कीर्ति दीक्षित
काश हे मजदूर! तुम भी असहिष्णु हो जाते, हे किसान! तुम भी असहिष्णु हो जाते।
आकुल अन्तर की आह मनुज की, इस चिन्ता से भरी हुई
इस तरह रहेगी मानवता, कब तक मनुष्य से डरी हुई?
पाशविक वेग की लहर लहू में, कब तक धूम मचायेगी?
कब तक मनुष्यता पशुता के आगे यों झुकती जायेगी?
ऐसा लगता है गाँव की पीड़ा रही ही नहीं। इनके पास भी दर्द है, सामाजिक युद्ध भी हैं, ये भूल ही गये। उनके युद्ध जीवन से हैं धर्म या फिर देश से नहीं, क्या इसलिए इस लड़ाई में उनका सहभागी कोई नहीं। ये वही लोग हैं जिनका खून पसीने से उगाया अन्न भर पेट खाकर आप गला फाड़ते हैं और वे कभी सब्जी तो कभी दाल या फिर कभी नमक के सहारे अपने आधे पेटों को भर के सो जाया करते हैं। सरकारों के सामने हाथ पसारे हाथ जोड़े खड़े होने में भी इनके सम्मान पर चोट नहीं होती। वर्षों गुजर जाते हैं किन्तु उनके जोड़े या पसरे हाथों का कोई फल नहीं मिलता। फिर कोई सरकार आती है फिर अधिकारी आते हैं और उसी तरह वे फिर खड़े हो जाते हैं हाथ बांधे।
भारत माता की जय, असहिष्णुता, राष्ट्रभक्ति आदि आदि ना जाने कितनी व्यंजनायें खबरों में हैं, अखबार, टी.वी., सोशल मीडिया में। ये शब्द कोहराम मचाये हैं, हलधर नाग को पदम् सम्मान मिलता है लेकिन बात होती है किसने भारत माता की जय बोलने से इनकार किया, देशद्रोह के आरोपियों ने क्या कहा। ऐसा लगने लगा है मीडिया बस यही खोजते बैठा है कि कब कौन विष उगल रहा है या फिर एक निमंत्रण पत्र बनाकर रखा है कि आओ जी विवादित बयान दो और प्रसिद्ध हो जाओ खुला मंच है। जब विवादित बोलने से ही ख्याति प्राप्त होनी है तो लोग अच्छा काम क्यों करें? मीडिया की भी अपनी विडम्बनाओं के तर्क हैं, गलत तो दिखाना ही पड़ता है, और जो बिकेगा वो दिखेगा! बिलकुल सही है! लेकिन फिर स्वयं को व्यापारी कहिये राष्ट्र निर्माण का स्तम्भ मत बनिए। कलम को निश्चित करना है कि नायक किसे बनाया जाये। वास्तविकता में शब्दाडंबर में उलझे लोग स्वयं मुश्किलों की बात ही नहीं करना चाहते, हम भी वही देखना सुनना चाहते हैं जिसमें मिर्च हो मसाला हो।
आज विडम्बना देखिये जिन नारों की हुंकार कर कर के देश को स्वतंत्रता प्राप्त हुई वो आज विवाद बने हैं। धर्म बनाम राजनीति का युद्ध चल रहा है, किन्तु ये लड़ाई नयी तो नहीं। इसका उदय तो उसी समय से हो गया था जब भारत में विदेशी शक्तियों ने पहला पैर रखा था, भारतीय असहिष्णु होते तो यहाँ किसी सत्ता को कभी उत्कर्ष ना मिल पाता। इस साम्प्रदायिकता नाम के विषैले पौधे को राजनीति ने भरपूर सिंचित किया चाहे वे सल्तनतें रही हों या राजवंश। औपनिवेशिक काल के दौरान ब्रिटिश सरकार का तो मूल मंत्र ही था ‘फूट डालो, और राज करो’। 1905 में बंगाल में काली पूजा, बंग-भंग पश्चात् स्वदेशी व बहिष्कार आन्दोलनों के एक हिस्से में लोक प्रचारित की गयी, उपनिवेशवाद विरोधी लामबंदी के उद्देश्य को पूरा करते हुए इन त्योहोरों व प्रतीकों का प्रयोग भी इसलिये किया गया कि विभिन्न समुदाय एक दूसरे से मन फेर लें। अंग्रेजों ने राष्ट्रवादी आन्दोलन को कमजोर करने के लिये साम्प्रदायिक व अलगाववादी राजनीति को बढ़ावा दिया परिणाम स्वरुप भारत अनेक ध्रुओं में बंट गया, पहले एक देश के लिए आजादी के नारे लगाये जाते थे अब टुकड़ों की आजादी के नारे लगाये जाने लगे ।
भारत में अंग्रेजी राज्य के उत्तरकाल में सबसे भयावह हिन्दू-मुस्लिम दंगे देखे गये। 1946 में तो मुस्लिम लीग ने अपने राजनैतिक हित साधने के लिए ‘सीधी कार्रवाई दिवस’ नाम से कलकत्ता मे बड़े पैमाने पर महीनों तक हिंसा का वातावरण बनाये रखा, गली-गली मौत के तांडव से रक्तरंजित हुई। इस हिंसा ने पूरे देश में मौत की ऐसी होली खेली, जिसका स्वप्न भी कभी इस भारत ने न देखा होगा । हिन्दुस्तान टुकड़े होकर आजाद हो गया, लेकिन इस देश की राजनीति अंग्रेजी हुकूमत से राज करने का पूरा पाठ्यक्रम अपनी नसों में उतार लिया था । और देश की राजनीति बिना किसी बाँध के चलने वाली वाली साम्प्रदायिक राजनीति इतिहास के लहुलुहान अक्षरों पर बहुत भरोसा करने लगी, इन्हीं पन्नों के नाम पर समाज में भीतर ही भीतर एक ऐसी दीवार खड़ी करती रही जो भविष्य के लिए अभेद्य हो जाये। हुआ भी वही उस दीवार का तोड़ कभी नहीं निकला या कहिये निकलने नहीं दिया गया।
अल्पसंख्यक के नाम पर बहुसंख्यक पर जुल्म करते रहिये बोलने का अधिकार नहीं, उधर बहुसंख्यक स्वयं को जन्मजात सहिष्णु घोषित करने के लिए लड़ाए जाते रहे। इसी प्रकार मुस्लिम सम्प्रदायवादियों के मुताबिक हिन्दुओं को बेगुनाह बेचारे मुसलमानों का साजिश से नाजायज फायदा उठाने वाले के रूप में देखा जाता है। इस तरह साल दर साल राजनीति धार्मिक उन्मादों को धीरे धीरे हवाओं में घोलती रही और साम्प्रदायिक ताकतें सशक्त होती रहीं हैं। यदि हम 1960 के दशक से वर्तमान परिदृश्य पर गहन दृष्टि डालें तो पायेंगे कि साम्प्रदायिक दंगे उत्तरोत्तर रूप से सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित ढंग से रचे गए हैं। भौतिक कारण व चुनावी मजबूरियाँ इस राजनीति का आधार तैयार करते हैं। साम्प्रदायिक दंगों में जनहानि सालों साल लगातार बढ़ती ही रही है। 1950 से 1960 के बीच दंगों में लगभग मृतकों की संख्या 316, फिर 84 के दंगे, 92 के दंगे, 2002 के दंगे, इस तरह दंगों का एक वृहद् इतिहास इस देश ने लिखा, कुछ पीड़ित आंकड़ों में दर्ज हुए कुछ बिना किसी कागजी कार्यवाही में आये फ़ना हो गये। किन्तु उस काल की राजनीति आदर्श का लबादा ओढ़ कर ये कर्म करती रही किन्तु आज सब कुछ सामने है, इस नए दशक में राजनीति ने अपनी शर्म के लबादे को भी उतार फेंका जो पहले पर्दे के पीछे होता आया था। आज राजनीति एवं समाज का कथित बुद्धिजीवी खुलेआम देशद्रोह के आरोपियों को अभिव्यक्ति के अधिकार के नाम पर नायक बनाता है और लोग उनके शाब्द चान्चल्यों में उलझकर धर्म की ढोल पीटते फिर रहे हैं। लेकिन इन किसानों की दर्द इतनी लंबी चर्चा नहीं होती। चर्चा अगर होती है तो उनकी खुदकुशी की या कोई घांस की रोटी खाता है तब।
कीर्ति दीक्षित। उत्तरप्रदेश के हमीरपुर जिले के राठ की निवासी। इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट रहीं। पांच साल तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संस्थानों में नौकरी की। वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकारिता। जीवन को कामयाब बनाने से ज़्यादा उसकी सार्थकता की संभावनाएं तलाशने में यकीन रखती हैं कीर्ति।
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