ज़ैग़म मुर्तज़ा
उत्तर प्रदेश का अमरोहा क़रीब तीन लाख की आबादी वाला क़स्बा है। इब्ने बतूता ने अपने सफरनामे में इसके एक ख़ूबसूरत शहर होने का ज़िक्र किया है। किसी ज़माने में ये हर तरफ तालाब, नदी और पोखरों से घिरा रहता था, मगर आज पानी की क़िल्लत से जूझ रहा है।
अपने सफरनामे में इब्ने बतूता अमरोहा से अग़वानपुर के सफर का ज़िक्र करते हैं। ज़माना बरसात का था और इब्ने बतूता लिखते हैं कि नदी का पानी चढ़ा हुआ है। उस नदी को पार करने में उन्हें ख़ासी दुश्वारियों का सामना करना पड़ा। जिस गागन नदी का ज़िक्र बतूता के सफरनामे में है वो अपनी ज़िंदगी के आख़िरी सफर पर है। यह अब एक काले पानी का नाला है जिसका पानी इतना ज़हरीला हो चुका है कि खेतों की फसल जला देता है।
एक और नदी है अमरोहा के नज़दीक़ जिसका नाम है बान। अमरोहा में जन्मे उर्दू के मशहूर शायर जॉन एलिया ने अस्सी के दशक में कराची में समुद्र किनारे एक तस्वीर खिंचवाई। इस तस्वीर के पीछे लिखा कि इस समुंदर पे आकर भी तश्नाकाम (प्यासा) हूं मैं, बान तुम अब भी बह रही हो क्या?? जॉन के बचपन में बान ख़ूब शान के साथ लहराती, बलखाती अमरोहा के नज़दीक से बहती थी। मुल्क के बंटवारे में जॉन बान के किनारे की यादें समेटकर सरहद के उस पार चले गए। यहां बान ने दम तोड़ दिया और लोगों की याद में बने रहने लायक़ भी न रही।
‘हमने तो ये एक गंदा नाला ही देखा है। नदी कब थी नहीं मालूम’, सिर खुजाते हुए बलबीर सिंह बताते हैं। बलबीर सिंह अमरोहा कांठ रोड पर रहते हैं और उनका खेत बान किनारे है। इस तरह की बात करने वाले बलबीर अकेले नहीं हैं। नक़ी मेहदी अमरोही पेशे से पत्रकार हैं। वो बताते हैं ‘जिन लोगों का जन्म अस्सी के दशक या उसके बाद हुआ है उनके लिए बान अब एक नाला ही है, मगर हमने सुना है कभी इसमें ख़ूब पानी बहता था’।
अमरोहा के ही क़रीब सोत नाम की एक और नदी बहा करती थी। इस नदी से भी बहुत से क़िस्से जुड़े हैं। इनमें एक है रेलगाड़ी के डूब जाने का। कहते हैं अंग्रेज़ों के ज़माने में इसमें एक सात डिब्बों की ट्रेन गिर गई थी। जिस जगह ट्रेन गिरी उस जगह पानी इतना गहरा था कि उसे बाहर निकाला न जा सका। मगर आज की सोत नदी को देखकर इस कहानी पर किसी को यक़ीन नहीं होगा। सोत में अब इतना पानी भी नहीं कि भेड़ या बकरी भी डूब जाए, ट्रेन तो दूर की बात है।
गंगा का सबसे नज़दीकी किनारा अमरोहा से महज़ तीस किलोमीटर दूर है और गंगा की सहायक नदी रामगंगा भी यहां से दूसरी दिशा में महज़ इतने ही फासले पर है। इस साठ किलोमीटर के दरमियान बगद, छोइया, मतवाली भी बहा करती थीं जो अब नहीं हैं। सड़कों पर बने पुल या पुलिया हमें बताते हैं कि यहां कभी नदी हुआ करती थी बाक़ी नदी खेतों में समा गई है। गजरौला निवासी राजेश गोयल बताते हैं, ‘पानी बहना बंद हुआ तो लोगों ने इन नदियों पर अवैध क़ब्ज़े कर लिए। अब तो शायद प्रशासन को भी न मालूम हो कि नदी कहां से गुज़रती थी।‘ वो बताते हैं कि इन नदियों में या तो औद्योगिक कचरा बहता है या इनकी ज़मीन पर अब खेती होती है।
मगर एक बड़ा सवाल है कि ये सब नदियां आख़िर गई कहां? कुछ लोग गंगा और यमुना पर बनी बांध परियोजनाओं को इन नदियों की मौत का ज़िम्मेदार मानते हैं कुछ इंसान के लालच को। कालागढ़ और टिहरी में बांध बनने के बाद गंगा की सहायक नदियां तो छोड़िए ख़ुद गंगा में ही पानी की धारा एक तिहाई भर रह गई है। जलधारा आंदोलन से जुड़े शाकिर अमरोही बताते हैं कि ‘रामगंगा नदी में ही जब पानी एक नाले जितना है तो ढेला और गागन में तो पानी का सवाल ही नहीं।‘ शाकिर के मुताबिक़ जल कि अविरल धाराओं पर बांध बनाकर सरकारों ने कृत्रिम संकट पैदा किया है। इसका एक मात्र इलाज जल की धारा को बंधन मुक्त करना है।
ज़ैग़म मुर्तज़ा। उत्तरप्रदेश के अमरोहा जिले में गजरौला के निवासी। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र फिलहाल दिल्ली में राज्यसभा टीवी में कार्यरत हैं।
Bachpan ki yaad dila di aapne. The Gagan and the Karula flow either sides of UMRI KALAN, that is my homeland. There was no bridge over the Karula and the guests were ferried through it by bullock carts. I have seen people drinking water from Karula. Once, my mamujaan took me to the Gagan for a morning walk. The Gagan still flows in my dream with her small shining pebbles under its clear waters. I can never forget those blinking shells that I had collected from its bed.
जैगम जी ने गजरौला की नदियों के बारे में सही लिखा है. उन्होंने इतिहास के पन्नों को भी बारीकी से पलटा है.