पुष्यमित्र
इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (IGIMS) के विशाल गलियारे के डिवाइडर पर बैठे मिले 83 साल के जमील अहमद। जमील सुपौल जिले में कोसी तटबंध के भीतर के गांव पचगछिया के रहने वाले हैं। पूछने पर कहते हैं, वे यहां हार्ट का इलाज कराने आये हैं। हार्ट में क्या हुआ, पूछने पर बताते हैं, घबराहट होती है, कभी-कभी अचानक धड़कन तेज हो जाती है और कमजोरी महसूस होती है। अस्पताल की परची देखने पर पता चलता है कि हृदय रोग है या नहीं यह अभी स्पष्ट नहीं। इन्हें इसीजी, इको-कार्डियोग्राम और दूसरे ब्लड टेस्ट लिखे गये हैं। इसीजी और ब्लड टेस्ट का नतीजा आ चुका है, जो सामान्य ही है। इको करवाना है। जमील यहां तीसरी बार आये हैं। कोसी तटबंध के भीतर बसे अपने गांव से उन्हें यहां आने में तकरीबन 24 घंटे लग जाते हैं। सुबह आठ बजे निकलते हैं, दो नदियां पार कर, तकरीबन 10 किमी पैदल चलकर वे तटबंध तक पहुंचते हैं, फिर वहां से किसी सवारी से सुपौल, अपने गृह जिले तक पहुंचने में शाम हो जाती है। फिर वहां से रात की बस पकड़ कर सुबह सवेरे पटना पहुंचते हैं। वे अपने संभावित हृदय रोग की पड़ताल और उसके इलाज की उम्मीद में तीन दफा ऐसी यात्रा कर चुके हैं। 83 साल की उम्र में और कमजोरी की शिकायत के बावजूद। बात सिर्फ इतनी है कि सुपौल के डॉक्टर उनका रोग पकड़ नहीं पाये, और IGIMS में इको जांच करने वाली मशीन पिछले कुछ दिनों से खराब थी, जो हाल-फिलहाल ठीक हुई है।
चुनावी ज़मीन पर मुद्दों की पड़ताल-2
पूर्णिया जिले के बड़हरा प्रखंड के 16 साल के रुपेश यादव यहां कैथेटर डलवाने आये हैं। उनके पिता श्याम सुंदर यादव कहते हैं कि पूर्णिया के डॉक्टरों ने कहा कि कैथेटर (मूत्राशय में लगने वाली पाइप) यहां नहीं लग सकती, पटना ही जाना पड़ेगा। वे पिछले 12 दिनों से इलाज के लिए पूर्णिया, पटना और यहां-वहां भटक रहे हैं। कैथेटर लगा कर रूपेश अपने माता-पिता के साथ ओपीडी के बाहर खुले में प्लास्टिक बिछा कर बैठे मिले। वे वहीं पैन में शौच कर रहे थे। पता नहीं विशेषज्ञ इसे खुले में शौच मानते हैं या नहीं। दरअसल, उन्हें एडमिट नहीं किया गया था, क्योंकि इसकी जरूरत नहीं थी। मूत्र रोगों में कैथेटर लगाना छोटी-मोटी बात है।
अब यह चिकित्सा विभाग के विशेषज्ञ ही बता सकते हैं कि क्या ये इतनी बड़ी बीमारियां हैं कि लोगों को 20-24 घंटे की यात्रा करके पटना आना पड़े? क्या सुपौल के डॉक्टर या वहां के सदर अस्पताल में हृदय रोग की सामान्य जांच नहीं हो सकती? क्या उस पूर्णिया में डॉक्टर एक कैथेटर तक नहीं लगा सकते, जिसे पूर्वी बिहार का मेडिकल हब माना जाता है? आखिर इस व्यवस्था में कौन सी चूक है, जो मरीजों को इन छोटी-छोटी बीमारियों के लिए बिहार के इस सर्वश्रेष्ठ सरकारी अस्पताल के चक्कर लगाने पड़ते हैं? मरीजों से पूछता हूं, तो वे नाराज़ हो उठते हैं। कहते हैं, जिलों के सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था कुछ साल पहले ठीक तो हुई थी, मगर अब हालत फिर वही ढाक के तीन। डॉक्टर नहीं मिलता तो इलाज किससे करवायें? पहले तो सीधे दिल्ली एम्स तक दौड़ लगाना पड़ता था, अब यह एक IGIMS हो गया है, जहां कुछ ढंग का इलाज होता है।
सुबह के सात बजे हैं, ओपीडी के सामने सैकड़ों मरीज जमा हैं। वे गेट खुलने का इंतज़ार कर रहे हैं, गेट खुले तो नंबर लगायेंगे। आसपास में जहां आप नजर दौड़ायेंगे, बैठने की थोड़ी भी जगह हो तो वहां मरीज या उनके परिजन बैठे मिलते हैं। पूरे बिहार से यहां लोग आये हैं। टीवी वाले जो दो-ढाई हजार सैंपल लेकर बिहार चुनाव का रिजल्ट बता देते हैं, वे यहां आकर ठीक-ठाक सर्वे कर सकते हैं। मगर यहां आने पर चुनावी सर्वे करने को जी नहीं चाहता।
प्रकाश कुमार, जो खुद एक स्वास्थ्य कर्मी हैं, अपने 17 साल के बच्चे को लेकर आये हैं, क्योंकि सीतामढ़ी के डॉक्टर ने उसकी किडनी में बड़े पत्थर होने की आशंका जाहिर कर दी है, हालांकि बच्चे को दर्द नहीं होता। 18 साल के तनवीर आलम, जो सहरसा, महिषी के भेलाही गांव के रहने वाले हैं, डॉक्टरों ने कहा है उनकी किडनी सिकुड़ रही है। सिंघिया, समस्तीपुर के खेतिहर मजदूर राजाराम पासवान के बेटे आठ साल के गुड्डू कुमार को वहां के डॉक्टरों ने लीवर में शिकायत बता दी है। राजाराम 20 हजार रुपया 5 टका महीना सूद पर उठा कर आये हैं, अब इलाज में जो खर्च हो। दिहाड़ी मजदूर हैं, क्या करें। सैकड़ों लोग ओपीडी खुलने का इंतजार कर रहे हैं, ताकि इलाज की लंबी और थकाऊ प्रक्रिया की ढंग से शुरुआत कर सकें।
लोग बताते हैं कि पहले 50 रुपये की परची कटेगी। फिर ढूंढ-ढांढ कर डॉक्टर के केबिन तक पहुंचना पड़ेगा। वहां दस बजे डॉक्टर बैठेंगे तो पता चलेगा कि अभी एडवांस नंबर चल रहा है। भारी-भीड़ के बीच डॉक्टर को दिखाते-दिखाते दो बज जायेंगे। डॉक्टर कुछ टेस्ट लिख देंगे जिनका अलग परचा कटता है। चूंकि पहले दिन इतनी देर हो जाती है कि टेस्ट अगले दिन ही करा सकते हैं। फिर दो-तीन दिन में नतीजे आते हैं, फिर वही प्रक्रिया। खैर, इसके बावजूद आइजीआइएमएस में अच्छा इलाज होता है। गलत इलाज नहीं होता। मरीजों को ठगा और लूटा नहीं जाता। यह भरोसा उन्हें यहां खीच लाता है।
पानी के बेसिन के आगे भी अच्छी खासी भीड़ है। लोग न सिर्फ दंतवन कर रहे हैं, बल्कि नहा लेने की भी कोशिश कर रहे हैं। कुछ लोग ओपीडी के सामने बने एक शौचालय में भी जा रहे हैं। मगर वहां चार्जेज काफी अधिक हैं। शौच का 7 रुपये, नहाने का दस रुपये और मूत्र करने का 2 रुपये। आप वहां मोबाइल भी चार्ज करवा सकते हैं। पांच रुपये में। ये सब जरूरी आवश्यकताएं हैं, मगर ये सुविधाएं यहां अस्पताल में आसानी से नहीं मिल सकतीं। जो लोग एडमिट हो गये हैं, वे तो वार्ड में शौचालय का उपयोग कर लेते हैं। बांकी लोगों के लिए यह 20-25 रुपये का रोज का खर्च है।
बात इतनी ही नहीं। यहां मरीज के चेकअप में कम से कम तीन-चार दिन लगते हैं और अगर मरीज भरती हो गया तो कम से कम 15 दिन तो रहना ही पड़ता है। ऐसे में मरीज के परिजनों को रहना, खाना-पीना सब कुछ इसी कैंपस में करना पड़ता है. रात कैंपस में ही गुजरती है, खुले आकाश के नीचे मच्छरदानी लगाये सैकड़ों लोग सोये नज़र आते हैं।
सीवान के दरौली प्रखंड के दोन गांव के बालेश्वर प्रसाद एक बार 20 रोज तक इलाज करा कर अपनी दोनों किडनी से पथरी निकलवा कर लौट चुके थे। अब ऑपरेशन के वक्त बंधे तार को खुलवाने आये हैं। चार रोज से यहीं हैं, नंबर के इंतजार में। बालेश्वर अस्पताल के सामने छोटे वाले गैस सिलिंडर पर खुले आसमान के नीचे खाना पका रही अपनी पत्नी के साथ बैठे मिले। उन्हें मालूम है कि IGIMS में इलाज कराना है तो अपना गैस सिलिंडर, अपना बरतन और कच्चा समान होना चाहिये, नहीं तो बिक जायेंगे। तभी तो 30 हजार में ही काम निकल गया। उनके जैसे पचासों लोग सुबह-शाम अस्पताल परिसर में इसी तरह खाना पकाते मिलते हैं। खुले आसमान में। देख कर थोड़ा अजीब लगता है, मगर क्या करें… हालांकि पिछवाड़े में एक बड़ा शानदार रेस्तरां खुल गया है. वहां हर तरह का लजीज व्यंजन मिल जाता है. मगर लोग चाहते हैं, इसके बदले एक छोटा सा मेस खुल जाता जहां तीस रुपये में भी भरपेट खाना मिल जाता तो ज्यादा सहूलियत होती।
परवल छील रहे एक सज्जन बताते हैं, पहले यहां एक सरकारी धर्मशाला हुआ करती थी, जहां सौ रुपये में कमरा मिल जाता था, साथ में गैस चूल्हा और खाना पकाने का बरतन भी, बेहतरीन इंतजाम था। एटेंडेंट को बड़ी सुविधा हो जाती थी। मगर दो-तीन साल से वह बंद है। पूछने पर पास ही चाय बना रहा एक दुकानदार बताता है, उहां नर्सिंग कॉलेज खुल गया। यानी नर्सिंग कालेज खुलना था इसलिए धर्मशाला की बलि ले ली गयी। बड़ा अच्छा इंतजाम होगा… मेरे मुंह से निकलते ही चाय वाला भड़क गया। इंतजाम तो बढ़ियां था मगर लोग ठीक रहने दें तब तो, घिना कर पैखाना घर बना दिये थे। बंद होना ही था। ई बिहार है भैया, लोग कोई चीज ठीक रहने दें तब न। उनके जवाब पर परवल छील रहे सज्जन कहते हैं, चलिये ठीक हुआ, धर्मशाला बंद हो गया। अब आपका चाय बिक रहा है न… जवाब सुन कर चाय वाला झेंप जाता है। मुस्कुराते हुए कहता है, किडनी का इलाज कराने आये हैं मरदे… वही करा लीजिये… अब कोची-कोची का इलाज करेंगे डागडर बाबू…. कहने को तो पूरा बिहारे बीमार है।
(पुष्यमित्र की ये रिपोर्ट साभार- प्रभात खबर से)
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।
चुनावी ज़मीन पर मुद्दों की पड़ताल की पहली किस्त पढ़ने के लिए क्लिक करें