विकास दिव्यकीर्ति
(एक हज़ार से ज़्यादा शेयर और करीब 3000 लाइक्स। विकास दिव्यकीर्ति ने जेएनयू प्रकरण पर संतुलित राय रखी है। सोशल मीडिया पर साथियों ने अपने अंदाज में ये संदेश दे दिया है कि ‘अतिवाद’ उन्हें कबूल नहीं। उन्हें न तो राष्ट्रद्रोह के नारे कबूल हैं न ही राष्ट्रवाद के नाम पर बेवजह का शोर। यूं भी व्यवस्था से विद्रोह के कवि कबीर ने कहा है- अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप। अति का भला न बरसना, अति की भलि न धूप।
पिछले कुछ दिनों से फेसबुक की उन टिप्पणियों को हम आपके साथ साझा कर रहे हैं, जिससे सार्थक संवाद की दिशा में आगे बढ़ा जा सके। इसी कड़ी की चौथी किस्त में विकास दिव्यकीर्ति। )
इधर बहुत दिनों से लेखन का उपवास चल रहा था। जे.एन.यू. मुद्दे पर हुई गरमा-गरम बहसों ने मजबूर कर दिया कि मैं भी अपने ‘मन की बात’ कहूँ। पहले ही साफ़ कर दूँ कि मैं जेएनयू का विद्यार्थी नहीं रहा हूँ। हाँ, कई बार वहाँ गया हूँ और वहाँ पढ़ चुके और पढ़ रहे बहुत से दोस्तों के साथ उस विश्वविद्यालय के बारे में सैकड़ों बार चर्चा कर चुका हूँ। उस संचित समझ के आधार पर ही यह बिंदुवार पोस्ट लिख रहा हूँ। असंभव नहीं कि इसमें तथ्य की एकाध भूल हो जाए।
1) मेरी निजी राय है कि ह्यूमैनिटीज़ के अध्ययन के लिये जेएनयू देश का सबसे अच्छा विश्वविद्यालय है। मैं अपने विद्यार्थियों से अक्सर कहता हूँ कि अगर दिमाग की खिड़कियाँ खोलनी हों तो जेएनयू से बेहतर कोई प्लेटफॉर्म नहीं है। मैंने खुद एमफिल में प्रवेश के लिये जेएनयू का इंटरव्यू दिया था, पर वहाँ मेरा चयन नहीं हो सका। आज भी मुझे कभी-कभी इस बात की कसक होती है कि काश, मुझे जेएनयू में पढ़ने का मौका मिला होता। इस एकतरफ़ा इश्क़ की बेचैनी शायद कभी ख़त्म होगी भी नहीं।
2) मुझे जेएनयू की जो बात सबसे ज़्यादा आकर्षित करती रही है, वह है इसकी आबोहवा में घुला वैचारिक खुलापन या लोकतांत्रिक स्पेस। इस विश्वविद्यालय में व्यक्ति को इतनी तरह की वैचारिक ख़ुराक मिलती है कि उसकी मानसिक जड़ता को टूटने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता। बाकी आकर्षक चीज़ों में शामिल हैं- मौज-मस्ती का माहौल, डायवर्सिटी पर आधारित प्रवेश प्रक्रिया, लड़के-लड़कियों के बीच अकुंठ दोस्ती की संभावनाएँ, परिपक्व चुनाव-प्रक्रिया, दुनिया से कटा हुआ कैम्पस वगैरह।
3) वैचारिक खुलेपन के बावजूद यह सच है कि जेएनयू में मार्क्सवादी विचारधारा का वर्चस्व ख़तरनाक हद तक कायम रहा है। पिछले दशक में तो यह एकध्रुवीयता कुछ कमज़ोर हुई है। उससे पहले हालत यह थी कि जेएनयू में ह्यूमैनिटीज़ का विद्यार्थी होने का मतलब ही मार्क्सवादी होना होता था (हालाँकि विज्ञान और विदेशी भाषाओं के बहुत से विद्यार्थी हमेशा इस पचड़े से दूर रहते थे)। मार्क्सवाद की इतनी प्रबल उपस्थिति की एक वजह चाहे इस विचारधारा में निहित आकर्षण रहा हो, पर वह इसकी एकमात्र वजह बिल्कुल नहीं थी। इसके पीछे सांस्थानिक ढाँचे विधिवत काम करते थे, ठीक वैसे ही जैसे किसी भी विचारधारा के गढ़ में करते हैं। जितना मुश्किल डीएवी स्कूल या सरस्वती शिशु मंदिर में किसी मार्क्सवादी या मुसलमान का नियुक्त होना है; उतना ही मुश्किल जेएनयू में गैर-मार्क्सवादियों का प्राध्यापक के पद पर नियुक्त होना रहा है। लगभग ऐसी ही स्थिति वहाँ विद्यार्थियों के दाखिले में दिखती रही है।
4) गौरतलब है कि पिछले कुछ समय में जेएनयू में मार्क्सवाद के साथ-साथ नारीवाद, अंबेडकरवाद, आदिवासी विमर्श जैसे अस्मिता आंदोलन प्रबल हुए हैं, जिन्होंने वैचारिक लोकतंत्र को और सघन बनाया है। इन सभी विचारधाराओं के बीच दोस्ती-दुश्मनी के संबंध साथ-साथ चलते हैं। दोस्ती का सामान्य बिंदु यह है कि ये सभी विचारधाराएँ किसी न किसी वंचित वर्ग के पक्ष की लड़ाई लड़ती हैं और बहुआयामी वंचन के मामले में स्वभावतः एक साथ आ जाती हैं।
झगड़ा इस बात पर होता है कि सभी का आपसी संबंध क्या हो? मार्क्सवादियों की कोशिश रहती है कि इन आंदोलनों को मार्क्सवाद की परिधि के भीतर रखते हुए इनका साथ दिया जाए पर इन आंदोलनों के प्रस्तावक/समर्थक उस परिधि से सीमित नहीं होना चाहते। यही कारण है कि कुछ मामलों में ये सब समूह एक साथ खड़े होते हैं (जैसे अभी वाले प्रसंग में), पर बुनियादी विभेद वाले प्रसंगों में अलग हो जाते हैं। जहाँ वे एक साथ होते हैं, वहाँ भी इनकी भूमिकाओं का घनत्व अलग-अलग होता है। मसलन, रोहित वेमुला के मसले पर अम्बेडकरवादी केंद्रीय भूमिका में थे और मार्क्सवादी सहायक भूमिका में; जबकि विनायक सेन या प्रोफेसर साईंबाबा के मुद्दे पर मार्क्सवादी केंद्रीय भूमिका में थे और अम्बेडकरवादी सहायक भूमिका में। निर्भया आंदोलन के केंद्र में स्वभावतः नारीवादी थे और बाकी समूह अपने-अपने तरीके से उसे समर्थन दे रहे थे।
5) इस तथ्य को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिये कि जेएनयू के मार्क्सवादियों में भी तमाम वैचारिक भिन्नताएँ हैं जो अन्य मुद्दों की तरह ‘राष्ट्रवाद’ के मसले पर भी सामने आ जाती हैं। जहाँ कुछ मार्क्सवादी मार्क्सवाद के साथ राष्ट्रवाद की कॉकटेल बना चुके हैं, वहीं रैडिकल कम्युनिस्टों के लिये ‘राष्ट्रवाद’ शुद्ध रूप में एक बुर्जुवा अवधारणा है, जिसका निर्माण वंचित समाज (हैव नॉट्स) को बहकाने और उसके शोषण को जारी रखने के लिये किया जाता है। स्वयं कार्ल मार्क्स की निगाह में भी राष्ट्रवाद एक ‘मिथ्या चेतना’ या ‘फाल्स कांशसनेस’ ही था।
इसलिये, ‘राष्ट्रवाद’ से नफ़रत करने वाले रैडिकल मार्क्सवादियों के लिये भारत की बर्बादी के नारे लगाना असंभव नहीं है। वे अफज़ल गुरु को कश्मीर की आज़ादी के योद्धा के रूप में देखें, यह भी संभव है क्योंकि उनकी निगाह में भारत और कश्मीर के बीच ठीक वही संबंध है जो 1947 तक इंग्लैंड और भारत के बीच था- यानी एक साम्राज्यवादी ताकत और उसके अधीन दबी-कुचली एक राष्ट्रीयता का संबंध। इसलिये (उस वीडियो की वैधता के मुद्दे पर जाए बिना) मैं इस संभावना से इंकार नहीं कर सकता कि जेएनयू के कुछ रैडिकल युवाओं ने सचमुच वे नारे लगाए होंगे जिनकी चर्चा आजकल मीडिया में हो रही है।
मैंने कहीं पढ़ा है कि 9 फरवरी का आयोजन डीएसयू (डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन) ने किया था और बाकी मार्क्सवादी समूह (जैसे आईसा, एसएफआई और एआईएसएफ) उसका साथ देने के लिये गए थे। मैं डीएसयू के कुछ सदस्यों से वाकिफ़ हूँ और मेरी स्पष्ट राय है कि वे अपनी रैडिकल एप्रोच के तहत राष्ट्रवाद को पूरी तरह खारिज करते हैं और ऐसे नारे लगा सकते हैं। एक दावा यह भी है कि राष्ट्रविरोधी नारे सिर्फ कुछ कश्मीरी युवकों द्वारा लगाए गए थे, जो अफज़ल गुरु की तथाकथित ‘शहादत’ के मौके पर इकठ्ठा हुए थे और ये नारे भी वही थे जो कश्मीर में अलगाववादी नेता/समर्थक अक्सर लगाते हैं। मुझे तथ्यों की प्राथमिक जानकारी नहीं है, इसलिये मैं इस संभावना को भी निर्मूल नहीं मान सकता।
6) बहरहाल, कुछ लोगों द्वारा लगाए गए इन नारों के आधार पर यह भयानक सरलीकरण नहीं किया जाना चाहिये कि जेएनयू के सभी विद्यार्थी ऐसा ही सोचते हैं; ठीक वैसे ही जैसे योगी आदित्यनाथ और अकबरुद्दीन ओवैसी के भाषण सुनकर यह तय नहीं किया जा सकता कि भारत के सभी हिन्दू और मुसलमान वैसे ही कट्टर हैं; या नाथूराम गोडसे के आरएसएस से संबंधों के आधार पर यह फ़ैसला नहीं किया जा सकता कि आरएसएस के सभी सदस्य महात्मा गांधी की हत्या के समर्थक थे।
तर्कशास्त्र में ऐसे सरलीकरणों को ‘अवैध सामान्यीकरण’ नाम के तर्कदोष में शामिल किया जाता है। मेरी नज़र में आजकल की अधिकांश राजनीतिक बहसों के मूल में ‘अवैध सामान्यीकरण’ की यही प्रवृत्ति काम करती है। कई लोग सामान्य जीवन में भी इस समस्या के गंभीर शिकार होते हैं। मसलन, अगर कोई लड़का एक लड़की से धोखा खाने पर यह निष्कर्ष निकाल ले कि दुनिया की सब लड़कियाँ ऐसी ही होती हैं तो इसे मनोरोग की हद तक पहुँचा हुआ ‘अवैध सामान्यीकरण’ ही कहना होगा। ऐसी तर्क-त्रुटियाँ देखने के लिये हमें कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। अपने आसपास की बातचीत पर सिर्फ एक दिन भी ध्यान देंगे तो हम पाएंगे कि लोकचर्चाओं में अवैध सामान्यीकरणों की प्रबल उपस्थिति होती है। इसलिये, इस तर्क-दोष से बचते हुए, मेरी राय में यह आरोप बेहूदा है कि जेएनयू एक राष्ट्रविरोधी विश्वविद्यालय है।
7) सबसे पहले, हमें याद रखना चाहिये कि जेएनयू में पर्याप्त संख्या में ऐसे विद्यार्थी हैं जो मार्क्सवादी नहीं हैं। फिर, मार्क्सवादियों में भी ठीक-ठाक संख्या ऐसे लोगों की है जो सामाजिक न्याय के मुद्दे उठाते हुए भी देश के ख़िलाफ़ नहीं जाते, अपनी नाराज़गी सरकार तक सीमित रखते हैं। बहुत थोड़े से ही विद्यार्थी ऐसी रैडिकल विचारधारा के समर्थक हैं, जिसमें ‘भारत की बर्बादी’ की कामना की गुंजाइश बनती हो। हमें इस समूह का विरोध निस्संदेह करना चाहिये, पर सभी को लपेट लेने वाली मानसिकता से बचना चाहिये।
8) असली सवाल यह है कि इस घटना पर सरकार की प्रतिक्रिया कितनी लाज़मी है? मेरी समझ में भारत की बर्बादी के नारे लगाने वाले विद्यार्थियों के विरुद्ध कार्यवाही की शुरुआत विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से होनी चाहिये थी। उन्हें विश्वविद्यालय से निलंबित करके निष्पक्ष किंतु तीव्र जाँच कराई जाती और उसके आधार पर उन्हें दंडित किया जाता तो ज़्यादा ठीक रहता। उसी स्तर पर भारतीय दंड संहिता या अन्य उपयुक्त अधिनियमों के तहत क़ानूनी प्रक्रिया पूरी की जाती तो बेहतर होता। इस मामले में मुझे दिल्ली सरकार का कदम बेहतर लगा, जिसने इस मामले पर एक त्वरित जाँच की प्रक्रिया शुरू कर दी है।
9) कुछ लोग कह रहे हैं कि ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ के नारे एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने लगाए थे। उन्होंने उसका वीडियो भी जारी किया है जो मैंने देखा है। मेरी राय में वह भ्रामक है क्योंकि बोलने वाले के होठों की गति (लिप मूवमेंट) उस नारे से अलग लग रही है। फिर भी, अगर आरोप है तो विशेषज्ञों द्वारा इसकी जाँच कराई जानी चाहिये और उपयुक्त कार्रवाई होनी चाहिये। वैसे, यह साफ़ कर देना ज़रूरी है कि मेरी राय में ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ की तुलना में “भारत की बर्बादी तक, जंग रहेगी, जंग रहेगी” ज़्यादा चिंताजनक नारा है। निजी तौर मैं चाहता हूँ कि पाकिस्तान सहित दुनिया का हर देश खूब सफल और खुशहाल हो पर भारत की बर्बादी की कामना करने वाले को बर्दाश्त करने की मेरे पास कोई वजह नहीं है।
10) और अब एक बार फिर वही बुनियादी सवाल। क्या जे.एन.यू. एक देशद्रोही विश्वविद्यालय है? मेरे ख्याल से हमें ऐसे जल्दबाज़ी वाले निष्कर्ष पर नहीं कूदना चाहिये।
देशभक्ति और देशद्रोह इतनी सरल अवधारणाएँ नहीं हैं जितना कि हम उन्हें समझते हैं। देशभक्ति का सबसे लोक-प्रतिष्ठित रूप निस्संदेह वह है जो हनुमंथप्पा जैसे सैनिकों के आत्मबलिदान में दिखता है; पर देश की आतंरिक विसंगतियों को समझना और वंचित वर्गों को मुख्यधारा में शामिल होने के लिये प्रेरित करना भी कोई छोटी देशभक्ति नहीं है। जेएनयू वह विश्वविद्यालय है जिसने भारतीय समाज के सभी वंचित वर्गों के अधिकारों की लड़ाई को ठोस सैद्धांतिक आधार देकर देश के भीतर आंतरिक सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना में अहम भूमिका निभाई है। इस योगदान को हल्के में नहीं लिया जा सकता। यह भी नहीं भूलना चाहिये कि अकादमिक अनुसंधान का जो स्तर जेएनयू में दिखता है, बाकी विश्वविद्यालय उसके आसपास भी नहीं फटकते। यहाँ दो-तीन साल पढ़ चुका विद्यार्थी भी तर्कशक्ति और ज्ञान की गहराई के स्तर पर बाकी विश्वविद्यालयों के अधिकांश अध्यापकों पर भारी पड़ता है। इसलिये, मेरी राय है कि अपनी उत्कृष्ट संस्थाओं का अवमूल्यन करके हम देश का नुकसान ही करेंगे।
देशद्रोह की धारणा पर भी विचार करने की गंभीर ज़रूरत है। भारत को बर्बाद करने के नारे लगाना निस्संदेह देशद्रोह का मामला बनता है, पर क्या देशद्रोह यहीं तक सीमित है? क्या सांप्रदायिक, भाषायी, क्षेत्रीय या नस्ली आधार पर देश के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देना ज़्यादा गंभीर देशद्रोह नहीं है? क्या नीडो के हत्यारों ने देश की एकता और अखंडता को इन नारे लगाने वालों से ज़्यादा नुकसान नहीं पहुँचाया? क्या ठाकरे परिवार ने मराठी-बिहारी नफ़रत की आग लगाकर देश का ज़्यादा नुकसान नहीं किया? क्या दादरी और मालदा की भीड़ों ने देश की एकता को कमज़ोर करने में कम भूमिका निभाई है? शायद हम सरल प्रतीकों में खो जाने वाले लोग हैं जिन्हें नारों के आधार पर ही देशभक्ति और देशद्रोह के तमगे पहनाने की आदत पड़ गई है।
इसलिये, बेहतर होगा कि हम इस डिबेट को व्यापक स्तर तक पहुँचाएँ। जेएनयू में जिन्होंने ‘भारत की बर्बादी’ के नारे लगाए, उनके ख़िलाफ़ समुचित कार्रवाई करें; पर यह सरलीकरण न करें कि जेएनयू एक देशद्रोही विश्वविद्यालय है। ज़्यादा अच्छा होगा कि हम इस बहस के बहाने देशद्रोह की सही परिधि भी तय करें। नारों और प्रतीकों तक सीमित न रहकर उन देशद्रोहियों की भी पहचान करें जो पहली नज़र में देशभक्त दिखते हैं। मुझे डर है कि मुझमें और हममें से अधिकांश के भीतर एक-न-एक ऐसा चेतन-अचेतन हिस्सा हो सकता है जो हमें भी इसी वर्ग में ला खड़ा करेगा।
विकास दिव्यकीर्ति। भारतीय जनता की सेवा में रत सरकारी मुलाजिम। दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। फिलहाल दिल्ली में निवास। मिजाज से दार्शनिक प्रतीत होते हैं। खुद को समझने में आधी ज़िंदगी गुजार चुके दिव्यकीर्ति अपने आस-पड़ोस को लेकर एक साफ सुथरा दृष्टिकोण रखते हैं।