शिवाजी राय
चमचमाती गलियां, रात को हर चौक-चौराहे पर जलते लैंप पोस्ट, सुबह के वक़्त गलियों में साफ-सफाई करते बच्चे, युवक और बुजुर्गों की टोली, खेतों में लहलहाती नकदी फसलें। यह किसी गांव के काल्पनिक लोक की तस्वीर नहीं है। ऐसा हो रहा है- उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के रेवतीपुर गांव में। वैसे तो यह देश के दूसरे गांवों के जैसा ही है, लेकिन सहभागिता से साफ-सफाई, सहकारिता पर आधारित खेती, आर्थिक और सामाजिक विकास के तमाम कार्य और गांव के प्रति निवासियों की कर्तव्य निष्ठा इसे दूसरे गांवों से अलहदा बनाती है।
प्रतिदिन यहां आपको गलियों की साफ-सफाई करते युवकों की टोली देखने को मिल जाएगी। यहां साफ-सफाई का कार्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान का हिस्सा नहीं है। यह ना तो लोहिया गांव है और ना ही इस गांव को किसी सांसद ने गोद लिया है। यहां गांववालों की सहभागिता से स्वच्छता कार्यक्रम पिछले 16 सालों से चल रहा है। साफ-सफाई में जुटे युवा ग्रामसभा के वेतनभोगी सफाईकर्मी नहीं हैं। ये युवा गांव में हो रहे अनूठे प्रयोग के साझीदार हैं। या यह कहें तो ज्यादा सटीक होगा कि ये वह युवा हैं, जो बिखरे सपनों को जोड़ना जानते हैं और खत्म हो चुकी उम्मीदों को फिर से जगाना चाहते हैं।
गांव की उपलब्धियां
औसत किसान फसलों से प्रति एकड़ 2०-25 हजार रुपए कमाते हैं।
गांव के कुछ किसान प्रति एकड़ एक लाख रुपए तक कमाते हैं।
सब्जी उत्पादन, मधुमक्खी और रेशम कीट पालन में अग्रणी।
मौसमी सब्जियों के साथ-साथ केला, मेंथा का भारी मात्रा में उत्पादन।
गांव में राज्य की सबसे अधिक दूध इकट्ठा करने वाली डेयरी। डेयरी प्रतिदिन 12 हजार लीटर दूध इकट्ठा करती है
वर्ष 1998 में गांव के ही बाशिंदे सच्चिदानंद राय के प्रयास से गांव में सहभागिता से सफाई और समग्र विकास का काम शुरू किया गया। इसी क्रम में गांव के करीब दो सौ जागरूक लोगों ने एक बैठक की। इस बैठक में नागरिक कर्तव्यों के प्रति आमजन की घोर उदासीनता को रेखांकित करते हुए संस्कार शोधन की प्रक्रिया को आरंभ करने पर आम सहमति बनी। लोगों ने तय किया कि व्यवस्था की विसंगति पर विलाप की बजाय बदलाव का वाहक स्वयं बना जाए। फिर गांव की भौगोलिक स्थिति के मद्देनजर विकास के संदर्भ में आने वाली चुनौतियों को जानने के लिए गांव का सर्वेक्षण करने का फैसला किया गया, जिससे विकास की राह में आने वाली परेशानियों को रेखांकित किया जा सके। फिर प्रत्येक परिवार के भोजन, आवास की स्थिति के साथ स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार आदि से संबंधित तथ्यों के लिए चार पेज का एक प्रपत्र तैयार किया गया।
सर्वेक्षण से जहां गांव का आर्थिक ढांचा और गांववालों की आर्थिक स्थिति सामने आई, वहीं गांव में निर्धन परिवारों के लिए चलाई जा रही सरकारी आवासीय योजनाओं की कलई खुल गई। इन योजनाओं को लेकर यह बात सामने आयी कि आवासीय योजनाओं में पात्रता का पैमाना उस परिवार की आर्थिक स्थिति नहीं बल्कि पंचायत या पंचायत से साठगांठ रखने वाले किसी प्रभावी व्यक्ति का कृपापात्र होना था। दूसरे गांवों की तरह इस गांव में भी ऐसे हजारों उदाहरण थे, जहां संपन्न परिवार को किसी अत्यंत निर्धन परिवार का कानूनी हक मारकर आवास आवंटित कर दिया गया था सिर्फ इसलिए कि गरीब परिवार का कोई पैरोकार नहीं था। न ही वह चुनावी समीकरण में संबंधित सत्ताधारी का सहयोगी था।’
सर्वेक्षण में प्राप्त आंकड़ों को देखते हुए गांव के समग्र विकास के लिए कृषि के क्षेत्र में मजबूत पहल करने का निश्चय लिया गया। गांव के युवा और प्रगतिशाली सोच वाले किसानों ने वर्तमान घाटे वाले स्वरूप को लेकर दूसरे जिले और राज्यों के जागरूक और सफल किसानों के साथ संपर्क, संवाद और सहयोग का वातावरण बनाया। इसके साथ ही गांव के किसानों ने राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर `अध्ययन भ्रमण’ यात्रा शुरू की। इस यात्रा में मिले अनुभवों के आधार पर कृषि को हाईटेक कर उसको उच्चतम लाभ स्तर तक पहुंचाने का बड़ा लक्ष्य तय किया गया। दूसरे राज्यों के सफल किसानों की कार्य पद्धति और सुझावों से इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि दस एकड़ की जोत वाला मध्यम स्तर का किसान भी व्यावसायिक आधार पर फसलों का चयन कर उन्नत कृषि तकनीकों के उपयोग से अधिकतम उत्पादन स्तर को प्राप्त कर सकता है। इस प्रक्रिया द्बारा आठ से दस लाख के वार्षिक आय के स्तर को सहजता से छू सकता है।
इन किसानों ने प्राप्त अनुभवों के आधार पर स्थानीय परिस्थिति को देखते हुए उच्च लाभकारी फसलों का चयन किया। प्रारंभिक चरण में केला और मेंथा की खेती की शुरूआत हुई। साथ ही आलू, टमाटर और अपनी परंपरागत फसलों को भी अपग्रेड किया गया। इन प्रयासों का उत्साहजनक परिणाम प्राप्त हुआ। यहां के किसान परंपरागत खेती से इतर औषधीय खेती, रेशम कीट पालन, मधुमक्खी पालन, पशुपालन, डेयरी की दिशा में आगे बढ़े। आज पूरे इलाके में कृषि के प्रयोगात्मक पहल के साथ-साथ व्यावसायिक स्तर पर भी लगातार विकास जारी है। यह इलाका आज सब्जी उत्पादन का सबसे बड़ा केंद्ग बन गया है। आज यहां पड़ोसी जिले और राज्यों के सब्जी व्यापारियों का जमावड़ा लगा रहता है। आलू, टमाटर, मशरूम, मटर, मिर्च, केला और मूसली का यहां के किसान भारी मात्रा में उत्पादन करते हैं। यहां से उत्पादित सब्जियां और औषधीय फसलें बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल तक जाती हैं। सहभागिता का ही असर है कि यहां के किसान बाजार की शक्तियों के शोषण के खिलाफ एकजुट होते हैं। साथ ही कृषि उत्पाद के मूल्य संवर्धन के लिए सामूहिक प्रयास करते हैं।
युवा किसान अनिल कुमार कहते हैं कि वर्तमान उपलब्धियों को आधार मानकर गांव का समग्र कृषि प्रक्षेत्र (करीब 15००० एकड़) 5०००० रुपए प्रति एकड़ के लाभ पर खड़ा हो जाता है, तो निकट भविष्य में इस इलाके का कृषि लाभ 75 करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है। आज सिर्फ रेवतीपुर की ही नहीं, इससे सटे करीब 5० गांवों की अर्थव्यवस्था में तरलता आई है। इस तरलता से उपभोग का स्वरूप भी बदला है और तरह-तरह के छोटे रोजगारों का विस्तार हुआ है। इसमें पशुपालन और दूध उत्पादन प्रमुख है। इस गांव की डेयरी उत्तर प्रदेश की सबसे समृद्ध डेयरी है। यहां प्रतिदिन 12 हजार लीटर दूध इकट्ठा होता है। यहां के दूध उत्पादन को देखकर उत्तर प्रदेश दुग्ध उत्पादन संघ के आला अधिकारियों ने यहां का दौरा किया और कार्य पद्धति के बारे में जाना-समझा। दुग्ध उत्पादन संघ के अधिकारी यहां की नीतियों से बेहद प्रभावित हुए । अधिकारियों ने यहां की दूध समिति के सुझाव पर पशुपालकों को ऋण देने का अधिकार सीधे समितियों को सौंप दिया।
सच्चिदानंद राय कहते हैं कि दो दशक पहले जब डेयरी की शुरूआत हुई तो लोग दूध बेचने को लेकर असहज थे। गांवों में `दूध बेचने वाली चीज नहीं है’ की धारणा लोगों के दिमाग में थी। निर्धन से निर्धन परिवार भी दूध बेचने में झिझकता था और दूध बेचने को सम्मान के खिलाफ समझता था। लोगों की झिझक को तोड़ना कठिन था। शुरुआत में हम लागों ने खुद और कुछ जागरूक लोगों ने दूध बेचना शुरू किया। धीरे-धीरे लोगों की झिझक दूर हुई और दूध बेचना शुरू हुआ। इसके बाद इन्हें पशुओं की अच्छी नस्ल और बेहतर रखरखाव की जानकारी दी गई, जिससे दूध उत्पादन और आय बढ़ी।
युवा किसान राकेश कुमार कहते हैं, `इस गांव में हो रहे प्रयोग उन सभी के लिए प्रेरणास्रोत है, जो अपने कौशल का इस्तेमाल करते हुए समाज हित से जुड़े किसी काम में हाथ बंटाना चाहते हैं। साथ ही यह हमें सबसे बेहतर योगदान के लिए प्रेरित भी करता है। आज जब युवा सिर्फ अपने भविष्य को लेकर फिक्रमंद हैं, वहीं यहां युवाओं की रचनात्मक सोच और सामाजिक उदेश्य के लिए काम करना काबिले तारीफ है। इनकी मौलिक कोशिश वास्तविकता में लोकतंत्र का विस्तार ही है। गांव में बदलाव लाने के लिए बेताब ये युवा बदलाव के दौर से गुजर रहे भारत का प्रतिबिंब हैं।’
गांव में दुकानों के बाहर डस्टबिन रखने का स्वभाव भी विकसित हो रहा है। आज यहां के लोग जाति, समुदाय, धर्म और गुटबंदी के समस्त खांचों से बाहर निकलकर स्वच्छता कार्यक्रम में बढ़-चढ़कर भागीदारी करते हैं। गांव के स्तर पर यहां की सहभागिता और पहल अनूठी है। बात अगर राष्ट्रीय स्तर पर करें तो देश में अब तक समग्र ग्राम विकास के इस लोक संस्कार जागरण प्रणाली का छोटे गांवों पर ही प्रयोग सफल हुआ है। 5० हजार से अधिक की आबादी वाले गांव पर प्रयोग करने का अर्थ 15 से 2० गांवों पर एक साथ प्रयोग करने के बराबर है। जैसा प्रयोग महाराष्ट्र में अण्णा हजारे और पोपटलाल पवार ने किया। गांव के लोगों के मुताबिक लक्ष्य बड़ा है लेकिन जिस हिसाब से लोग सहभागी बन रहे हैं उससे लक्ष्य हासिल करना कठिन नहीं है।’ यह गांव संदेश देता है कि यदि दूरदर्शी नेतृत्व और सृजनात्मक मंशा हो तो समरसता, सहकारिता, सौहार्द्र के भावों का सशक्त प्रकटीकरण करने में समाज प्रमाद नहीं बरतता। गांधी की परिकल्पना का गांव रेवतीपुर से काफी हद तक मिलता-जुलता है। गांधी के विषय में कवि सोहनलाल द्विवेदी ने लिखा था `चल पड़े जिधर दो डग, मग में/चल पड़े कोटि पग उसी ओर’। शायद रेवतीपुर भी ग्रामीण भारत को दिखा सके।
शिवाजी राय। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। उत्तरप्रदेश, गाजीपुर के निवासी। इन दिनों नोएडा में अस्थायी निवास। पत्रकारिता में पिछले करीब एक दशक से सक्रिय। गंवई मिजाज और मुद्दों पर साफगोई, हर कीमत पर इन्हीं से प्यार है।
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