दिवाकर मुक्तिबोध
लालसाय पुहूप। आदिवासी किसान। उम्र करीब 33 वर्ष। पिता – शिवप्रसाद पुहूप। स्थायी निवास – प्रेमनगर विकासखंड स्थित ग्राम कोतल (jmसरगुजा संभाग, छत्तीसगढ़)। ऋण – 1 लाख। ऋणदाता बैंक – सेंट्रल बैंक प्रेमनगर शाखा। बैंक का ऋण वसूली नोटिस – लोक अदालत में 10 हजार रुपये जमा। आत्महत्या दिनांक – 26 दिसंबर 2015। वजह – कर्ज न पटा पाने से मानसिक संताप। सबूत – सुसाइड नोट। प्रशासन का पक्ष – जांच के बाद स्थिति स्पष्ट होगी।
छत्तीसगढ़ में पिछले 4-5 महीनों में बैंक के कर्जदार किसानों की आत्महत्याओं का यह 36वां प्रकरण है। कर्ज के बोझ की वजह से जिंदगी खत्म कर देने वाले और भी कई नाम हैं, मसलन – रेखराम साहू (धमतरी), केजूराम बारले (अभनपुर), गोकुल साहू (आरंग), मानसिंह (कोण्डागांव), रघुराम मंडावी (विश्रामपुर), शत्रुहन देवांगन (छुरिया), बलिराम सोनवानी (भाटापारा), जागेश्वर कुमार (कोरबा) । और तो और नए साल की शुरुआत भी फांसी की घटनाओं से हुई। बेमेतरा जिले के सनकपाट गाँव के 55 वर्षीय किसान फिरंगी राम साहू ने फांसी लगाकर जान दे दी। इस सीमांत कृषक ने बैंक से कर्ज लिया हुआ था। नए वर्ष में आत्महत्या की दूसरी घटना मुंगेली जिले के बावली गाँव में घटी। शत्रुहन साहू भी कर्जदार था। 36 से 38 हुए ये आंकड़े चौकाने वाले हैं और राज्य में किसानों की बदहाली का जीता-जागता सबूत भी।
साल 2015 में छत्तीसगढ़ में वर्षा औसत से कम हुई। धान की फसल लगभग चौपट हो गई। सरकार ने 117 तहसीलों को सूखाग्रस्त घोषित करके व्यापक पैमाने पर किसानों की मदद के तथाकथित उपाय किए लेकिन आत्महत्या की घटनाएं नहीं थम रहीं। जान देने वाले अलग-अलग जिलों के हैं, जिनमें आदिवासी किसान भी शामिल हैं। सभी सीमांत कृषक हैं। दो-ढाई एकड़ जोत के मालिक। प्राय: सभी ने खेती के लिए ऋण ले रखा था, जिसे अदा न कर पाने और बैंकों के वसूली अभियान से संतप्त होकर जान दे दी। जैसा कि आम तौर पर होता है – राज्य सरकार भूख से हुई मौतों एवं अकाल व सूखे के कारण होने वाली आत्महत्या की घटनाओं को स्वीकार नहीं करती। लिहाजा, छत्तीसगढ़ में अब तक किसानों की खुदकुशी के जितने भी मामले सामने आए, संबंधित जिला प्रशासन ने कारण कुछ और बताया। फ़सल चौपट होने एवं सरकारी व राष्ट्रीय बैंकों द्वारा ऋण वसूली के लिए बनाए गए दबाव को नहीं।
राज्य विधानसभा में प्रतिपक्ष कांग्रेस ने किसानों की आत्महत्या की घटनाओं पर स्थगन प्रस्ताव जरुर पेश किया किन्तु इस मुद्दे पर न तो वह सदन में कोई दबाव बनी सकी और न ही विधानसभा के बाहर, शहर और गाँवों की सड़कों पर किसानों के हक में कोई प्रभावशाली प्रदर्शन कर सकी। अलबत्ता, किसान नेताओं ने अपने स्तर पर अपनी जमात को इकट्ठा कर रखा है और उनका धरना-प्रदर्शन, आंदोलन लगातार जारी है। कांग्रेस ने केवल इतना किया कि उसने आत्महत्या की प्रत्येक घटना पर अपनी जांच बैठायी। टीम ने क्षेत्र का दौरा किया और प्रभावितों से बातचीत की। प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने दावा किया कि उसने 53 मामलों की जांच की, जिसमें तकरीबन हर मामले में किसान की आत्महत्या की वजह फसल चौपट होने के कारण गहरी निराशा या ऋण अदा नहीं कर पाने और परिवार के भरण-पोषण की चिंता रही।
किसान आत्महत्या प्रकरणों के संदर्भ में आम आदमी पार्टी का भी यही मत है। प्रदेश संयोजक और कृषि विशेषज्ञ संकेत ठाकुर के अनुसार पार्टी के संज्ञान में 29 मामले आए। इनमें से 8 की विस्तार से जांच रिपोर्ट राज्य मानवाधिकार आयोग को सौंपी गई है लेकिन इन मामलों में कोई कार्रवाई नहीं हुई। जबकि महाराष्ट्र के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है कि किसान आत्महत्या करता है तो इसके लिए सरकार जिम्मेदार है।
1 नवंबर 2000 में मध्यप्रदेश से अलग होकर एक पृथक राज्य के रुप में अस्तित्व में आया छत्तीसगढ़ ‘धान के कटोरे’ के रुप में जाना जाता है। लेकिन सिंचाई सुविधाओं के सवाल पर वह अभी भी फिसड्डी है, जबकि राज्य की बीजेपी सरकार ने बीते माह ही बारहवीं वर्षगांठ मनाई है। इन 12 वर्षों में राज्य पहली बार सूखे की जबरदस्त मार झेल रहा है। अकाल का प्रभाव प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप से शहरों में कम, गाँवों में ज्यादा नजर आता है। वह पूरी आबादी को समान रुप से प्रभावित नहीं करता। विश्वविख्यात अर्थशास्त्री एवं नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. अमर्त्य सेन के अनुसार अकाल हमेशा एक विभाजक प्रक्रिया होती है। पीड़ित लोग अमूूमन समाज के सबसे निचले तबके के होते हैं – गरीब किसान, अधिकांश भूमिहीन खेतिहर मजूदर, सीमांत या छोटे किसान आदि। कदाचित ऐसा अकाल कभी नहीं हुआ जिसने हर एक व्यक्ति को समान रुप से प्रभावित किया हो।
वर्ष 2000 में नया राज्य बनने की खुमारी के बावजूद अकाल की त्रासद घटनाओं में कोई कमी नहीं आई थी। लेकिन साल 2015 में कम वर्षा के कारण जो सूखा पड़ा है वह इस मामले में भयावह है कि कृषि जीवन की बदहाली से तंग होकर छोटी जोत के किसान जान देने पर उतारु हैं। छत्तीसगढ़ का इतिहास भीषण है। सन् 1828-29 में तत्कालीन छत्तीसगढ़ जिले में घोर अकाल पड़ा था जब बिलासपुर में चावल 1 रुपये में 12 सेर यानी 10 गुना अधिक कीमत पर बिका था। जबकि सामान्यत: चावल 1 रुपये में 120 सेर मिलता था। मध्यप्रदेश शासन द्वारा 1973 में प्रकाशित अकाल संहिता में दिए गए विवरण के अनुसार वर्ष 1832-35 के दौरान फसलें अत्यंत खराब हुईं थीं जिसमें विभिन्न भागों के हजारों लोग अकाल मौत के शिकार हुए थे। पुन: 1885 के सूखे ने छत्तीसगढ़ में विभीषिका दिखाई। फिर 1893-1900, 1902-03, 1918-19, 1920-29, 1940-41 अकाल के त्रासद वर्ष रहे। 1965-1970 के दौरान अविभाजित मध्यप्रदेश में भारी अकाल पड़ा था जिसमें 43 में से 38 जिले बुरी तरह प्रभावित हुए थे। सौभाग्य से राज्य में पिछले तीन-चार दशक में प्रकृति का कोई ऐसा चित्र उपस्थित नहीं हुआ जिससे समस्त छत्तीसगढ़ समान रुप से प्रभावित हो।
नया राज्य बने डेढ़ दशक हो गए हैं पर छत्तीसगढ़ के किसानों की माली हालत में कोई खास परिवर्तन होता नजर नहीं आता।
कहने के लिए कृषि सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। इसीलिए पिछले कुछ वर्षों से वह कृषि का अलग बजट विधानसभा में पेश करती रही है जिसमें कृषि की उत्पादकता बढ़ाने, रसायनों की मार से आहत भूमि की उर्वरा शक्ति को मजबूत करने के तमाम प्रावधान किेए जाते हैं। खाद, बीमा, ऋण की व्यवस्था एवं सिंचाई के साधनों के विस्तार के उपायों के लिए भी बजट आवंटित होता है। सरकारी व्यवस्थाओं से उत्पादकता तो बढ़ी है लेकिन खेती का रकबा तेजी से सिमटता जा रहा है। छोटी जोत के करीब 30 लाख किसानों के पास खेती के अलावा कोई उपाय नहीं है। यदि प्रकृति दगा दे जाए तो फाकाकशी तय है। बड़ों एवं समृद्धों को छोड़ दें किंतु छोटी जोत के किसानों का अकाल की स्थिति में संरक्षण सरकार का दायित्व है और अनहोनी की स्थिति में इसकी जवाबदेही से वह बच नहीं सकती।
आंकड़े बताते है कि देश में किसान और खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश अग्रणी है। छत्तीसगढ़ 5वें-6वें पर है। यह बात ठीक है कि ऋण माफी समस्या का स्थायी हल नहीं है। छोटी जोत के तमाम किसानों के खेतों तक नहरों का पानी पहुंचाना भी आसान नहीं, लेकिन ऐसी व्यवस्थाएं तो की जा सकती है ताकि अवर्षा या अल्पवर्षा की स्थिति में खेतों को पानी मिल सकें। सिंचाई के छोटे-छोटे साधन मसलन डबरी, कुएं तथा छोटे-छोटे तालाबों का निर्माण, बरसात में पानी का संरक्षण आदि काफी कुछ मदद कर सकते हैं।
दिवाकर मुक्तिबोध। हिन्दी दैनिक ‘अमन पथ’ के संपादक। पत्रकारिता का लंबा अनुभव। पंडित रविशंकर शुक्ला यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। संप्रति-रायपुर, छत्तीसगढ़ में निवास।