का उन्माद दिखाने का एक और मिल गया है। मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने वाली सच्चाइयों से रूबरू होने के लिए हमें किताबों का सहारा ही लेना पड़ता है, पुस्तक मेला जाना इसलिए ज़रूरी था।
संजीव कुमार सिंह। छपरा के निवासी संजीव की पढ़ाई बिहार यूनिवर्सिटी में हुई। ग्रामीण मिजाज के साथ कई शहरों में पत्रकारिता के बाद फिलहाल इंडिया टीवी में डटे हुए हैं। कहने को आप इन्हें अंतर्मुखी लोगों की श्रेणी में डाल सकते हैं, लेकिन इनकी लेखनी अपने वक़्त को संजीदगी से दर्ज करने का माद्दा रखती है।
Sanjay Srivastava बढिया लिखा है..