क़ातिलों, ये खून का मिजाज है!

धीरेंद्र पुंडीर

बिहार के प्रसिद्ध चित्रकार राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की कृति।
बिहार के प्रसिद्ध चित्रकार राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की कृति। साभार- उनके फेसबुक वॉल से।

खून से सने खंजर को साफ करते हुए
भीड़ के साथ नारा लगाया
एक और काफिर मारा गया
पूरा हुआ फर्ज
खत्म हुआ ऊपर वाले का कर्ज
कयामत के दिन
नहीं होगा ऊपरवाले के सवालों का कोई डर

सड़क पर फैला खून
धीरे धीरे सड़क से रिस रहा था
उसी वक्त दूर कहीं
ऐसी ही भीड़ से निकलकर
एक साफ करता है चाकू
खून के फव्वारों से सने हुए कपड़े
ज़हर से भीगे ठहाकों के बीच
नारा लगाता है
उनका भी एक मारा गया
अब कोई डर नहीं
ऊपरवाले के लिए बचा अपना कोई फर्ज नहीं

ईश्वर ने इसी के लिए हमें बनाया है
सफाया हर उस राक्षस का होगा
जिसने हमारे धर्म को धमकाया है
बिखरे हुए खून में लिपटा अऩाम चेहरा
दोनों भीड़ की खुशियों से अनजान

खून उतरता चला जाता है नालियों में
पानी के साथ बहता हुआ
मिल जाता है एक दूसरे से
बिना खंजर और चाकू के दर्द की परवाह किए
नालियों से नालों और नालों से भी बहुत आगे
एक दूसरे में समाता जाता है खून

धीरे-धीरे आसमान से घूम कर
धरती की कोख में आता है खून
फिर से जनमने के लिए
बेपरवाह इस बात से
जेहादी के घर या काफिर के घर
किसी कोख में फल जाता है खून।

दो

बिहार के प्रसिद्ध चित्रकार राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की कृति। साभार- उनके फेसबुक वॉल से।
बिहार के प्रसिद्ध चित्रकार राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की कृति। साभार- उनके फेसबुक वॉल से।

हम क्रांत्रियों के छलावों से छले थे

पैर छालों से  भर गए
हाथों से गिर गई रोटियां
बेटियों की इज्जत को तार-तार देखा
बेटों की लाशों को बार-बार देखा
हर बार घास की खाई रोटियां
हल ये हुआ कि
उनके हाथ आई बोटियां
उनका कुछ गया नहीं
हमारा कुछ रहा नहीं
इस कदर आराम से आई
हमारे यहां क्रात्रियां

वो रोटियों से चोटियों पर चले थे
दिन की तलाश में
आधी रात को चले थे
हम दूध से नहीं
छाछ से जले थे
कई बार रो दिए
कई बार हंस दिए
अब तो ये भी याद नहीं
अब है कि पहले भले थे
हम रोटियों की तलाश में चले थे
हम क्रांत्रियों से नहीं
क्रात्रियों के छलावों से छले थे

dhirendra pundhir


धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंढीर की अपनी विशिष्ट पहचान है। 


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